Friday, February 10, 2017

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता वाया ‘पद्मावती’

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता वाया ‘पद्मावती’
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‘मुझे स्वन्त्रता दो या मुझे मृत्यु दो’
-पेट्रिक हैनरी
अमेरिका के एक राजनीतिज्ञ और आंदोलनकारी के रूप में पेट्रिक हेनरी का यह कथन राजनैतिक संदर्भो में जितना सच है , उससे कहीं ज्यादा सच साहित्यिक , सांस्कृतिक और कलागत संदर्भो में हैं | साहित्य-कला-सिनेमा गोया सृजन की हर विधा का सत्ता से द्वंद रहा है | क्योंकि सत्ता का स्वार्थ यथास्थिति को बनाये रखने में होता है जबकि सृजन की पुरोभाव्य शर्त ही यथास्थिति के विरोध में होना होती है | सृजन की तामीर ही पुराने के विध्वंस के पीछे आती है | यथास्थिति से यह टकराव सृजनकर्मी के लिए खतरा पैदा करता है जिससे अपने सृजनकर्मी को बचाने के लिए ही हर सभ्य देश ने अपनी विधि में अभिव्यक्ति की स्वतंतत्रा को समाहित किया है | हमारे देश में अभिव्यक्ति की यह स्वतन्त्रता सम्विधान के अनुच्छेद १९ में सुरक्षित की गयी है जिसे नागरिक जिसमे सृजनकर्मी भी शामिल है के पक्ष में सुरक्षित करना राज्य का कर्तव्य भी बनता है | यद्यपि किसी भी स्वतन्त्रता की तरह यह भी सर्वथा निर्बंध नहीं है अपितु कतिपय दायित्वों के अधीन है |
सृजन की अभिव्यक्ति की इस आजादी पर राज्य और राज्येत्तर फासीवादी शक्तियां समय समय पर हमला कर सृजन की शक्तियों को अपने पक्ष में नियंत्रित और संचालित करने का प्रयास करते रही हैं |
‘राज्य’ की अपनी कुछ मर्यादायें हो सकती है जिसके चलते वो वक्त जरूरत अपने छद्म संगठनो,शक्तियों के द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी को आतंकित करने के इस काम को अंजाम देता है |
हाल ही में ‘पद्मावती’ की शूटिंग कर रहे संजय लीला भंसाली और उनकी टीम पर हुआ फासीवादी हमला इसकी एक मिसाल है |
इस विवाद को समझने के पहले पद्मावती के किस्से को संक्षेप में समझना सहूलियत भरा रहेगा |
तेरहवी सदी में दिल्ली में सुल्तान हुआ था अलाउद्दीन खिलजी | उसी समय सिंहल दीप में राजा गंधर्व सेन और रानी चम्पावती की एक संतान थी राजकुमारी पद्मावती | जिसका विवाह चितौड़ गढ़ के राजा रत्न सेन से हुआ | अनिंध्य सुन्दरी पद्मावती के सौन्दर्य की चर्चा सुनकर पद्मावती को पाने की लालसा से खिलजी की सेना ने चितौड़ गढ़ का रुख किया | और रत्न सेन को बंदी बना लिया | बदले में पद्मावती को सौंप देने की मांग रखी गयी | इस बीच राजपूत वीर गोरा और बादल के नेतृत्व में राजा रतनसेन कैद सेछुड़ा लिये गये |
खिलजी की सेना ने अबकी चितौड़ घेर लिया | रत्नसेन वीर गति को प्राप्त हुए लेकिन खिलजी की सेना रानी पद्मावती तक पहुँच पाती कि इसके पहले रानी पद्मावती ने अपनी १६ हज़ार ललनाओं के साथ जौहर यानी अस्मिता को बचाने के लिए अग्नि कुंड में प्राणोत्सर्ग कर दिया |
इस कहानी में थोड़ा-बहुत फेर फार हो सकता है क्योंकि हमारे देश में इतिहास की चेतना में मिथक की चेतना हावी होकर इतिहास,आख्यान और पुराण को आपस में गड्डमड कर देती है | इसी कहानी को अवधी में मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में बोलने वाले तोते आदि के प्रसंग के साथ नये आध्यात्मिक प्रतीकों में व्यक्त किया है | वहां पद्मावती के साथ एक और नायिका नागमती भी है जिसकी विरह वेदना साहित्य में अद्वितीय है | लेकिन पद्मावती फिल्म को लेकर विवाद करने वाले शायद ही साहित्य और सृजन की इस छूट और स्वतन्त्रता से सहमत होंगे अन्यथा जयपुर के नाहर गढ़ किले में जब पद्मावती की शूटिंग चल रही थी , तब साहित्य सिनेमाई अभिव्यक्ति पर हमले की नौबत ही क्यों आती ?
बताया जाता है कि फिल्म में एक स्वप्न दृश्य था जिसमे अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती का प्रेम प्रसंग दिखाया गया है | इसी बात से नाराज़ राजपूत करणी सेना के लोगों ने इसे अपनी संस्कृति और नायक पर नापाक हमला करार देते हुए शूटिंग स्थल पर तोड़फोड़ कर दी और जैसा कि आरोप है संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की गयी |
इस मामले पर कोई टिप्पणी किये बगैर इस परिदृश्य को समझने की कोशिश करते हैं |
सबसे पहली बात तो यह कि कथित राष्ट्रीय और स्वयम्भू सांस्कृतिक शक्तियों द्वारा यह पहला और आखरी हमला नहीं था | अभिव्यक्ति की आजादी को वर्गीय हितों के आधार पर हर वर्ग अपनी तरह से परिभाषित करता रहा है | इसके पहले भी दीपा मेहता की ‘वाटर’ की शूटिंग बनारस में रुकवा दी गयी थी जिसे उन्हें श्रीलंका में पूरा करना पड़ा | इस मामले में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों में एक सी तासीर दिखती है जहाँ दीपा मेहता की ही ‘अर्थ’ जो बंटवारे पर आधारित थी की शूटिंग पाकिस्तान में लाहौर कोर्ट के फैसले के बाद रुकवा दी गयी थी |
कुछ एक बरस पहले जोधा-अकबर को लेकर भी लव जेहादियों ने हमला किया था तो हाल ही में ‘ए दिल मुश्किल यहाँ’ को कथित राष्ट्रवादियों की धमकी के बाद एक तरह से जुर्माना अदा कर रिलीज होने की सुरक्षा हासिल हो सकी |
होता यह है जैसे ही कोई विचार या प्रत्यय किसी भी तरह की सत्ता से वैधता प्राप्त कर लेता है तो स्वयम को एकमेव सत्य घोषित कर मतान्ध हो जाता है | उस मत के आलोक में जो सत्य दिखाई देता है उतना ही उसे स्वीकार होता है शेष उसकी दृष्टि में राष्ट्र और संस्कृति के विरोध में होता है | यहाँ वस्तुनिष्ठता दरकिनार हो जाती है और आत्मपरकता तथा व्यक्ति गत राग द्वेष प्रमुख हो जाते हैं | ज़रा ‘शोले’ के विरोध को याद करें जब एक राजनैतिक दल ने महाराष्ट्र के भीतर ए के हंगल से जुड़े दृश्यों के हटाकर फिल्म दिखाये जाने का फतवा दिया था | कारण कि ए के हंगल का धुर साम्प्रदायिकता विरोधी रुख उनके लिए आपाच्य हो गया था |
सत्ता और यथास्थिति से साहित्य-सिनेमा-कला के यह टकराव सनातन है जिसकी अपने आदर्श राज्य में भी कल्पना कर प्लेटो ने आदर्श राज्य से कवियों को बहिष्कृत करने की बात कही थी | मिथक में भी भरत मुनि भी अपनी मण्डली और नाट्य शास्त्र के साथ देवाताओ द्वारा स्वर्ग से बहिष्कृत किये गए थे तो आधुनिक काल में भी सत्ता ने १९ वी सदी में ‘नील दर्पण’ ‘कीचक वध’ से शुरू कर २० वी और २१ वी सदी में ‘हल्ला बोल’ ‘बहादुर कलारिन’ ‘और अंत में प्रार्थना’ तक यह सिलसिला अटूट रखा | रंग कर्म को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेजो के जमाने में लाया गया ड्रामेटिक परफार्मिंग एक्ट आज भी यथावत है तो सिनेमा को सेंसरसिप की नकेल डालकर नाथा हुआ है |श्याम बेनेगल ने इसी से नाखुश होकर कभी कहा था कि सेंसर बोर्ड का काम फिल्म को सर्टिफिकेट देना है सुझाव देना नहीं |
हाल ही में जब 'उड़ता पंजाब ' को लेकर भी सेंसर बोर्ड सियासी साजिश का शिकार होता और करता दिखा तब सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा |इन सबको देखते हुए पीटर स्टीवर्ट बरबस याद आते हैं जो कहते थे कि सेंसर शिप समाज की आत्मविश्वास हीनता को दर्शाता है |
कला-फिल्म और साहित्य के प्रति बढ़ती इसी चरम असहिष्णुता का ही परिणाम रहा कि जिस एम .एफ. हुसैन भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया वे ही चरमपंथियों और कोर्ट की टिप्पणी के डर से हिन्दुस्तान बाहर भागे-भागे फिरते रहे और मौत पर उन्हें ख़ाके वतन भी नसीब ना हुई | यह विडम्बना तब और गहरी हो जाती है जब अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए यह देश दलाई लामा और तस्लीमा नसरीन को संरक्षण प्रदान करता है |तसलीमा नसरीन के ही हवाले से उनका कहा मौजू है | वे कहती हैं कि जिनके धर्म औरते के प्रति दमनकारी होते हैं , वे लोकतंत्र , मानवाधिकार , अभिव्यक्ति की आजादी के विरोधी हैं |
कला-फिल्म और साहित्य के प्रति बढ़ती इसी चरम असहिष्णुता का ही परिणाम रहा कि जिस एम .एफ. हुसैन भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया वे ही चरमपंथियों और कोर्ट की टिप्पणी के डर से हिन्दुस्तान बाहर भागे-भागे फिरते रहे और मौत पर उन्हें ख़ाके वतन भी नसीब ना हुई | यह विडम्बना तब और गहरी हो जाती है जब अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए यह देश दलाई लामा और तस्लीमा नसरीन को संरक्षण प्रदान करता है |इन सबके बीच कभी-कभी यह अहसास भी होता है कि हम अंग्रेजो से तो आज़ाद हो गये लेकिन अपने ही देश के गुंडों से आज़ाद होना आज भी बाकी है |
जो भी हो किसी भी दौर में सर्वसत्तावाद स्वरूप और उद्देश्य चाहे जो हो कला-साहित्य-सिनेमा प्रतिपक्ष की ही अपनी शाश्वत भूमिका में रहकर सार्थकता प्राप्त करता रहेगा और कीमत चुकाता रहेगा | हर लेखक –कलाकार –संस्कृतिकर्मी अपने आप में पहले एक एक्टविस्ट भी होता है | जिसे १९६८ फ्रांस के विद्रोही छात्रों के दिए नारे को याद रखना जरूरी है कि जो चुपचाप खड़े रहते हैं और इंतज़ार करते है वे भी मारे जाते हैं |
और जैसा रघुवीर सहाय भी अपनी कविता में कहते हैं –“कुछ तो होगा, कुछ तो होगा, अगर मैं बोलूंगा, न टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता का, मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा।“
||हनुमंत किशोर ||

ये कोठेवालियां: अमृतलाल नागर

ये कोठेवालियां: अमृतलाल नागर
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“मेरे या किसी के घर के भी आसपास , दो-चार-दस दीवारों के हेर फेर में ना जाने ऐसी कितनी कहानियां बिखरी हुई हैं |
उन सबका निचोड़ क्या हैं ?
ये स्त्रियाँ क्या अपनी कामेच्छा से वश में होकर जाती हैं ?
वे जायाजीवी पति कैसे हैं ? किन परिस्थितियों में वे अपनी पत्नी की यह स्थिति स्वीकार करते होगे ?...
औरत पुरुष की तरह आज़ाद होकर अपनी कामेच्छा से सत्तर खसम करती फिरे तो और बात है , पर पेट के लिए औरत बिके , कोड़े मार मारकर साधी जाये , नफ्सपरस्त मर्दों के बाज़ार में किराये पर उठने वाली जिंस बने तो ..क्या कहूँ ,
तुफ़ है मर्द तेरी मर्दानगी पर , तेरी ऊँची सभ्यता पर |”
नियति के हाथों ऐसी ही अमानवीय स्थिति में धकेली जाकर मर्द की नफ्स का शिकार बनी ऐसी ही कोठेवाली औरतो का उन्ही की जुबानी ब्यान है “ये कोठेवालियां” |
देर से सही लेकिन खुश किस्मती से इस हफ्ते “ये कोठेवालियां” पढने को नसीब हुई |
“ये कोठेवालियां“ अमृत लाल नागर के लेखन का विषय और शैली दोनों ही स्तरों पर बोल्ड प्रयोग कहा जा सकता है |
जहाँ पहली बार वेश्या को लेकर हिंदी में एक साहित्यिक साहस किया गया अन्यथा ये विषय संस्कृत बांग्ला और उर्दू में तो कुलीन बन चुका था लेकिन हिंदी में ‘मस्त राम’ और ‘गर्म पकौड़ी’ की मेहरबानी से बदजात ही बना रहा |
अमृत लाल नागर उस लखनऊ से ही ताल्लुक रखते थे जो नवाबी चलन के साथ डेरेवालियों , तवायफो और रंडियों के लिए भी जाना जाता रहा था |
सबसे आदिम कहा जाने वाला यह पेशा इस देश में कभी कितनी इज्जत के लिए जाना जाता था यह संस्कृत साहित्य में सालवती , वसन्त सेना ,अम्बपाली की प्रतिष्ठा से जाना जा सकता है |
लेकिन समय के साथ समाज में उच्च आसन पर प्रतिष्ठित ‘वेश्या’ अपनी आसंदी से नीचे सरकती हुए समाज बहिष्कृत होकर एक गाली में बदल गयी |
अमृत लाल नागर की यह किताब उन्ही कोठेवालियों का समाजशास्त्रीय इतिवृत्तात्मक लेखा-जोखा है |
अमृत लाल नागर की लेखकीय चेतना मूलतः कथात्मक है लेकिन “ये कोठेवालियां” में उनकी कथात्मक कुशलता को लकवा सा मार गया झी और वे आत्मकथात्मक से शुरू होकर संस्मरणात्मक होते हुए साक्षात्कारात्मक होते हुए ग्रन्थ समीक्षात्मक हो जाते हैं | शैली की यह बहुलता मानो उनके विषय को साधने का साधन है जो अंत तक सधते नहीं जान पड़ता |
हालाकि कथात्मक कुशलता के साथ वेश्या को ही प्रेम त्रिकोण में रखकर वे तमिल महाकाव्य पर आधारित अपना लोकप्रिय उपन्यास ‘सुहाग के नुपुर’ भी लिख चुके थे |जिसमें एक नहीं कई अमर संवाद हैं जो मुझे आज भी जुबानी याद हैं | यथा –
“वेश्या पर अधिकार प्राप्त करने की इच्छा ही मृग मारिचिका है |”
“ कामदेव के धनुष का पद केवल कुलीन वेश्याओं को मिलना चाहिये”
और सबसे सुपर हिट यह –
“नारी का सौन्दर्य तभी तक आकर्षण रहता है जब तक उस पर किसी पुरुष का अधिकार नहीं होता |”
सुहाग के नुपुर से भिन्न ये कोठेवालियां ऐसे किसी स्मरणीय सम्वाद से वंचित है | अलबत्ता लूलू और बद्रेमुनीर जैसे लोग याद रह जाते हैं |
लूलू कितना ,मासूम और निरुपाय है यह मानो उसके नाम से ही ध्वनित है |
लूलू |
लूलू का सच उस बच्चे का सच है जिसका परिवार भूख के आगे हारकर जीने की राह में वेश्यावृति करने को मजबूर हो जाता है | जिसका बाप ही अपनी बीबी के लिए ग्राहक पकड़कर घर लाता है | और ग्राहक के आने पर लूलू पड़ोसी के घर की ओर धकेल दिया जाता है | जहाँ ग्राहक के के निपटने तक लेखक और उसका मित्र लूलू का ख्याल रखते हैं | ग्राहक के जाते ही माँ बाहर से लूलू को आवाज़ देकर बुला ले जाती है |
“ यह सब होते हुए भी हम दो भद्र जन आर्थिक कारणों से एक भद्र महिला को भद्र कुल के पुरुष पति के आदेश से वेश्या बनते देख कर मन ही मन गूंगे बावले हो गये थे | आस्था के जिस शैल-शिखर पर आमतौर पर भद्र कुलीन समाज के पाँव टिके रहते हैं मेरे लिए वह बालू का ढूह हो गया |”
लूलू के पड़ोस से जब लेखक किरायेदारी छोड़कर अन्यत्र जाने लगता है तब का बयान इस तरह से है –
“लूलू हमारे पास गया | विदा होने से पहले उसे देने के लिए मै टाफियां लाया था |
उसे दीं सिर पर हाथ फेरा |
लूलू की माँ यथावत खड़ी रही |
जब चलने लगे तो उसकी आँखों में सहसा आँसू उमड़ आये –‘अबी से लूलू को कौन देखेगा?’ कहा और सूनी आँखों से कमरे के बाहर देखने लगी |...
‘अबी से लूलू को कौन देखेगा ?
इस वाक्य में बहुत बड़ा प्रश्न तड़प रहा था
हम कायर की तरह उसका उत्तर दिए बिना ही चले आये |”
बद्रेमुनीर की दास्तान भयावह रूप से कारुणिक दास्तान है |
एक औरत की बेबसी और उस पर नियति और समाज का अत्याचार पाठक के ज़िगर को निचोड़ कर रख देता है |
बद्रेमुनीर वेश्याकुल में नहीं जन्मी थी लेकिन रफीक नाम के गुंडे दलाल ने उसे उसके माँ-बाप को सवा सौ रूपये देकर उससे निकाह किया था और फिर लखनऊ लाकर किसी अनवरी बाई के कोठे पर रख दिया | जहां लडकियां धंधे में धकेलने के लिए गरम सलाखो से दागी जाती थीं | बद्रेमुनीर किस्मत से जब तक सेवाटहल करने के काबिल रही बची रही लेकिन चेचक निकलते ही बदसूरत क्या हुई रफीक का दिल फिर गया और उसे उस चकलेघर से मारपीट कर निकाल दिया गया तब बद्रेमुनीर ने ऐसे चकलेघर में पनाह पायी जहां गत यौवनायें नरक से बदतर नरक में रहती थीं |
इस नरक में लेखक जब उसकी सिफलिस की दर्दनाक बीमारी में बद्रेमुनीर के बुलाने पर उससे मिलने जाता है |
“ एक ही दिन में दो व्यक्तियों से पाया यह रोग तेज़ी से बढ़ा कि चार दिन में सारे बदन में दाने भर गये |
कमर से लेकर नाभि के ऊपर तक तो पकी फुंसियाँ और उनके घावों के छत्ते के छत्ते दिखलाई देते थे |
बद्रेमुनीर अपने रोग में जो कष्ट पा रही थी वह तो था ही |
उधार के तानों , गालियों और निकाल देने की धमकियों से उसे घनघोर कष्ट हो रहा था |”
बद्रेमुनीर ने मिलने पर जो कहा वह लेखक को चुभकर रह जाता है –
“मै कहती थी ख़ुदा नहीं है –ख़ुदा है –ख़ुदा है – ख़ुदा है |”
चार दिन बाद उसकी खबर लेने जब लेखक दुबारा उस नरक में जाता है तो बताया जाता है कि बद्रेमुनीर कुछ घंटो पहले मर गयी |
“अपने टाट टप्पर के रंग महल में जमीन पर बद्रेमुनीर की लाश ढकी रखी थी |
चारपाई वहां से हटाई जा चुकी थी |
कफ़न हटाकर दढ़ियल ने मुंह दिखलाया |
मेरे मुँह से बेतहाशा चीख निकल गई |चार रोज पहले ही देखा हुआ चेहरा भी अब पहचाना ना जान पड़ता था |
आधा दाहिना गाल , नीचे का आधा होंठ , ऊपर का पूरा होंठ , नाक के नकसोरों तक तीन दिन में ही सड़कर गायब हो चुका था |
अंदर के भूत जैसे दांत और भयानक मुखाकृति देखकर मुझे चक्कर आने लगा , पाँव लडखडाने लगे |...मैंने अपने जीवन में इससे भयंकर और कुछ नहीं देखा |”
कोठेवालियों के जीवन के ऐसे ही मर्मान्तक सच को अमृतलाल नागर ने “ये कोठेवालियां” में लिपिबद्ध किया है |
उनके सुधार और इस बुराई के समाधान पर चर्चा भी की है |
सन्दर्भ और प्रसंग सहित उनके विभिन्न रूपों यथा डेरेदार , तवायफ , गणिका , पतुरिया , कसबियां का फर्क बताया है | गायन और नृत्य में उनके अवदान का उल्लेख भी किया है |
कोठेवालियों को मानवी के रूप में स्थापित करने और समाज में उनके प्रति पूर्वाग्रह को तोड़ने में वे कामयाब रहें हैं |
लेकिन वे एक कथाकार के रूप में स्वयं को अनुपस्थित रखते हैं और वृतचित्रकार के रूप में सम्वेदना का वो सृजन करने से चूक जाते हैं जिसके लिए वे जाने जाते रहे हैं ||

||हनुमंत किशोर ||

14सितम्बर के बहाने हिंदी का हाल और सवाल

14सितम्बर के बहाने हिंदी का हाल और सवाल
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१४ सितम्बर को राजभाषा दिवस के सरकारी पर्व पर एक कर्म काण्ड की तरह हिंदी को याद किया  जायेगा और राजभाषा बनाते समय जो असली उद्देश्य था उसे भुला दिया  जाएगा ताकि  अंग्रेजी के  नाम  पर १५ बरस का  जो पट्टा पहली बार लिखा गया था वो आगे के लिए जारी  रहा  आये | राजभाषा अधिनियम के समय जो बहस हुई थी उसके केंद्र में  हिंदी को देश की अस्मिता और आजादी के  आन्दोलन से उपजे राष्ट्रीय मूल्यों की संरक्षिका बतौर देखा गया  था | हिंदी ने  आज़ादी के  आन्दोलन में विदेशी हुकूमत ही  नही विदेशी संस्कृति की प्रतिरोधी शक्ति के रूप में वृहत्तर भूमिका अदा की थी | उसने एक साथ प्रयोजनमूलक ,ज्ञान मूलक और संस्कृति मूलक दिशाओं को  साधा था | वह आक्रान्ता संस्कृति के खिलाफ दीवार बनकर खड़ी हुई | अंग्रेजो की जो संस्कृति और मूल्य भारतीय जीवन पद्धति को बदल रहे थे ,हिंदी उसके प्रतिरोध को रच रही थी | प्रसाद और निराला का साहित्य पुनर्जागरण और विस्मृत गौरव को सामने ला रहा था | उस दौर में हिंदी खादी और  चरखे के  साथ बड़ी हुई थी | भारतीय आज़ादी के आन्दोलन में  हिंदी ने  यह सिद्ध कर दिखाया कि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति  का साधन नहीं बल्कि अस्मिता भी है | समाज की स्मृति और स्वप्न की वाहिका भी है | तब हिंदी ही  थी जो  देश को  जोडती थी जिस शक्ति को पहचानकर  गांधी ने १९१८में इंदौर के हिंदी सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए ज़ोरदार शब्दों में कहा था “हिंदी ही भारत को एकता के सूत्र में पिरोने  का  काम कर सकती है |” १९४७ में देश को आज़ादी मिलने पर जब बीबीसी ने  उनका इंटरव्यू करना   चाहा तो  उन्ही गांधी ने कहा “ दुनिया को यह  बता दो कि गांधी को अंग्रेजी नहीं आती “ यह गांधी का हिंदी के प्रति पूर्ण समर्पण था | वे दक्षिण के भाषा भेद को भी समझ रहे  थे और उसे लक्ष्य कर उन्होंने दक्षिण में देवदास गांधी को हिंदी के  प्रचार के  लिए भेजा | गांधी ने लिपि की समस्या को भी  तब  पहचान  लिया और सुझाव  दिया था कि दीगर भाषाये भी देवनागरी में  लिखी जायें | गांधी के  साथ उस दौर में  प्रेमचंद जैसे साहित्यकार भी घूम-घूम कर हिंदी का प्रचार  कर  रहे थे | दक्षिण में हिंदी सम्मेलन करने की प्रेमचन्द की  लालसा  का पता  उनके पत्रों से  भी  मिलता है | इसी अभियान  का असर  था  कि १९३५ में सी राजगोपालाचारी ने  हिंदी शिक्षा को अनिवार्य कर दिया  था और इसके भी पहले १९०६ में सुब्रमन्यम भारती ने हिंदी सीखने की अपील कर चुके थे | गांधी या राजगोपालचारी जैसे थोड़े ही गैर हिंदी से आये लोग नहीं थे जो हिंदी के प्रति ये विचार रखते थे मराठी भाषी तिलक भी खुलकर हिंदी के पैरोकार थे |ज़रा और पीछे देखे तो १८७२ में बांग्ला भाषी केशव चन्द्र सेन में गुजराती मातृ भाषी दयानन्द सरस्वती को सलाह  देते हुए  कहा था कि संस्कृत छोड़कर हिंदी में  बोलो और दयानन्द सरस्वती इस सलाह से  इतने प्रभावित हुए  कि आर्य समाज  का  मूल ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ उन्होंने  हिंदी  में  रचा | उन्ही केशव चन्द्र सेन के कलकत्ते से हिंदी का पहला अखबार ‘उद्दंत मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ और कलकत्ते के ही फोर्ट विलियम कालेज में जॉन गिलक्रिस्ट की प्रेरणा से १८२० में  लल्लू लाल ने हिंदी की पहली गद्य पुस्तक ‘प्रेम सागर’ रची | हाँ इसमें अंग्रेज की नीयत हिंदी  के प्रचार की  नहीं बल्कि प्रशासन करने के  लिए हिंदी मानस से सम्वाद करने  हेतु उसकी भाषा सीखनी थी | हालांकि यह बहस का विषय है कि राजभाषा बनने के बाद हिंदी इन दीगर भाषाओं का कितना ऋण उतार सकी और उसे इस स्थिति में लाने के लिए ज़िम्मेदार कौन थे?
त्रिभाषा फार्मूले को ही लीजिये मै स्वयम को इसका शिकार मानता हूँ | त्रिभाषा फार्मूले के तहत उत्तर भारत के राज्यों में प्रचलन बाह्य संस्कृत को बंगाली पंजाबी तमिल मराठी जैसी जीवित भाषाओं पर तरजीह दी  गयी और गैर हिंदी का ऋण उतारने था गैर हिंदी का विश्वास जीतने का मौका खो  दिया वर्ना आज हिंदी के  प्रभुत्व के प्रति जो नकारात्मक प्रतिक्रिया दक्षिण या पश्चिम  में  दिखाई देती  है उसका  परिदृश्य शायद  और  होता | राजभाषाई हिंदी को लेकर हुई इस अदूर्न्देशी ने सिर्फ दक्षिण भारत की भाषाओं को आहत नहीं किया हिंदी पट्टी की बोलियों को भी जख्म दिये जहाँ वे मानक हिंदी की तानाशाही में बिसार दी गईं और बहिष्कृत कर दी गईं | जिस पीड़ा में  कभी  धूमिल ने लिखा था “तुम्हारा यह तमिल दुख / मेरी भोजपुरी पीड़ा का भाई  है / भाषा उस तिकड़मी दरिन्दे का कौर है |” इसी भाषाई असम्वेदनशीलता के कारण देश को एक  नहीं अनेक  बार भाषाई दंगे झेलने पड़े | जिनके समाधान में ही धूमिल ने  भारत माता की कल्पना उस रूप में  की होगी जहाँ वो  १४ मुखों से बोलती हुई आ रही है |
जहां  तक  राज भाषा बनने के  बाद की स्थिति  का प्रश्न है उसका भी कोई खास सन्तोषजनक उत्तर  नहीं मिलता | उसकी  वजह हिंदी  के नीति नियंताओ की अदूरदर्शिता या एक कोण से उनका षड्यंत्र ही  कहा  जाएगा | मिसाल के तौर पर अदालतों में काम काज को ही लें | उपरी अदालतों में  तो  आज  भी अंग्रेजी  का प्रभुत्व है लेकिन हिंदी पट्टी में निचली अदालतों में कामकाज की भाषा हिंदी है | किसी  जमाने में  ये फारसी और उर्दू हुआ करती थी तब  यह  कहकर  हिंदी  की  पैरवी की गयी  थी कि हिंदी जनता की  भाषा है और निचली अदालत में  काम जनता  की  भाषा  में  होना  चाहिये | इस विचार का  समर्थन करते  हुए  निचली  अदालतों के  लिए हिंदी को  उर्दू की  जगह  दे  दी  गई |
लेकिन जिस हिंदी  ने  वहां  स्थान लिया  वो जनता  के  लिए  उतनी  ही अपरिचित रही  आई  जितनी कोई पराई  भाषा | आज  भी  गवाह  यह  सुनकर बगले  झाँकने  लगता  है जब उसे बताया  जाता  है आप साक्ष्य के  लिए  आहूत हैं | वकील  जैसे सीधे साधे प्रचलित शब्द के  स्थान  पर अधिवक्ता कहते ही सामान्य  जन की  हालात  देखने  लायक  होती है |
एक अदालत  ही  नहीं  जहाँ-जहाँ  मानक  हिंदी को  लागू  किया  गया वहां यही हालात हैं |
आये दिन  सडक पर बोर्ड पर टंगा  मिलता है ...कार्य  प्रगति पर  है जो वर्क इन प्रोग्रेस का अनुवाद है | इसकी जगह काम  चालू है लिखना  शायद ज्यादा आसानी भरा हो | ‘ठंडा पानी’ को पोतकर ‘शीतल जल’ , अन्दर और बाहर के  लिए आगम और निर्गम , ‘पैसेंजर’ के स्थान पर  ‘यात्रीगाड़ी’ का प्रयोग किसके पक्ष में है यह  सवाल बेकार नहीं है | मानक  हिंदी  के  नाम पर अंग्रेजी  का फूहड़ अनुवाद कर या तत्सम शब्दावली  गढ़ कर जिस तरह से  भाषा लगातार कृत्रिम बनाते  हुए जनता से दूर  किया  गया वो  सिर्फ अदूरदर्शिता  थी या षड्यंत्र  यह  तय करने  का  काम आपका  है | हाँ इसे तय करते समय राम मनोहर लोहिया की एक  बात  ज़रूर याद रखियेगा जो वो उन्होंने  देश में द्विज की परिभाषा को लेकर  कही थी लोहिया कहते थे सम्पत्ति , जाति और अंग्रेजी  इन तीन में  दो जिसके पास है वो द्विज है | तो जब राजभाषा अधिनियम ने अंग्रेजी की तानाशाही एक हद तक समाप्त करनी चाही तो देश में सत्ता के शीर्ष पर आसन जमाये द्विजो ने हिंदी को ही  इस तरह कृत्रिम दुरूह बना दिया कि वो आम आदमी की पहुँच से उतनी  ही  दूर रही आई जितनी अंग्रेजी | आम बोल चाल के , रूपांतरित होकर हिंदी के हो चुके विदेशी शब्दों को खींच-खीच कर बाहर निकाला गया और संस्कृत निष्ठ शब्द ठूंस ठांस दिये  गये | तत्सम शब्दों से उसका  श्रंगार नहीं किया गया बल्कि उसे जंजीर में जकड दिया  गया कि उसकी सहज चाल कुंठित हो  गयी और वो वास्तविक सौन्दर्य खोकर किताबी बनकर रह  गयी | और यह सब शुद्धता और मानक के पवित्र झंडे तले  किया गया | भाषा का शुद्धता वादी आग्रह उपरी तौर पर भाषा का हितैषी भले जान पड़े होता वह भाषा का शत्रु ही है | भाषा किसी अनुवाद की प्रयोगशाला या विश्वविद्यालय के सभागार में नहीं बनती वह तो समाज और जीवन से ही अपनी उर्वरता  लेती  है | वही बनती और  बिगडती है | जिसे अशुद्धता या मिलावट कहा  जाता  है वह उसका चरित्र है उसके विकास  की  शर्त है | भाषा का चरित्र बड़ा विनिमय शील होता है | वो दूसरी भाषा से लेते चलती है और दूसरी भाषा को देते चलती है | जो भाषा इस लेनदेन में  कंजूसी करती है उसका क्षरण होने लगता है और वह इतिहास में दर्ज हो जाती है| इस तरह से भाषा एक सामाजिक उत्पाद है और  वह कभी अंतिम नहीं होती | परिवर्तन शील होती है | हिंदी इस  मामले में बड़ी सम्पन्न  भाषा रही है उसका हाजमा ऐसा रहा  कि हर दिशा  से उसने  ग्रहण किया और पचाकर रक्त मज्जा में  बदल लिया |इसलिए जो अपने राजनैतिक सांस्कृतिक एजेंडे के  तहत भाषा की के शुद्धिकरण की बात  करते हैं  वे उसका  वही हश्र करना चाहते है जो व्याकरण में  जकड़ी संस्कृत का हुआ | इसकी तासीर का दीदार अमीर खुसरो की जिहाले मिसकी मुकुन तगाफुल नुमा शायरी  में  होता  है जहाँ फ़ारसी और हिन्दवी गलबहियाँ डालकर आगे बढ़ते है | आज हिंदी में  अरबी फ़ारसी पुर्तगाली अंग्रेजी के शब्द इस कदर जज्ब हो चुके है कि उनकी पहचान  मुश्किल हैं |
 यहाँ यह साफ़ कर देना  जरूरी है यह निर्विवाद है कि ज्ञान के  अनुशासन की भाषा आम भाषा से भिन्न होगी | यहाँ उस हिंदी की बात  है जो  कामकाज की हिंदी  के  नाम पर थोपी  गयी है | यह वो  हिंदी बेशक  नहीं है जिसके लिए गांधी के नेतृत्व में संघर्ष किया गया था | जिसकी मानवो के महा सागर में एक सूत्र की तरह कल्पना की गयी थी | गांधी ने हिन्दुस्तानी भाषा की बात की थी | बार-बार वे हिन्दुस्तानी से अपनी मुराद भी जाहिर करते हैं , वो भाषा जिसे देश का  मजदूर किसान बोलता है | यही वो हिन्दुस्तानी है जिसमे प्रेमचन्द लिख रहे थे | जिसमे उर्दू हिंदी का भेद बड़ा कम  था जो अमीर खुसरो, कबीर, वली दकनी , नज़ीर अकबराबादी की जबान थी | यह ठेठ हिंदी थी कामगार हिंदी | इसके ठेठपने से ही आभिजात्य को चिढ़ थी | नतीजे ने ऐसी हिंदी गढ़ ली गयी जो खास के द्वारा ख़ास के लिए  थी | दुर्भाग्य से जो गफलत सरकार ने  की वही साहित्यकारों ने  भी और उस हिंदी को साहित्य में प्रतिष्ठित किया जो कही बोली  ही  नहीं  जाती थी | यहाँ प्रेमचन्द की  परम्परा बिसार दी  गई जो एक साथ हिंदी उर्दू को साथ लेकर चलते हुए आम भाषा को साहित्य का साधन बना  रहे  थे | यहाँ साहित्य भी अपने सरोकारों में जहाँ असफल रहा वहीं हिंदी उर्दू के झगड़े में सबसे बड़ा नुकसान  निर्दोष भाषा को उठाना  पडा |
इस पूरी बहस में एक सवाल और जुड़ता है कि बाज़ार  ने  कितना और किस तरह  से  हिंदी  को  बदला है ? भूमण्डलीकरण के  दौर में  भाषा का संकट किस  तरह से संस्कृति का संकट बन गया है |
बाज़ार की सैद्धान्त्की जहाँ उपभोक्ता को केंद्र में रखती है तो भूमंडलीकरण की सैद्धान्त्की एकरूपता को केंद्र में  रखती है | वो बहुलता को विविधता को  अंतत: खत्म करना चाहेगी ही क्योंकि एक रूपता यानी एक भाषा एक बाज़ार एक मुद्रा उसके  लिए मददगार है | साथ है बहुलता और स्थानीयता से जन्मे  प्रतिरोध का संकट भी इस एकरूपता के आगमन के साथ समाप्त हो जाता है | इसलिए बाज़ार और भूमण्डलीकरण उस सीमा तक हिंदी को बदलते हैं जिस सीमा तक उसकी अपनी विविधता खत्म होकर वह एकरूपता का साधन नहीं बन जाती | आश्चर्य नहीं कि बाज़ार के  लिए मुफीद ऐसी हिंदी तो इस दौर में  फली फूली किन्तु स्थानीय भाषायें,बोलियाँ  मिटती चली गयीं | बदलाव,टूट-फूट भाषा की अपनी अन्दुरुनी प्रक्रिया है किन्तु बाज़ार इसमें अपने नफे के लिए जबरिया दखल करता है | मीडिया की मंडी में हिंदी को देखकर इसे समझा जा सकता है | अखबारो में  हिंदी को लेकर जो जबरदस्ती की गयी वो भी एक नमूना जिस पर प्रभू जोशी ने गहराई तक रौशनी डाली है | अखबारों ने सबसे पहले यलो पेज या युवाओं महिलाओं के परिशिष्टों में हिंदी के वाक्य में  एक दो अंग्रेजी के शब्दों को ठूंसकर जो शुरुआत की थी वो बाद में अंग्रेजी के एक  वाक्य तक होते होते अब देवनागरी की जगह रोमन लिपि तक जा पहुंची है | यह  अंग्रेजी द्वारा धीरे धीरे हिंदी को विस्थापित करने की सूक्ष्म साजिश है | जिसे हम विज्ञापन में भी देख सकते है | ये दिल मांगे मोर ..यही है राईट च्वाइस बेबी की शक्ल में जो हिंदी बाज़ार में  खड़ी है वो खोखली होती  जा रही है | उसके प्रतिरोध  की शक्ति क्षीण होती जा रही है | एक ध्रुवीय विश्व के निर्माण से पहले एक रूपीय संस्कृति का निर्माण जरूरी है | बाज़ार जिसे करने में सलंग्न है | माल को बेचने के  लिए वो स्थानीय भाषा को  माध्यम बनाता है लेकिन उसकी मौलिकता में तोड़ फोड़ कर | इस तरह वो अपनी  भाषा को धीरे-धीरे स्थापित भी करता है | जो वो बहुत पहले अफ्रीका  में  कर  चुका है वही एशिया  में  करने  के  मिशन पर है यानी स्थानिकता को खत्म कर समूची  दुनिया को  यूरोप की जूठन बना  देना | दरअसल यह पूँजी का ही चरित्र ही है जहाँ पूँजी की संस्कृति संस्कृति  पर आक्रमण करते  दिख रही है | भाषा चूंकि प्रतिरोध रचती है इसलिए  ऐसी भाषा का निर्माण उसकी  योजना है जो सिर्फ प्रयोजन मूलक हो संस्कृति मूलक  नहीं |इसलिये भाषा से सामूहिक स्मृति को पोछकर साफ़ किया  जा रहा है | मिथ को इतिहास और इतिहास को मिथ बनाया  जा रहा है | अपने हिसाब से अनुकूलन किया जा रहा है | तो यह बाज़ार में खड़ी हिंदी की माया पर मुग्ध होने का नहीं उसके स्खलन पर क्षुब्ध होने  का सवाल है | अब सवाल  उठाये  जाने  चाहिये क्योंकि जैसा  प्रेमचन्द ने  कहा  है “अब और  सोना मृत्यु का लक्षण है |”

देवस्थान में औरत वाया सबरीमाला /शनि सिग्नापुर

देवस्थान में औरत वाया सबरीमाला /शनि सिग्नापुर
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लिखने कुछ और बैठा था लेकिन लिखने कुछ और जा रहा हूँ |
लिखना शुरू किया ही था कि पड़ोसन ने दरवाजे पर दस्तक देकर छोटी बिटिया के बारे में पूछा वे उसे कन्या भोज के लिए न्यौता देने आयी थीं |
मेरी बड़ी बिटिया को इन दिनों कोई कन्या भोज के लिए नहीं बुलाता | शुरू शुरू में उसे इसे लेकर बड़ा दुःख भी हुआ लेकिन अब इसमें उसे सहज नियति मानकर स्वीकार कर लिया है | लेकिन पहली बार जब वो ऐसी ही नव रात्रि में एक कन्या भोज से लौटकर आई थी उसकी आँखे भरी थी और होंठ रह-रहकर फड़क रहे थे | पूछने पर पता चला कि आंटी ने पहले तो उसे सबके साथ बैठाया फिर उसे उठकार अलग से ‘महीने के उन दिनों’ के बारे में पूछा | फिर उसे छोटी बहन की पंगत से अलग बैठा दिया | बड़ी बिटिया को गुस्सा इस बात पर था कि इसमें उसकी गलती क्या है और दुख इस बात पर कि अब उसे कन्या नहीं समझा जाता |जबकि वो तो अभी बच्ची ही है ..सिर्फ तनिक बड़ी |
उस दिन मुझे भी लगा कि ‘कन्या-भोज’ के पीछे समाज की सोच में कहीं कुछ टेढ़ापन पन है | ऐसी धारणाएं स्त्री और स्त्री के बीच विभेद के अलावा स्त्री के स्त्री होने को भी छुआछूत का विषय बना देती हैं | नवरात्रि या नव दुर्गा शक्ति की उपासना का धार्मिक पर्व है और दूसरे धार्मिक पर्वो की तरह इसके भी अपने सांस्कृतिक मूल्य हैं और यह एक तरह से वर्चस्व की सत्ता को बनाये रखने के लिए सामाजिक सांस्कृतिक अनुकूलन का साधन बन जाता है | ‘मार्कन्डेय-पुराण’ जिसकी देवी स्तुति इस पर्व का आधार है देवी या शक्ति को प्रकृति के विविध रूपों में न्यस्त करती है और उसे प्रणाम करती है | उसकी ‘जगत-जननी’ ‘जगदम्बा’ कहकर स्तुति करती है | यहाँ किसी तरह का कोई विभेद नहीं मिलता | लेकिन इस पर्व से जुड़े लोकाचार में स्थिति बदल जाती है | जब कोई कन्या एक अपरिहार्य जैविक-प्राकृतिक प्रक्रिया के चलते रजस्वला होते ही यानी सम्पूर्ण स्त्री बनने पर और जननी बनने की अहर्ता अर्जित करने पर जहाँ श्रेष्ठतर होनी चाहिए वहां वह इन लोकाचारो में हीनतर बना दी जाती है |
इसके मूल में उन पितृसत्तात्मक मूल्यों का खेल दिखाई देता है जो धर्म का अपने पक्ष में निर्वचन और नियमन करते आये हैं | अपने वजूद के विस्तार और संरक्षण के लिए या विकास के किसी सोपान पर सामन्जस्य बैठाने के लिए वे मातृसत्तात्मक भले हो जायें, अंत में अपने मूल चरित्र का प्रकटन करते ही हैं | शक्ति की उपासना पर्व में ‘कन्या-भोज’ में कन्या और स्त्री का विभेद उसी का परिणाम है |
लोक जीवन में माँ पूज्य जहाँ है और कई अवसरों पर जिसे परमेश्वर से ऊपर भी कहा जाता है वहां स्त्री को माँ बनने की योग्यता हासिल होते ही इन अवसरों के लिए अयोग्य निरुपित कर देना पितृसत्तात्मक मूल्यों द्वारा धर्म और संस्कृति के माध्यम से अपने पक्ष में स्थापना तैयार करने का संकेत देता है | यही स्त्री विरोधी धारणा रजस्वला होने पर स्त्री को ‘अपवित्र’ ‘हीन’ ‘शक्तिच्युत’ घोषित कर देती हैं |
इसकी पराकाष्ठा और सिद्धांतकी तब दिखाई देती है जब देवताओं को जन्म देने वाली स्त्री को ही देवस्थान में प्रवेश करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है | यद्यपि हमारे समाज के बहुस्तरीय और बहु सांस्कृतिक होने से इसका विलोम भी उपस्थित दिखाई देता है जैसे केरल में भगवती मन्दिर में पूरा गाँव जुटकर रजस्वला होने को उत्सव रूप में मनाता है | उस समय के वस्त्र को मंगल वस्त्र मानकर स्पर्श किया जाता है |असम के कामरूप कामाख्या मन्दिर में भगवती की उसी ‘अंग’ की पूजा की मान्यता है | लेकिन ये सभी उदाहरण प्रतिसंस्कृति की क्षीण धारा है, मूल धारा नहीं जो अपने चरित्र में पितृ सत्तात्मक और स्त्री लिंग के प्रति विभेदकारी है | इसे शनि सिंगानापुर, सबरीमाला माला , हाजी अली की दरगाह में स्त्री के प्रवेशके अधिकार को लेकर हुए आन्दोलन के जरिये समझा जा सकता है |
रजो धर्म और अपवित्रता की इस अवधारणा को स्पष्ट करने में मेरे अपने व्यक्तिगत अनुभव मुझे बराबर सता रहे हैं |
बात बचपन से शुरू करता हूँ | तब जब हमारा परिवार पिपरिया में था | मै कोई आठ दस बरस का रहा होउंगा | तब मां महीने के चार-पांच दिन मुझसे दो काम कहने के लिए करती थी पहली भगवान की पूजा और दूसरी पापा के लिए रसोई तैयार करना | वे सब कुछ तैयार करके दे देती थीं मुझे बस उसे चूल्हे पर चढ़ाना होता था | हमारे लिए रसोई वे ही तैयार करती थी | उस वक्त मैंने यह समझने या पूछने की कोशिश नही की कि ऐसा क्या है जो तुम भगवान को नहीं नहीं नहला धुला सकतीं और पापा तुम्हारे हाथ का पकाया क्यों नही खा सकते ? तब परिवार में दादी का युग का था बाद में घर के भीतर जब माँ की पकड़ थोड़ी बहुत मजबूत हुई तब मैंने देखा कि बहन या बहू को महीने के इन विशेष दिनों में रसोई या पूजा घर से दूर रहने की बंदिश नहीं रही | लेकिन आज भी कुलदेवता या धार्मिक पूजा में जब कोई स्त्री कटी-कटी सी दिखती है तो साफ़ समझ में आता है कि वो ‘माह के इन दिनों’ से है |
जब कभी कोई ‘माह के इन दिनों’ के निषेध को ‘माह के इन दिनों’ में स्त्री के स्वास्थ्य और आराम की आवश्यकता से जोड़कर न्याय संगत और तर्क संगत ठहराने की चेष्टा करता है तो उससे यह स्वाभाविक प्रश्न करने का मन करता है कि ‘माह के इन दिनों’ में स्त्री को झाडू-पोछा-कपड़े –बर्तन से क्यों राहत नहीं दी जाती सिर्फ भगवान या रसोई को छूने से रोककर स्त्री को कौन सा आराम दिया जाता है ?
शायद इस बीच ज़माना और जरूरते बहुत कुछ बदल चुकी है और एक जैविक प्रक्रिया को अभिशाप की तरह देखना बदल चुका है लेकिन आज भी कुछ मध्ययुगीन मष्तिष्क इन निषेधों और अपवित्रता की धारणा को सामाजिक स्वीकृति प्रदान करते हैं तब वे पितृसत्तात्मक मूल्यों के वही पैरवीकर्ता होते हैं जो आज भी कुछ देवस्थानो में स्त्री के प्रवेश सम्बन्धी निषेध को देवीय आदेश से जोड़ता हैं | इस दकियानूस मानसिकता के विरुद्ध सभ्य और प्रगतिशील समाज में आवाश्यक आलोचनात्मक विवेक विकसित करने की आवश्यकता है |
त्रेता में स्त्री का उद्धार भले भगवान श्री राम ने किया हो या द्वापर में उसके उद्धार के लिए भले भगवन श्री कृष्ण आगे आये हों ...आज के समय में स्त्री के उद्धार के लिए कोई अवतार अवतरित होता नहीं दिखता | अब यह काम स्त्री-अधिकार की पैरोकार जनवादी प्रगतिशील शक्तियाँ ही करती दिखाई दे रही हैं | तृप्ति देसाई की भू माता ब्रिगेड और नूरजहां साफिया नियाज़ के भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की कोशिशों को इसी रूप में देखा जाना चाहिए | जिनकी कोशिशों को संवैधानिक शक्ति देने का काम देश की न्यायालयों ने करके स्त्री उद्धार के एक ‘अवतार’ की छवि अर्जित की है देवस्थान में लिंग विभेद का मुद्दा सिर्फ धार्मिक मुद्दा नहीं एक सांस्कृतिक मुद्दा होकर मनुष्य जाति की बराबरी का एक वृहत मुद्दा है | केरल में सबरीमाला मंदिर में १० वर्ष से लेकर पचास वर्ष तक की महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध है जिसे स्त्री के रजोधर्म के कारण उसकी अपवित्रता से जोड़ा जाता है | इस निषेध के विरुद्ध यंग लायर्स एसोशिएशन ने सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिल की | इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने मन्दिर का प्रबन्धन कर रहे त्रावनकोर देवाश्र्म बोर्ड से पूछा था कि यदि रजोधर्म स्त्री के अपवित्रता की कसौटी है तो पुरुष की पवित्रता की कसौटी क्या हैं ?
स्त्री के देवस्थान में प्रवेश पर २६ अगस्त को बाम्बे हाई कोर्टने एक बड़ा फैसला हाजी अली दरगाह के मामले में दिया | इस दरगाह में श्राइन बोर्ड द्वारा वर्ष २०११ में स्त्री के प्रवेश को सीमित कर दिया गया था | नूरजहां साफिया नियाज़ के भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन ने जब इस सवाल को उठाकर कानूनी लड़ाई लड़ी तो दरगाह के प्रबन्धन ने स्त्री के प्रवेश को महापाप तक निरुपित किया तब भी प्रवेश के अधिकार की मांग करने वाली बीबी खातून में भी कुछ इसी तरह से सवाल किया था कि क्या सूफी-संत औरत की कोख से नहीं जन्मे ?बाम्बे हाई कोर्ट के फैसले को यद्यपि सुप्रीम कोर्ट में दरगाह बोर्ड में चुनौती दी हुई हैं |
मीडिया कवरेज और भू माता ब्रिगेड के आन्दोलन के कारण इस विषय पर सबसे अधिक चर्चा में शनि सिगानापुर के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मामला रहा | जिसमें ३० मार्च को बाम्बे हाई कोर्ट के फैसले ने देवस्थान में लिंग भेद को करारा झटका दिया | शनि सिगनापुर देश में शनि देव का सबसे प्रमुख मन्दिर है जिसके चबूतरे पर स्त्री का प्रवेश लगभग ४०० साल से निषिद्ध था | जहां पुरुष चबूतरे पर जाकर शनिदेव की प्रतिमा पर तेल चढा सकते थे वहीँ महिलायें केवल दूर से दर्शन कर सकती थीं | तृप्ति देसाई की भू माता ब्रिगेड ने यहाँ महिलाओं के प्रवेश को लेकर एक आन्दोलन चलाया जिसे अंतिम सफलता इस फैसले से मिली | इस फैसले के बाद महिलायें चबूतरे तक पहुंची और शनि की प्रतिमा से जुड़े कर्मकांड उसी तरह से विधिवत पूरे किये जिस तरह से अब तक सिर्फ पुरुष करते आये थे |इस बीच मीडिया में एक शंकराचार्य स्वारुपानन्द का वह विवादित बयान भी चर्चा में आया जिसमे उन्होंने इस घटना के बाद महिलाओं पर बलात्कार के मामले बढ़ेंगे, कुछ ऐसी भी बात कही | इससे जाहिर है धार्मिक सत्ता का एक बड़ा वर्ग धर्म में अपनी इजारेदारी कम होने से हताश हुआ है |लेकिन एक टिप्पणी मुझे नहीं भूलती जो मेरे कार्यालय की साधारण महिला कर्मचारी ने की थी | उसने कहा था कि शनि देव यदि हमारे छूने से अपवित्र हो जाते हैं तो फिर हमारी कुंडली में क्यों बैठे हैं ? मेरे पास उनके सवाल का कोई जवाब नहीं था क्योंकि शनि के बारे में मुझे इतना ही पता था कि वो हमारी पृथ्वी की तरह सूर्य का चक्कर लगाने वाला एक ग्रह है |और चूंकि वहां जीवन नहीं है इसलिए उसमे आगे मेरी कोई दिलचस्पी पैदा नहीं हो सकी |वैसे मुझे लगता है कि आगे के सब कहानियां धंधे और ताकत को बनाये रखने के लिए होशियार लोगों द्वारा गढ़ी गयी हैं | वे मुझे रोचक भले लगें तार्किक नहीं लगतीं |
सबरीमाला , हाजी अली दरगाह, शनि सिगनापुर की लड़ाई प्रतीकात्मक है | वह धर्म की पितृ सत्तात्मकता को चुनौती देती हुई धर्म में स्त्री की बराबरी के सवाल को सामने लाती हैं | उपासना हर व्यक्ति का मानव अधिकार है जिसे हमारे सम्विधान में अनुच्छेद २५ और २६ के अंतर्गत मूल अधिकार के रूप में संरक्षित किया गया है | धार्मिक पूजास्थल में लिंग के आधार पर महिलाओं से भेदभाव उतना ही निंदनीय,मनुष्य विरोधी और असंवैधानिक है जितना धार्मिक स्थल में छुआछूत और जातिगत भेदभाव |
जैसा कहा यह लड़ाई प्रतीकात्मक अधिक है | इसमें जीतेने का अर्थ यह नहीं है कि सब कुछ बदल जाएगा | देवास्थान में स्त्री की बराबरी के साथ उन धार्मिक मिथकों ,प्रत्ययों को समझने की आवश्यकता है जो स्त्री –पुरुष के मध्य विभेद्मूलक अवस्थिति को धार्मिक-सांस्कृतिक वैधता प्रदान करते हैं|
मुझे यह सवाल बड़ा बैचेन करता है कि ईश्वर पुरुष है या स्त्री ?यदि दोनों से परे है तो हमेशा पुरुष के रूप में ही क्यों याद किया जाता है | ईसाइयत में तो वह सीधे-सीधे पिता है | जो परम पिता होकर पिता की ही तरह अपने बच्चों को सही सही-गलत व्यवहार के लिए दंडित-पुरुस्कृत करता है |
क्यों आदम की पसलियों से हव्वा का निर्माण किया गया ?
आज तक सारे मैसेंजर सारे शंकराचार्य सारे पोप पुरुष ही क्यों हुए ?
जाहिर है धर्म का क्षेत्र अब तक पुरुषों का क्षेत्र रहा है |
लेकिन इतिहास सदा एक ही करवट नहीं सोता
वह करवट बदलता भी है |
भूकम्प भी आते हैं,टूट-फूट भी होती है |
शुरुआत हो चुकी है ..
देखिये आगे क्या होता है ...
उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब ईश्वर की बनायी हर शै उसके दरबार में और हर जगह बराबरी पर होगी ..|
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पुनश्च :
हे ईश्वर ,
तूने संसार बनाया
फिर संसार को चलाने के लिए
हमें बनाया
प्रकृति को तूने ऋतू चक्र दिया
और हमे मासिक चक्र ..
अब तू ही इन नादानों को समझा
कि उर्वर होने से
ना धरती अपवित्र होती है
ना हम औरतें ...
अपने देवताओं से कह
कि वे गवाही दें
इस बात की
कि जिस कोख से वे जन्मे हैं
उसकी छूत नहीं लगती ....
हे ईश्वर
अब तू ही समझा इन मूर्खो को
कि
पवित्र पंचमहाभूत से बनी यह काया
सदा ही पवित्र है
अपवित्र तो वो हृदय है
जो सबमे तुझे देख नही सकता .....


||हनुमंत किशोर||

तलाक-तलाक-तलाक : कुछ सवाल

तलाक-तलाक-तलाक : कुछ सवाल
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तीन तलाक का सुप्रीम कोर्ट में अभी मामला चल रहा है लेकिन इस बीच कई उच्च न्यायालयों ने से इसे बार-बार भेदभाव भरा कहकर एक प्रगतिशील हस्तक्षेप ऐसे मामले में किया है जिसे 'पर्सनल' बताकर कुछ कहने से जमात के बाहर के लोगों को रोका जाता रहा है |
दुनिया की सभी सत्ताएं चाहे वे धार्मिक हों या सांस्कृतिक स्त्री के सवालों से बहुत डरती हैं | कारण उसके सवालों से सत्ता के किले की सदियों पुरानी दीवार दरकने लगती है | ऐसा ही एक सवाल देहरादून की शायरा बानों ने कोर्ट में याचिका लगाकर पूछा है कि जब इस्लाम में निकाह मर्द और औरत की रजामंदी से होता है तब तलाक अकेले मर्द की मनमर्जी से कैसे हो सकता है ?
लेकिन इस दफे कोर्ट के दखल ने सियासी और मज़हबी हलके में भूचाल ला दिया | सरकार,विधि आयोग, आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड , मीडिया सब मानो सोते से जाग उठे हैं और एक बार फिर से लैंगिक गैरबराबरी का मामला गरमा उठा है | जैसा कि रोज़ा लक्समबर्ग कहती हैं कि जब तक आप आगे नहीं बढ़ते लेते आपको जकड़ी हुई जंजीरों का अहसास नहीं होता | तो इस बार सायरा बानो जैसे ही आगे आईं उन पाबंदियों , परम्पराओं का असर दिखने लगा जिनकी बिला पर हर रूप में पितृ सत्ता अपना असर कायम करती है | जब तक औरत सब कुछ चुपचाप सहन करती रहती है,धर्म-समाज-संस्कृति में सब कुछ गुडी-गुडी दिखाई देता है लेकिन उसके सवाल उठाते ही सब बेहतर होने का यह तिलस्म दूटने लगता है | और चोतरफ़ा जो माहौल बनता है वो ऐसा होता है मानो किसी ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया हो |
तो इस दफे सायरा बानो ने जो सवाल उठाया है वह बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा ही है और अब नज़र क़ानून के सबसे बड़े पहरुए यानी सुप्रीम कोर्ट पर जा टिकी है | क़ानून के इस पहरुए को इस दफे भारतीय सम्विधान के अनुच्छेद १४ , १५, २१ और ४४ मद्देनज़र औरतों के हक़ बाबत फैसला करना है | बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज़ कहती है, ‘तीन बार तलाक कहने से तलाक होने से बहुत सारी महिलाएं परेशान हैं. फोन पर तलाक हो रहे हैं, वॉट्सऐप पर हो रहे हैं और जुबानी तो हो ही रहे हैं. एक पल में महिला की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है. जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है और महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है. आप औरतों को कोई वस्तु नहीं समझ सकते. सोचिए ये सब 21वीं सदी में हो रहा है. हम इसके विस्तार में जायें इसके पहले सायरा बानो के मामले और तलाक ए बिद्दत के बारे में जान लेना लाजमी है |
पिछले साल अक्टूबर में शायरा बानो अपने माता पिता के इलाज के लिए देहरादून में थीं | उनके पति मो. अह्मद रिज़वान इलाहबाद में थे | शायरा बानो के उन्होंने फोन पर कहा तुम्हारे लिए जरूरी कागज़ात भेज रहा हूँ | शायरा को जब वे कागज़ मिले और उन्होंने खोलकर जब देखा तो उनके शादीशुदा रिश्ते का अंत हो चुका था | दो पन्ने के उस तलाकनामे में लिखा था “‘शरीयत की रोशनी में यह कहते हुए कि मैं तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, इस तरह तिहरा तलाक देते हुए मैं मुकिर आपको अपनी जैजियत से खारिज करता हूं. आज से आप और मेरे दरमियान बीवी और शौहर का रिश्ता खत्म. आज के बाद आप मेरे लिए हराम और मैं आपके लिए नामहरम हो चुका हूं.’

शायरा ने फोन पर रिजवान सम्पर्क करना चाहा तो फोन बंद मिला | रिश्ते को बचा पाने में नाकामयाब रहने की दशा में हारकर शायरा बानो को देश की सबसे बड़ी अदालत से दरयाफ्त करना पड़ा कि तीन बार तलाक बोलकर तलाक की व्यवस्था को गैर कानूनी घोषित किया जाये |उन्होंने साथ में तलाक से जुड़े “हलाला” और “बहुविवाह” को भी चुनौती दी |

इस पर आगे विचार करने के पहले एक बात और गौर करने लायक है कि असमान समाज में तकनीक जहां ताकतवर को और ताक़तवर बनाती है वहीँ कमज़ोर को और कमज़ोर बनाती है | यह बात फोन , मोबाईल, इंटरनेट, पर तलाक के चलन से साबित होती है | त्रिची तमिलनाडु की मरियम को तो उसके शौहर ने वाट्स एप पर ही तलाक दे दिया और इसे तिहरे तलाक की बिना पर जायज़ भी करार दे दिया गया | शायरा बानो की ही तरह काशीपुर की आफरीन की आप बीती भी जान लें जिसे शौहर ने स्पीडपोस्ट के जरिये तीन बार तलाक़ लिखकर तलाक दे दिया | आफरीन ने भी सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ गुहार लगाईं है | उसके मामले में शौहर की शिकायत थी कि तुम अपने माँ –बाप का ज्यादा ख्याल रखती हो और मुझे शौहर होने का सुख नही दे सकती | हमारे समाज के पाखंड भी इसमें झलकता है कि एक ओर जहां लड़का श्रवण कुमार होने से प्रशंसनीय है वहीँ लड़की से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने माता पिता का ख्याल शौहर की मर्ज़ी से रखे |

मुस्लिम विधि जो शरिया कानून से शासित है में शादी एक करार है जिसमे दोनों पक्षों की रज़ा मंदी से अंजाम दिया जाता है |जो यौन सम्बन्ध और औलादों को जायज़ करार करने के लिहाज़ से जरुरी है | शादी के बाहर जिस्मानी रीलेशन वहां गुनाह है | शरिया जो पवित्र कुरान और हदीस के अनुसार बताया गया क़ानून है में शादी को खत्म करने के लिए तलाक की व्यवस्था दी है|
पवित्र कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग व्याख्या से चार संस्थाएं निकली जो क्रमश हनफिय्या, मलिकिय्या, शफिय्या और हनबलिय्या हैं मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया। ये चार शाखाएं इस बात की गवाही भी देती हैं कि शरीयत में समय समय पर व्याख्या के चलते बदलाव होते रहे हैं | भारत में सन १९३७ में मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट लाया गया जो जिसका मकसद इस्लाम के अनुयायियों के लिए मुस्लिम कोड बनाना था।यह अंग्रेजो की रणनीति थी कि हिंदुस्तानियों के ऊपर हुकूमत करने के लिए उनके प्रायवेट क़ानून और प्रथाओं को ना छेड़ा जाए | १९३७ के मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट के मुताबिक ही भारतीय मुस्लिमों के शादी, तलाक, विरासत और पारिवारिक विवादों के निपटारे होते हैं |एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत विवादों में सरकार दखल नहीं कर सकती।यह भारतीय सम्विधान के अनुच्छेद ४४ जो एक समान सिविल संहिता यानी यूनिफार्म सिविल कोड के विपरीत है | यहाँ यह भी जान लेना जरूरी है कि पर्सनल ला केवल केवल मुस्लिम ही नही अन्य धार्मिक मतावलम्बियों के लिए भी लागू है जैसे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम १९५६ जो हिंदू, बुद्ध, जैन और सिखों में उत्तराधिकार में मिली संपत्ति के विवादों को तय करता है साथ ही पारसी विवाह-तलाक एक्ट १९३६ और का हिंदू विवाह अधिनियम १९५५ का उदाहरण लिया जा सकता है |
मूल विषय पर फिर से लौटते है मुस्लिम विधि मोटे तौर पर तीन तरह के तलाक की व्यवस्था देती है ये हैं-
१)तलाक-ए-तफवीज: - इसमें मर्द शरीयत के अनुसार 90 दिन में तीन बार तलाक बोलकर अपनी बीवी से तलाक ले सकता है।इसमें एक बार तलाक बोलने के बाद अगली बार का तलाक बोलने के लिए एक निश्चित अंतराल होना चाहिये और उस दरम्यान बीबी और शौहर में कोई जिस्मानी रिश्ता कायम नही होना चाहिए | पूर्ण होने के पहले यह कभी भी वापस हो सकता है |
२)खुला: खुला के तहत बीबी शौहर के साथ न रह पाने की स्‍थिति खुला ले सकती है। इसकी पहल बीबी ही करती है।लेकिन बीबी के लिए शौहर की तरह आसान नहीं है |
३)फस्‍ख: फस्‍ख के तहत मियां-बीवी जब तलाक के लिए राजी हों, लेकिन दोनों में कोई असहमति हो तो वे शरई पंचायत कर सकते हैं। शरई पंचायत दोनों को सुनने के बाद अपना फैसला हालांकि शरई पंचायत के फैसले को मानने के लिए मजबूर नही किये जा सकते | आपसी रजामंदी से हुआ तलाक मुबरत कहलाता है |
इन तीनो से अलग तलाक ए बिद्द्त है यानी एक ही बार में शौहर द्वारा तीन बार तलाक बोलकर शादी के रिश्ते को हमेशा के लिए खत्म कर देना | ये तीन तलाक कहीं कहीं एक ही तुहर में बोले जा सकते हैं यानी ‘मै तुम्हे तीन बार तलाक कहता हूँ’ | इतनी जल्दी तो आदमी साँस भी नहीं लेता जितनी जल्दी यहाँ मर्द एक रिश्ता खत्म कर सकता है वो भी ऐसा जिससे कई जिंदगियां बाबस्ता होती हैं | मन्नू भंडारी का “आपका बंटी “ याद आता है कि किस तरह माँ-बाप के फैसले की सजा मासूम बच्चा भोगता है | जिसका ना तो कोई गुनाह है ना ही फैसले में कोई हिस्सेदारी |
यहाँ एक बात ध्यान रखे जाने योग्य है कि दुनिया भर के २२ मुस्लिम देश अपने यहाँ क़ानून लाकर इसका नियमन कर चुके हैं | मिस्र १९२९ , सीरिया १९५३, पाकिस्तान १९६१ और बांग्लादेश १९७१ में इसके लिए क़ानून ला चुके हैं |
तलाक ए बिद्द्त पितृसत्ता यानी मर्दवाद की मिसाल है |अब्दुल्लाह बिस्मिल ने बुनकरों पर अपने चर्चित उपन्यास ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ में इसकी बानगी दी है | जहां मुस्लिम औरते जी-जान लगाकर मेहनत करने और आमदनी करने के बाद भी मर्द की तुलना में दोयम दर्जे की जिंदगी बसर करती हैं | इस उपन्यास का एक पात्र कहता है ,‘औरत की आखिर हैसियत ही क्या है? औरत का इस्तेमाल ही क्या है? चूल्हा-हांड़ी करे, साथ में सोये, बच्चे जने और पाँव दबाये। इनमें से किसी काम में कोई गड़बड़ की तो बोल देंगे तलाक, तलाक, तलाक।’
इस तिहरे तलाक को खुद इस्लाम में इसे अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता | बिद्द्त का शाब्दिक अर्थ ही है अनसमर्थित |
“एक साथ तीन तलाके देना शरियत इसलाम मे बहुत बड़ा गुनाह हैं,
एक बार मे तीन तलाके देने वाले को गुनाहगार ठहराने के बावजूद शरिअत ने उसे तलाक के और दो मौको से महरूम नही किया और तीन तलाक को एक तलाक ही मानती हैं|(स्रोत इस्लाम दि ट्रुथ) | मुस्लिम विद्वानों के अनुसार एक बार में तीन तलाक की व्यवस्था हजरत साहब की दी हुई नहीं है आपात स्थितियों में खलीफा उमर ने यह व्यवस्था दी थी | हज़रत उमर रज़ि0 ने लोगो को एक बार मे तीन तलाक देने से रोकने के लिये सज़ा के तौर पर तीन तलाक को तीन तलाक ही लागू कर दिया था लेकिन ये शरियत का मुस्तकिल कानून नही था| ये ठीक उसी तरह हैं के 5 वक्त की नमाज़ो को अगर किसी एक वक्त मे एक साथ पढ़ लिया जाये तो जिस वक्त मे नमाज़ पढ़ी जायेगी उस वक्त की नमाज़ तो हो जायेगी लेकिन दूसरे वक्तो की नमाज़ न मानी जायेगी क्योकि उनके अदा करने का वक्त बिल्कुल अलग हैं लिहाज़ा कोई इन्सान 5 वक्त की नमाज़ को किसी एक वक्त मे नही पढ़ सकता| ठीक यही मसला एक साथ तीन तलाक देने का हैं के अगर किसी ने एक साथ तीन तलाक दे दी पहली तलाक तो मान ली जायेगी लेकिन बाकि तो और तलाको के लिये इद्दत का वक्त गुज़ारना ज़रूरी हैं(स्रोत इस्लाम दि ट्रुथ )”
बाकी तलाक जहां तलाक ए सुन्ना यानी मान्य हैं वही तलाक ए बिद्द्त को आलिमो ने अमान्य विधि कहा है |
लेकिन दुर्भाग्य से एक ही बार में तीन तलाक कहकर तलाक देने का रिवाज़ बढ़ा है |और तो और नशे में भी तीन तलाक के मामले देखे गए हैं मिसाल के तौर पर ओडिशा में नगमा बीवी को उसके शौहर ने नशे की हालत में तलाक दे दिया था. सुबह उसे होश आया कि उसने गलती कर दी है. मगर उन दोनों को साथ रहने की इजाजत नहीं दीगई . और नगमा बीबी को निकाह हलाला के लिए भेज दिया गया | यहाँ पर हलाला की चर्चा लाजमी है जिसे भी शायरा बानो के मामले में उठाया गया है | हलाला एक व्यवस्था है जिसके तहत यदि तलाक शुदा मिया बीबी फिर से एक होना चाहे तो बीबी को किसी और से निकाह करना होता है जहाँ से उसे तलाक होने पर वह फिर से पुराने मर्द से शादी रचा सकती है |

तलाक अच्छा है या बुरा इससे पहले यह सवाल जायज हो जाता है कि क्या तलाक औरत के हक में होता है ? क्या वह उस हालत में होती है कि खुद की और अपने बच्चे की परवरिश कर सके | हमारे समाज में जहाँ एक औरत शादी के बाद शादीशुदा जिंदगी के लिए अपना कैरियर तक दांव पर लगा देती है | पति,बच्चों,परिवार और घर को ही अपना कैरियर मान लेती है वहां तलाक के साथ ही वो एक दम से बेघर और बेसहारा हो जाती है | जिसके पास अपनी जीविका के लिए कोई साधन नहीं होता | इसीलिए शायरा बानो का मामला सम्विधान के अनुच्छेद २१ के अंतर्गत आता है जो देश के हर नागरिक को प्राण एवं देह की स्वतन्त्रता की गारंटी देता है इसे जीने का अधिकार भी कहा जाता है | जीविका विहीन , जीवन की सुरक्षा से वंचित तलाकशुदा औरत जीने के अधिकार का कैसे उपभोग कर सकती है | भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की सह-संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज़ कहती है, ‘तीन बार तलाक कहने से तलाक होने से बहुत सारी महिलाएं परेशान हैं...... एक पल में महिला की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है. जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है और महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है. आप औरतों को कोई वस्तु नहीं समझ सकते. सोचिए ये सब 21वीं सदी में हो रहा है. |”
मरहूम शाइरा परवीन शाकिर ने इस दर्दो बेबसी को एक शेर में कुछ यूं बयान किया है –
“तलाक दे तो रहे हो नाज़ोगुरुर के साथ
मेरा शवाब भी लौटा दो मेरे मेहर के साथ |”
इस पूरी डिबेट में एक बात और कचोटने लायक है कि जहां केंद्र सरकार और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड आमने सामने हैं और अपनी अपनी तरह से दांव खेल रहे हैं | वहां उस औरत का मन और फैसला अलग थलग पड़ा हुआ है जिसके वजूद से यह बहस सीधे बाबस्ता है |
भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन ने पूरे देश में ४७१० महिलाओं का सर्वे कर उनसे सवाल पूछा |
इनमे ५३.२% घरेलू हिंसा की शिकार थीं |( ३ बच्चो की माँ ३५ वर्षीय शायरा बानो के मामले को देखे तो उसने भी एक पत्रकार को बताया कि उसका ६ बार एबार्शन हुआ | या कहें किया गया )
५२५ तलाक शुदा महिलाओं के में ६५.९%को जुबानी तलाक मिला था |
७८% को एक तरफ़ा तलाक मिला था |
औरतो को तलाक पर मिलने वाला मुआवजा यानी मेहर ४०% औरतों के मामले में १ हज़ार से भी कम था और ४४% ने तो इस मेहर की रकम के ना मिलने की बात भी कही |(यह इस दावे की कलई खोलता है कि मेहर तलाक की दशा में पर्याप्त सुरक्षा है )
लेकिन इन सबमे इस सर्वे की सबसे बड़ी बात यह है कि ८८.३ % औरते चाहती हैं कि तलाक को लेकर कानूनन सही तरीका हो यानी ९० दिनों की प्रक्रिया हो इस बीच बातचीत हो बड़े बुजर्गो की मध्स्थता हो | ८३.३% ने यह भी चाहा कि सरकार इस दिशा में क़ानून बनाये |
अब देखना यह है कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड , केंद्र सरकार और दूसरे ज़िम्मेदार इस आवाज़ को कितना सुनते हैं |उसे नयी रौशनी से अब और मरहूम नही किया जा सकता |
वैसे यदि सब चाहते हों कि औरत उनकी सुनती रहे तो अब इसे अनसुना करना लाजमी नही होगा |

|| हनुमंत किशोर ||