Monday, December 19, 2016

वैज्ञानिकदृष्टि बनाम अंध विश्वास ( scientific temper vs superstition)

वैज्ञानिक दृष्टि बनाम अंध विश्वास
+++++++++++++++++++++++++
“भय अंध विश्वास का जनक है और क्रूरता का स्रोत भी ...भय को जीतना ही बुद्धिमानी का आरम्भ है “
‘बंट्रेड रसेल’ (अपने एक निबन्ध में )
“एक विश्वास जो संदेह की गुंजाइश नही छोड़ता ,अंधविश्वास है”
(बर्गमीन)
बात कुछ दिनों पहले की है |
मेरे एक ठेकेदार मित्र के नये मकान में गृह प्रवेश का कार्यक्रम था | मकान क्या था,एक भव्य भवन था | सफेद संगमरमर से बना |
कथा के बाद शानदार लंच लेकर लौटते समय मकान के शीर्ष पर नज़र गयी तो जम कर रह गयी | वहां एक उलटे घड़े पर राक्षस का चित्र टंगा था और साथ में एक जूता भी |
मित्र से कोई सवाल करना बेमानी था | अलबत्ता मुझे वे ट्रक जरुर याद आये जिनके पीछे इसी तरह से बुरी नज़र से बचने के लिए जूते टांग दिये गये थे |
तो क्या मेरे ये मित्र भी उन्ही ट्रक चालको जितने ही बुद्धिमान हैं ?
हालाँकि डिग्रियाँ तो उनके पास बहुत ज्यादा हैं |
तो क्या हमारे देश में डिग्री और अन्धविश्वास का सीधा सम्बन्ध नहीं है ?
शायद है लेकिन उलटा |
यानी हमारे देश का पढ़ा लिखा आदमी बनिस्बत अशिक्षित किसान-मजदूर की तुलना में अधिक अन्धविश्वासी है | यूं तो अपने अपने तरह से अन्धविश्वास के शिकार दोनों वर्ग हैं |
लेकिन अशिक्षित तबके के ज्यादातर लोग अपने धार्मिक अनुष्ठानो या स्थानीय, जातीय रीति रिवाजो से परिचालित होते हैं जिनकी क्रियायें एक बारगी अन्धविश्वास दिखाई देती हैं लेकिन उनके मूल में अनुष्ठानिक तत्व का यांत्रिक निर्वहन होता है जहाँ अवचेतन में अपने समाज से एकात्म दर्शाने की आवश्यकता भी निहित होती है , इसके हटकर पढ़े लिखे सम्भ्रांत वर्ग के विश्वास उनके धार्मिक अनुष्ठान या सामाजिक रीतिरिवाज का हिस्सा ना होकर अज्ञात भय के प्रति उनकी अविवेकी प्रतिक्रिया मात्र होते हैं |
सिसरो ने मध्यकाल में धर्म को अंधविश्वास से अलग करने का प्रयास किया था | उसने अंधविश्वास को देवताओं के प्रति अत्याधिक भय से जोड़ा था |
अज्ञात भय के प्रति अविवेकी क्रिया- प्रतिक्रिया का एक उदाहरण सतना के एक आई ए एस अफसर का है जो राहुकाल से भीषण रूप से भयभीत रहते है|
वे अपने साथ एक चार्ट लेकर चलते जिसमे हर दिन का राहुकाल दर्ज़ होता | राहुकाल में वे अपने चेम्बर में सब काम छोड़कर कर्तव्यविमूढ़ होकर बैठे रहते | उनकी जगह कोई दूसरा कर्मचारी होता तो शायद समस्या उतनी बड़ी नहीं होती लेकिन एक आई ए एस अफसर जिसके काम से दर्जनों काम जुड़े रहते हैं राहु काल में जब अटक जाता था तो उस अवधि में कार्यालय का सब काम उबचुब हो जाता था |
शासकीय उत्तरदायित्वों के निर्वहन की दृष्टि से यह सिर्फ सनक नहीं एक अपराध भी है और यह तब और गम्भीर हो जाता है जब आप एक ऐसे पद पर बैठे हों जो समाज के लिए एक रोल माडल के रूप में मूल्यों को भी सम्पुष्ट करता है |
ऐसे लोग जब ज्ञान-विज्ञान के केन्द्रों में कर्ता धर्ता होते हैं तो ऐसे केन्द्रों का वृहत्तर-महत्तर उद्देश्य ही निष्फल हो जाता है | शायद ही और किसी देश में हमारे देश जैसी मिसाल मिले | जहाँ यान का प्रेक्षेपण मुहूर्त के हिसाब से तय किया जाये या डाक्टर छींक आने पर शकुन दोष का विचार करे या करोड़ो का खर्च उठाकर विधानसभा भवन में मुख्य द्वार को वास्तु दोष मानकर बदल दिया जावे |यद्यपि अन्धविश्वास की बीमारी लोकल नहीं ग्लोवल है ‘नासा’ के मिशन पर भी भाग्यशाली शर्ट के अन्धविश्वासी प्रकरण हुए हैं लेकिन हमारे देश पर बर्नाड शा की चेतावनी सटीक लागू होती है कि अंधविश्वासी व्यक्ति विज्ञान को भी अन्धविश्वास में बदल देगा |
यही वजह रही कि हमारे यहाँ विज्ञान और तकनीक के प्रसार के साथ अंधविश्वास का भी प्रसार और जन्म होता रहा |इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जिस विज्ञान को एडम स्मिथ ने अन्धविश्वास का ‘एंटीटोड’ कहा था वही इस देश में अंधविश्वास का पोषक बना हुआ है | जहाँ हर मिथक और पुराणों के किस्से-कारनामे वैज्ञानिक रूप से द्राविड़ प्राणायाम कर सच्चे सिद्ध किये जा रहे हैं | मनुष्य के धड़ पर पशु सर को सर्जरी से जोड़ा जा रहा है | स्टेम सेल थेरपी सिद्ध की जा रही है आदि आदि |
तकनीक के रूप में वर्तमान में सोशल मीडिया ऐसे अंधविश्वासों का सबसे बड़ा वितरण और प्रसारण केंद्र बन चुका है | “इस मेसेज को १० लोगो को फारवर्ड करो अच्छा होगा” टाइप का |
हममे कई लोग १३ नम्बर के कमरे में नही ठहरते या १३ नम्बर को कोई काम शुरू नहीं करते | हर दूकान के दरवाजे पर नीबू-मिर्च लटका रहता है |कुछ लोग सीढ़ी के नीचे से नहीं गुजरते या सड़क पर चलते हुए दरार को पार नही करते | ‘क्रास फिंगर’ और ‘टच-वुड’ करते रहते हैं या बिल्ली के रास्ता काटने पर वापस लौट जाते हैं या अखबार की शुरुआत ही अपने राशिफल से करते हैं और अपने दिन भर के कार्यक्रम उसी के हिसाब से तय करते हैं | यह सब जब तक नितांत व्यक्ति गत है तबी तक हास्यास्पद होकर भी नज़रअंदाज़ किया जा सकता है क्योंकि जब तक हम अपने किसी अंधविश्वास को चमत्कारिक महत्व प्रदान कर उसे दूसरों के बीच प्रचारित नही करते वह बहुत नुकसान देह नहीं कहा जा सकता लेकिन जब यही सार्वजनिक जगहों पर महत्त्वपूर्ण लोगो द्वारा किया जाता है या व्यक्ति विशेष इस कारण से समस्याग्रस्त हो जाता है तब इस पर विचार और प्रहार जरूरी हो जाता है |
इन अंधविश्वासों की जड़ में दो प्ररेकतत्व काम करते हैं पहली मनुष्य का अज्ञात के प्रति भय,उसकी भविष्य की घटनाओं को अपनी इच्छानुसार नियंत्रित करने की कामना और दूसरा इस भय का और कामना का शोषण करने वाले निर्मलानंद टाइप के बाबा जो समोसा,पुदीना की चटनी, लाल पर्स के जरिये व्यापार में मुनाफा, नौकरी में प्रमोशन से लेकर सास-बहू के झगड़े निपटाते हैं |
आदिम समय में मनुष्य के पास ज्ञान-विज्ञान की प्रचलित सरणियाँ नहीं थी तब बिजली-वर्षा,आंधी-तूफ़ान, भूकम्प –ज्वालामुखी जैसी प्राकृतिक घटनाओं का विश्लेष्ण वो जादुई या देवीय शक्तियों के प्रकोप या आनन्द के रूप में करता था और इन्ही जादुई,देवीय शक्तियों को प्रसन्न कर अपनी इच्छानुसार परिणाम प्राप्त करने के सिलसिले में नाना देवी-देवता,धार्मिक अनुष्ठान , जादू-टोना , टोटम की ईज़ाद करता गया |
एलिसवाकर कहते है कि मस्तिष्क जिसे समझ पाने में असमर्थ होता है भयवश उसकी पूजा करने लगता है |घटनाओं का विश्लेष्ण करने में असमर्थ मस्तिष्क ऐसे अंधविश्वासों का सबसे मुफीद ठिकाना है जैसा एडमंड बर्क कहते हैं “अंधविश्वास दुर्बल दिमाग का धर्म है “ |
मस्तिष्क की इसी दुर्बलता से अवृष्टि ,अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक घटनाओं के सन्दर्भ में पशुओ की बलि देकर या नंगी स्त्री से हल जुतवाने जैसे अनुष्ठान या टोटके करके देवता को प्रसन्न करने का अंधविश्वास आदिम समाज में जन्मा था |
आदिम समाज से आगे जहां आधुनिक समाज में ज्ञान-विज्ञान के विकास के साथ इन पर विराम लगना था वहीं ये संख्या और स्वरूप दोनों ही तरह से अधिक और अधिक विकसित होते गये | शायद उसकी वजह यह थी की आधुनिक समाज की जटिलताओ ने व्यक्ति की आवश्यकताओ,आकांक्षाओं के साथ उसकी दुश्चिन्ताओ के स्तर को भी बढ़ा दिया था | अन्धविश्वास परिणाम की अनिश्चितता के जिस मनोग्रसित बाध्यकारी विकार (Obsessive–compulsive disorder ) से परिचालित होते हैं, वह आधुनिक समाज में भीषण हैं | प्रतिस्पर्धा जनित उद्योग, खेल आदि के क्षेत्र में जहाँ परिणाम प्रयास के अतिरिक्त अन्य कारको पर ज्यादा निर्भर करता है हीं अंधविश्वास की अधिकता देखने को मिलती है |
खिलाडियों का पूरे सत्र में बाल नहीं बनवाना या जर्सी को बिना धोये पहनकर खेलते रहना या स्टार क्रिकेट खिलाड़ी का आउट होने के बाद भी पैड नहीं उतारना आदि आदि इसी परिणाम की अनिश्चितता और जीतने के दवाब से जन्मे अन्धविश्वासी विकार हैं | परिणाम पर नियंत्रण के इसी अभाव के चलते पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अंधविश्वास के प्रति रुझान ज्यादा दिखाई देता है | हमारे सामाजिक-पारिवारिक वातावरण में महिलाओं का भाग्य आज भी पुरुषों पर निर्भर है इसी से जन्मे भय ने उन्हें अंधविश्वास के प्रति अधिक अनुकूलित बना दिया है |परिणाम की यही अनिश्चितता परीक्षा या केम्पस सलेक्शन के समय महाविद्यालयों , विश्व विद्यालयों के परिसर में देखी जा सकती है जब मेधावी विद्यार्थी भी अच्छे परिणाम के लिए तरह-तरह के टोटके करते देखा जाता है |
बी .ऍफ़ .स्किनर ने इसे लेकर अपना 'कपोत सिद्धांत' प्रतिपादित किया था | उनके अनुसार एक पिंजरे में बंद बहुत से कबूतर दाने के लिए अलग-अलग क्रिया करते हैं कोई पंख सहलाता है,कोई गर्दन घुमाता है,तो कोई पूंछ हिलाता है | उन्हें मिलने वाले दाने में उनकी इन क्रियाओं का कोई सम्बन्ध नहीं होता | ठीक इसी तरह मनुष्य भी किसी परिणाम के लिए ऐसे ही विश्वास अपनाता है और वांछित परिणाम प्राप्त होने पर उसके विश्वास का सबलीकरण हो जाता है | धीरे से वह अंध विश्वास में बदल जाता है | फिर ये प्रतिकूल परिणाम पर भी इसलिए नही बदलता क्योकि मनुष्य घटना या परिणाम के हिट(hit) को पकड़ता है उसके मिस (mis) को नहीं |वर्ना जब सोने का व्यापारी अपने धंधे में बरकत के लिए सोने की नहीं लोहे की अंगूठी धारण कर लेता है और लोहे का व्यापारी सोने की तब भी धंधे के उतार -चढ़ाव बाज़ार के नियमो से आते जाते रहते हैं जो उन अंगूठियों से कितना प्रभावित होते हैं कोई नहीं बता सकता |
सभ्यता के विकास क्रम में शायद इन अन्धविश्वासो की अपनी उपयोगिता भी रही होगी जैसे जब एंटीसेप्टिक साबुन नहीं बने थे तब श्मशान से आने पर बिना नहाये घर के अंदर घुसने पर बुरी आत्मा के साये का विचार या नीम की पत्तियों का स्नान करने का विश्वास साफ़ सफाई और स्वास्थ के हिसाब से उचित था | इसी तरह रेडियेशन के खतरे को भांपकर ग्रहण के समय गर्भ वती स्त्री के बाहर निकलने पर देवताओं के कोप से गर्भस्थ शिशु को जोड़ा गया होगा | उचित प्रकाश के अभाव में रात को नाखून काटने को अशुभ बताया गया होगा क्योंकि नाखून के साथ अंगुलियों को क्षति होने की सम्भावना से इंकार नही किया जा सकता था | राशि अंगूठी या लकी चार्म जैसे अंधविश्वास को ‘प्लेसबो इफेक्ट’ से समझा जा सकता है यानी विपरीत परिस्थितियों में सिर्फ सकारात्मक विचार का प्रभाव | एक ताबीज़ या रत्न धारण करके हम विश्वास कर लेते हैं कि अब सब ठीक हो जाएगा और यह सकारात्मक सोच हमें उस समय के लिए दुश्चिंता से मुक्त कर देती है |कुछ स्थितियों में मन्त्रजाप भी फोकस होने में मदद करता है | इसे आटो हिप्नोसिस ( आत्म सम्मोहन सुझाव ) की तरह से भी समझा जा सकता है | जो भी हो किन्तु ऐसी बदली परिस्थिति में हमारा व्यक्तित्व आत्म विश्वास से भर उठता है और हम वाकई पहले से बेहतर कर पाते है जिसका परिणाम भी पहले से बेहतर मिलता है | इस रूप में अंधविश्वास ऐसा जहर है , कुछ परिस्थितयों में जिसकी छोटी खुराक उपयोगी सिद्ध होती है |
लेकिन इन सभी नुस्खो का दुष्परिणाम यह है ये हमारे विवेक को समाप्त कर हमें ऐसी डिवाइस यानी अंधविश्वास पर निर्भर बनाने लगते है | विपरीत स्थितियों में हमारा आत्म विश्वास कम होकर हमारे व्यक्तित्व को विभाजित करने लगता है |
१३ तारीख को मनहूस मानने वाला या यात्रा के लिए दिशा शूल विचारने वाला कई बार जरूरी यात्राओं को स्थगित कर देता है और उसके साथ कई लोग नुकसान उठाते हैं | कई दफे अंधविश्वास की शर्मनाक और खौफनाक परिणति ऐसे मामले में देखने को मिलती है जिनमे बीमार बच्चे की चिकित्सा के लिए उसके माँ-बाप अबोध शिशु को निर्दयी बाबा के आगे डाल देते हैं जो बीमार बच्चे के ऊपर पैर धरकर खड़ा हो जाता है | आज हमारे विज्ञान ने चेचक और माता के इलाज के लिये टीके ईज़ाद कर दिये हैं,तब भी माँ –बाप अपने बच्चे को छोटीमाता,बड़ी माता का प्रकोप मानकर उचित चिकित्सा की जगह टोटके करते रहते हैं और बच्चा मर जाता हैं |अस्पताल में एंटीवेनम इंजेक्शन अवधि समाप्त होकर बेकार हो जाते हैं और झाड़-फूंक में समय जाया होने से सर्प दंश से मौत हो जाती है | २१ वी सदी में भी अख़बार में खबरे आती है कि बहू को परिवार के लिए अशुभ बताकर घर से निकाल दिया गया या महिलाओं को डायन बताकर ज़िंदा जला दिया गया | बाल-खाल-दांत-पंजे से जुड़े अन्धविश्वास की वजह से शेर से लेकर उल्लू तक के शिकार किये गये और पर्यावरण असंतुलन की स्थिति में पहुँच गया |
ऐसी परिस्थित्तियो में डायन आदि से जुड़े अंधविश्वासों को क़ानून लाकर अपराध घोषित करने की फौरी आवश्यकता है |
प्राचीन यूनान में अन्धविश्वासो को लेकर जो विरोध प्रोटोगेरेस से शुरू हुआ वह मध्यकाल में रोम में सिसरो जैसे दार्शनिको के प्रयास से क़ानून की शक्ल में बदल गया जब अन्धविश्वास के प्रचार को अपराध बना दिया गया |
भारत में भी अंधविश्वास के विरुद्ध प्राचीन काल में लोकायत की,मध्य काल में कबीर की और आधुनिक काल में नरेंद्र दाभोलकर की परम्परा मिलती है लेकिन लोकायत और कबीर को जहाँ विरोध और धिक्कार का सामना करना पड़ा वहीं नरेंद्र दाभोलकर को गोली मार दी गई |
भारतीय संविधान के अनुच्छेद ५१(क)(ज) में हर भारतीय नागरिक के लिए यह मूल कर्तव्य बताया गया है कि वह वैज्ञानिक दृष्टीकोण, ज्ञानार्जन और मानव वाद के विकास में योगदान दे |
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सम्बन्ध रीजनिंग से है |
वहां वही बात ग्राह्य है जो बात प्रयोग और परिणाम से सिद्ध की जा सके |जिसमे कार्य और कारण का अन्तर्सम्बन्ध स्थापित किया जा सके | अंधविश्वास में कार्य और कारण का कोई सम्बन्ध नहीं होता | वह ऐसा व्यवहार है जिसका वास्तविकता से ही कोई प्रत्यक्ष ,परोक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है |
इस तरह से अंधविश्वास सीधे-सीधे हमारे संविधान के विरोध में है लेकिन जिस देश में बच्चे के पैदा होते ही उसके गले में ताबीज़ और गंडा बाँध दिया जाता हो | माथे पर काला टीका आंज दिया जाता हो | जहाँ उसे दूध की जगह अंधविश्वास घुट्टी की तरह पिलाये जाते हो वहां अभी सम्विधान के चरितार्थ होने में लम्बा समय लगेगा लेकिन शुरुआत करने का समय यही है ..अभी से ||
||हनुमंत किशोर ||

No comments:

Post a Comment