अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता वाया ‘पद्मावती’
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‘मुझे स्वन्त्रता दो या मुझे मृत्यु दो’
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‘मुझे स्वन्त्रता दो या मुझे मृत्यु दो’
-पेट्रिक हैनरी
अमेरिका के एक राजनीतिज्ञ और आंदोलनकारी के रूप में पेट्रिक हेनरी का यह कथन राजनैतिक संदर्भो में जितना सच है , उससे कहीं ज्यादा सच साहित्यिक , सांस्कृतिक और कलागत संदर्भो में हैं | साहित्य-कला-सिनेमा गोया सृजन की हर विधा का सत्ता से द्वंद रहा है | क्योंकि सत्ता का स्वार्थ यथास्थिति को बनाये रखने में होता है जबकि सृजन की पुरोभाव्य शर्त ही यथास्थिति के विरोध में होना होती है | सृजन की तामीर ही पुराने के विध्वंस के पीछे आती है | यथास्थिति से यह टकराव सृजनकर्मी के लिए खतरा पैदा करता है जिससे अपने सृजनकर्मी को बचाने के लिए ही हर सभ्य देश ने अपनी विधि में अभिव्यक्ति की स्वतंतत्रा को समाहित किया है | हमारे देश में अभिव्यक्ति की यह स्वतन्त्रता सम्विधान के अनुच्छेद १९ में सुरक्षित की गयी है जिसे नागरिक जिसमे सृजनकर्मी भी शामिल है के पक्ष में सुरक्षित करना राज्य का कर्तव्य भी बनता है | यद्यपि किसी भी स्वतन्त्रता की तरह यह भी सर्वथा निर्बंध नहीं है अपितु कतिपय दायित्वों के अधीन है |
सृजन की अभिव्यक्ति की इस आजादी पर राज्य और राज्येत्तर फासीवादी शक्तियां समय समय पर हमला कर सृजन की शक्तियों को अपने पक्ष में नियंत्रित और संचालित करने का प्रयास करते रही हैं |
‘राज्य’ की अपनी कुछ मर्यादायें हो सकती है जिसके चलते वो वक्त जरूरत अपने छद्म संगठनो,शक्तियों के द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी को आतंकित करने के इस काम को अंजाम देता है |
हाल ही में ‘पद्मावती’ की शूटिंग कर रहे संजय लीला भंसाली और उनकी टीम पर हुआ फासीवादी हमला इसकी एक मिसाल है |
इस विवाद को समझने के पहले पद्मावती के किस्से को संक्षेप में समझना सहूलियत भरा रहेगा |
तेरहवी सदी में दिल्ली में सुल्तान हुआ था अलाउद्दीन खिलजी | उसी समय सिंहल दीप में राजा गंधर्व सेन और रानी चम्पावती की एक संतान थी राजकुमारी पद्मावती | जिसका विवाह चितौड़ गढ़ के राजा रत्न सेन से हुआ | अनिंध्य सुन्दरी पद्मावती के सौन्दर्य की चर्चा सुनकर पद्मावती को पाने की लालसा से खिलजी की सेना ने चितौड़ गढ़ का रुख किया | और रत्न सेन को बंदी बना लिया | बदले में पद्मावती को सौंप देने की मांग रखी गयी | इस बीच राजपूत वीर गोरा और बादल के नेतृत्व में राजा रतनसेन कैद सेछुड़ा लिये गये |
खिलजी की सेना ने अबकी चितौड़ घेर लिया | रत्नसेन वीर गति को प्राप्त हुए लेकिन खिलजी की सेना रानी पद्मावती तक पहुँच पाती कि इसके पहले रानी पद्मावती ने अपनी १६ हज़ार ललनाओं के साथ जौहर यानी अस्मिता को बचाने के लिए अग्नि कुंड में प्राणोत्सर्ग कर दिया |
इस कहानी में थोड़ा-बहुत फेर फार हो सकता है क्योंकि हमारे देश में इतिहास की चेतना में मिथक की चेतना हावी होकर इतिहास,आख्यान और पुराण को आपस में गड्डमड कर देती है | इसी कहानी को अवधी में मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में बोलने वाले तोते आदि के प्रसंग के साथ नये आध्यात्मिक प्रतीकों में व्यक्त किया है | वहां पद्मावती के साथ एक और नायिका नागमती भी है जिसकी विरह वेदना साहित्य में अद्वितीय है | लेकिन पद्मावती फिल्म को लेकर विवाद करने वाले शायद ही साहित्य और सृजन की इस छूट और स्वतन्त्रता से सहमत होंगे अन्यथा जयपुर के नाहर गढ़ किले में जब पद्मावती की शूटिंग चल रही थी , तब साहित्य सिनेमाई अभिव्यक्ति पर हमले की नौबत ही क्यों आती ?
बताया जाता है कि फिल्म में एक स्वप्न दृश्य था जिसमे अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती का प्रेम प्रसंग दिखाया गया है | इसी बात से नाराज़ राजपूत करणी सेना के लोगों ने इसे अपनी संस्कृति और नायक पर नापाक हमला करार देते हुए शूटिंग स्थल पर तोड़फोड़ कर दी और जैसा कि आरोप है संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की गयी |
इस मामले पर कोई टिप्पणी किये बगैर इस परिदृश्य को समझने की कोशिश करते हैं |
सृजन की अभिव्यक्ति की इस आजादी पर राज्य और राज्येत्तर फासीवादी शक्तियां समय समय पर हमला कर सृजन की शक्तियों को अपने पक्ष में नियंत्रित और संचालित करने का प्रयास करते रही हैं |
‘राज्य’ की अपनी कुछ मर्यादायें हो सकती है जिसके चलते वो वक्त जरूरत अपने छद्म संगठनो,शक्तियों के द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी को आतंकित करने के इस काम को अंजाम देता है |
हाल ही में ‘पद्मावती’ की शूटिंग कर रहे संजय लीला भंसाली और उनकी टीम पर हुआ फासीवादी हमला इसकी एक मिसाल है |
इस विवाद को समझने के पहले पद्मावती के किस्से को संक्षेप में समझना सहूलियत भरा रहेगा |
तेरहवी सदी में दिल्ली में सुल्तान हुआ था अलाउद्दीन खिलजी | उसी समय सिंहल दीप में राजा गंधर्व सेन और रानी चम्पावती की एक संतान थी राजकुमारी पद्मावती | जिसका विवाह चितौड़ गढ़ के राजा रत्न सेन से हुआ | अनिंध्य सुन्दरी पद्मावती के सौन्दर्य की चर्चा सुनकर पद्मावती को पाने की लालसा से खिलजी की सेना ने चितौड़ गढ़ का रुख किया | और रत्न सेन को बंदी बना लिया | बदले में पद्मावती को सौंप देने की मांग रखी गयी | इस बीच राजपूत वीर गोरा और बादल के नेतृत्व में राजा रतनसेन कैद सेछुड़ा लिये गये |
खिलजी की सेना ने अबकी चितौड़ घेर लिया | रत्नसेन वीर गति को प्राप्त हुए लेकिन खिलजी की सेना रानी पद्मावती तक पहुँच पाती कि इसके पहले रानी पद्मावती ने अपनी १६ हज़ार ललनाओं के साथ जौहर यानी अस्मिता को बचाने के लिए अग्नि कुंड में प्राणोत्सर्ग कर दिया |
इस कहानी में थोड़ा-बहुत फेर फार हो सकता है क्योंकि हमारे देश में इतिहास की चेतना में मिथक की चेतना हावी होकर इतिहास,आख्यान और पुराण को आपस में गड्डमड कर देती है | इसी कहानी को अवधी में मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में बोलने वाले तोते आदि के प्रसंग के साथ नये आध्यात्मिक प्रतीकों में व्यक्त किया है | वहां पद्मावती के साथ एक और नायिका नागमती भी है जिसकी विरह वेदना साहित्य में अद्वितीय है | लेकिन पद्मावती फिल्म को लेकर विवाद करने वाले शायद ही साहित्य और सृजन की इस छूट और स्वतन्त्रता से सहमत होंगे अन्यथा जयपुर के नाहर गढ़ किले में जब पद्मावती की शूटिंग चल रही थी , तब साहित्य सिनेमाई अभिव्यक्ति पर हमले की नौबत ही क्यों आती ?
बताया जाता है कि फिल्म में एक स्वप्न दृश्य था जिसमे अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती का प्रेम प्रसंग दिखाया गया है | इसी बात से नाराज़ राजपूत करणी सेना के लोगों ने इसे अपनी संस्कृति और नायक पर नापाक हमला करार देते हुए शूटिंग स्थल पर तोड़फोड़ कर दी और जैसा कि आरोप है संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की गयी |
इस मामले पर कोई टिप्पणी किये बगैर इस परिदृश्य को समझने की कोशिश करते हैं |
सबसे पहली बात तो यह कि कथित राष्ट्रीय और स्वयम्भू सांस्कृतिक शक्तियों द्वारा यह पहला और आखरी हमला नहीं था | अभिव्यक्ति की आजादी को वर्गीय हितों के आधार पर हर वर्ग अपनी तरह से परिभाषित करता रहा है | इसके पहले भी दीपा मेहता की ‘वाटर’ की शूटिंग बनारस में रुकवा दी गयी थी जिसे उन्हें श्रीलंका में पूरा करना पड़ा | इस मामले में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों में एक सी तासीर दिखती है जहाँ दीपा मेहता की ही ‘अर्थ’ जो बंटवारे पर आधारित थी की शूटिंग पाकिस्तान में लाहौर कोर्ट के फैसले के बाद रुकवा दी गयी थी |
कुछ एक बरस पहले जोधा-अकबर को लेकर भी लव जेहादियों ने हमला किया था तो हाल ही में ‘ए दिल मुश्किल यहाँ’ को कथित राष्ट्रवादियों की धमकी के बाद एक तरह से जुर्माना अदा कर रिलीज होने की सुरक्षा हासिल हो सकी |
होता यह है जैसे ही कोई विचार या प्रत्यय किसी भी तरह की सत्ता से वैधता प्राप्त कर लेता है तो स्वयम को एकमेव सत्य घोषित कर मतान्ध हो जाता है | उस मत के आलोक में जो सत्य दिखाई देता है उतना ही उसे स्वीकार होता है शेष उसकी दृष्टि में राष्ट्र और संस्कृति के विरोध में होता है | यहाँ वस्तुनिष्ठता दरकिनार हो जाती है और आत्मपरकता तथा व्यक्ति गत राग द्वेष प्रमुख हो जाते हैं | ज़रा ‘शोले’ के विरोध को याद करें जब एक राजनैतिक दल ने महाराष्ट्र के भीतर ए के हंगल से जुड़े दृश्यों के हटाकर फिल्म दिखाये जाने का फतवा दिया था | कारण कि ए के हंगल का धुर साम्प्रदायिकता विरोधी रुख उनके लिए आपाच्य हो गया था |
सत्ता और यथास्थिति से साहित्य-सिनेमा-कला के यह टकराव सनातन है जिसकी अपने आदर्श राज्य में भी कल्पना कर प्लेटो ने आदर्श राज्य से कवियों को बहिष्कृत करने की बात कही थी | मिथक में भी भरत मुनि भी अपनी मण्डली और नाट्य शास्त्र के साथ देवाताओ द्वारा स्वर्ग से बहिष्कृत किये गए थे तो आधुनिक काल में भी सत्ता ने १९ वी सदी में ‘नील दर्पण’ ‘कीचक वध’ से शुरू कर २० वी और २१ वी सदी में ‘हल्ला बोल’ ‘बहादुर कलारिन’ ‘और अंत में प्रार्थना’ तक यह सिलसिला अटूट रखा | रंग कर्म को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजो के जमाने में लाया गया ड्रामेटिक परफार्मिंग एक्ट आज भी यथावत है तो सिनेमा को सेंसरसिप की नकेल डालकर नाथा हुआ है |श्याम बेनेगल ने इसी से नाखुश होकर कभी कहा था कि सेंसर बोर्ड का काम फिल्म को सर्टिफिकेट देना है सुझाव देना नहीं |
हाल ही में जब 'उड़ता पंजाब ' को लेकर भी सेंसर बोर्ड सियासी साजिश का शिकार होता और करता दिखा तब सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा |इन सबको देखते हुए पीटर स्टीवर्ट बरबस याद आते हैं जो कहते थे कि सेंसर शिप समाज की आत्मविश्वास हीनता को दर्शाता है |
कला-फिल्म और साहित्य के प्रति बढ़ती इसी चरम असहिष्णुता का ही परिणाम रहा कि जिस एम .एफ. हुसैन भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया वे ही चरमपंथियों और कोर्ट की टिप्पणी के डर से हिन्दुस्तान बाहर भागे-भागे फिरते रहे और मौत पर उन्हें ख़ाके वतन भी नसीब ना हुई | यह विडम्बना तब और गहरी हो जाती है जब अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए यह देश दलाई लामा और तस्लीमा नसरीन को संरक्षण प्रदान करता है |तसलीमा नसरीन के ही हवाले से उनका कहा मौजू है | वे कहती हैं कि जिनके धर्म औरते के प्रति दमनकारी होते हैं , वे लोकतंत्र , मानवाधिकार , अभिव्यक्ति की आजादी के विरोधी हैं |
कुछ एक बरस पहले जोधा-अकबर को लेकर भी लव जेहादियों ने हमला किया था तो हाल ही में ‘ए दिल मुश्किल यहाँ’ को कथित राष्ट्रवादियों की धमकी के बाद एक तरह से जुर्माना अदा कर रिलीज होने की सुरक्षा हासिल हो सकी |
होता यह है जैसे ही कोई विचार या प्रत्यय किसी भी तरह की सत्ता से वैधता प्राप्त कर लेता है तो स्वयम को एकमेव सत्य घोषित कर मतान्ध हो जाता है | उस मत के आलोक में जो सत्य दिखाई देता है उतना ही उसे स्वीकार होता है शेष उसकी दृष्टि में राष्ट्र और संस्कृति के विरोध में होता है | यहाँ वस्तुनिष्ठता दरकिनार हो जाती है और आत्मपरकता तथा व्यक्ति गत राग द्वेष प्रमुख हो जाते हैं | ज़रा ‘शोले’ के विरोध को याद करें जब एक राजनैतिक दल ने महाराष्ट्र के भीतर ए के हंगल से जुड़े दृश्यों के हटाकर फिल्म दिखाये जाने का फतवा दिया था | कारण कि ए के हंगल का धुर साम्प्रदायिकता विरोधी रुख उनके लिए आपाच्य हो गया था |
सत्ता और यथास्थिति से साहित्य-सिनेमा-कला के यह टकराव सनातन है जिसकी अपने आदर्श राज्य में भी कल्पना कर प्लेटो ने आदर्श राज्य से कवियों को बहिष्कृत करने की बात कही थी | मिथक में भी भरत मुनि भी अपनी मण्डली और नाट्य शास्त्र के साथ देवाताओ द्वारा स्वर्ग से बहिष्कृत किये गए थे तो आधुनिक काल में भी सत्ता ने १९ वी सदी में ‘नील दर्पण’ ‘कीचक वध’ से शुरू कर २० वी और २१ वी सदी में ‘हल्ला बोल’ ‘बहादुर कलारिन’ ‘और अंत में प्रार्थना’ तक यह सिलसिला अटूट रखा | रंग कर्म को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजो के जमाने में लाया गया ड्रामेटिक परफार्मिंग एक्ट आज भी यथावत है तो सिनेमा को सेंसरसिप की नकेल डालकर नाथा हुआ है |श्याम बेनेगल ने इसी से नाखुश होकर कभी कहा था कि सेंसर बोर्ड का काम फिल्म को सर्टिफिकेट देना है सुझाव देना नहीं |
हाल ही में जब 'उड़ता पंजाब ' को लेकर भी सेंसर बोर्ड सियासी साजिश का शिकार होता और करता दिखा तब सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा |इन सबको देखते हुए पीटर स्टीवर्ट बरबस याद आते हैं जो कहते थे कि सेंसर शिप समाज की आत्मविश्वास हीनता को दर्शाता है |
कला-फिल्म और साहित्य के प्रति बढ़ती इसी चरम असहिष्णुता का ही परिणाम रहा कि जिस एम .एफ. हुसैन भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया वे ही चरमपंथियों और कोर्ट की टिप्पणी के डर से हिन्दुस्तान बाहर भागे-भागे फिरते रहे और मौत पर उन्हें ख़ाके वतन भी नसीब ना हुई | यह विडम्बना तब और गहरी हो जाती है जब अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए यह देश दलाई लामा और तस्लीमा नसरीन को संरक्षण प्रदान करता है |तसलीमा नसरीन के ही हवाले से उनका कहा मौजू है | वे कहती हैं कि जिनके धर्म औरते के प्रति दमनकारी होते हैं , वे लोकतंत्र , मानवाधिकार , अभिव्यक्ति की आजादी के विरोधी हैं |
कला-फिल्म और साहित्य के प्रति बढ़ती इसी चरम असहिष्णुता का ही परिणाम रहा कि जिस एम .एफ. हुसैन भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया वे ही चरमपंथियों और कोर्ट की टिप्पणी के डर से हिन्दुस्तान बाहर भागे-भागे फिरते रहे और मौत पर उन्हें ख़ाके वतन भी नसीब ना हुई | यह विडम्बना तब और गहरी हो जाती है जब अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए यह देश दलाई लामा और तस्लीमा नसरीन को संरक्षण प्रदान करता है |इन सबके बीच कभी-कभी यह अहसास भी होता है कि हम अंग्रेजो से तो आज़ाद हो गये लेकिन अपने ही देश के गुंडों से आज़ाद होना आज भी बाकी है |
जो भी हो किसी भी दौर में सर्वसत्तावाद स्वरूप और उद्देश्य चाहे जो हो कला-साहित्य-सिनेमा प्रतिपक्ष की ही अपनी शाश्वत भूमिका में रहकर सार्थकता प्राप्त करता रहेगा और कीमत चुकाता रहेगा | हर लेखक –कलाकार –संस्कृतिकर्मी अपने आप में पहले एक एक्टविस्ट भी होता है | जिसे १९६८ फ्रांस के विद्रोही छात्रों के दिए नारे को याद रखना जरूरी है कि जो चुपचाप खड़े रहते हैं और इंतज़ार करते है वे भी मारे जाते हैं |
और जैसा रघुवीर सहाय भी अपनी कविता में कहते हैं –“कुछ तो होगा, कुछ तो होगा, अगर मैं बोलूंगा, न टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता का, मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा।“
और जैसा रघुवीर सहाय भी अपनी कविता में कहते हैं –“कुछ तो होगा, कुछ तो होगा, अगर मैं बोलूंगा, न टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता का, मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा।“
||हनुमंत किशोर ||