अनुदान और आयोजन : रंगमच
का मरण उत्सव
रंगकर्म कभी लोक
कर्म हुआ करता था | हर सामाजिक आयोजन ,तीज त्यौहार में रंगकर्म
किसी ना किसी रूप में शामिल शरीक था ....
एक तरह से वह ऐसे आयोजनों का गणपति था | रात रात भर की राम लीला और नौटंकी वाला
तमाशा आज भी याद है | शादी बियाह में बारात के चले जाने पर सूने घर में औरतों का
जिदाना एक नाट्य रूप ही तो हुआ करता था | लेकिन फिर नये ज़माने की जाने कैसी हवा
चली कि टीवी नामक सर्वग्रासी दैत्य ने दूसरे कला माध्यमों की तरह इसे भी निगल लिया
| और आज रंग कर्म डायलिसिस पर है | सरकारी कृपा पर साँसे गिनता हुआ |हालाँकि एक प्रतिरोधी माध्यम के रूप में इप्टा और जनम
जैसे नाटय दल और प्रवीर गुहा
,गुरुशरण सिह जैसे रंगकर्मी देश भर के भीतर प्रतिरोधी रंगकर्म की उम्मीद बचाये हुए हैं |
प्रतिरोधी और प्रतिबद्ध रंगमंच से
इतर शौकिया या अप्रतिबद्ध रंगमंच
हिन्दुतान में आजादी के बाद गहरे संकट से घिरने लगा | पारसी रंगमंच जो व्यवसायिक रंगमंच का
प्रतिनिधित्व करता था सिनेमा के चलते वीरान होने लगा | उसके अभिनेता अभिनेत्रियाँ
, संगतकार , लेखक धीरे धीरे बम्बई के फिल्मिस्तान में आबाद होने लगे | पृथ्वी राज
कपूर जैसे हुनरमंद चुनिन्दा थे जिन्होंने फिल्म और रंगमंच दोनों का दामन भरपूर
किया | शेष बायस्कोप की बलि चढते गये |हालाँकि
पारसी थियेटर ने सिनेमा को भी अपने रंग में रंग दिया और इस तरह रंगा कि बम्बईया यथार्थवादी सिनेमा भी गानों से मुक्त ना सका | आज की फिल्मो का आइटम सांग सीधे सीधे पारसी रंगमंच की नकल है | पारसी
रंगमंच के पराभाव के बाद भी लोक रंगमंच
बचा रहा क्योंकि उसकी जड़े किसी कम्पनी में नही जन जीवन में थी | सामाजिक
आयोजनों में देर रात तक जो कार्यक्रम चलते
वहाँ लोक नाट्य के लिए पर्याप्त आक्सीजन थी | ‘रामलीला’ और ‘जात्रा’ हप्तों यहाँ तक कि महीनों
चलनेवाला धारावाहिक सिलसिला था | ये अपनी खुराक के लिए टिकट पर नहीं चंदे और दान
पर टिके थे ...जो धार्मिक भावनाओं की रौ में फलफूल रहा था |
लेकिन हिन्दुस्तानी सिनेमा के कोई ५० साल बाद यानी सन १९८० के बाद रातों रात एक माध्यम जिसे
हम टीवी कहते हैं ने अपना इतना बड़ा जाल फैलाया कि कला की छोटी बड़ी सभी मछलियाँ
इसमें फँस कर और मरकर रह गयीं | लोक रंग मंच के पतन के लिए ग्रामीण और कस्बाई जीवन
के खात्मे के साथ जो बात साफ़ तौर पर ज़िम्मेदार थी वह टी वी था | देर रात लीलाओं का
आन्नद उठाने वाला अब छोटे परदे पर रामायण , महाभारत , बुनियाद , हमलोग और शोले की जकड़ में आ चुका था | मंच
के जीवित कलाकारों को परदे की छायाओं ने बेदखल
और बेरोजगार कर दिया था | वे अब खेतीबारी, पुश्तैनी धंधो या मजदूरी की तरफ पूरी तरह से लौट गये |
रंगमंच के
खात्मे के इसी दौर में कस्बाई और महानगरीय
शौकिया रंगमंच ने अपनी संभावनाओं से रंगमंच को नयी उम्मीदें बँधायी | इसमें दोनों
तरह के लोग शामिल थे कला और माध्यम की समझ
रखने वाले बुध्दिजीवी और मंच को सिनेमा की सीढियां समझने वाले फ़िल्मी
पुन्गुव | आज का हिंदी रंगमंच कमोबेश इन्ही दो के कंधो पर टिका है और अपवाद को छोड़
दें तो आज ये दोनों अपने अस्तित्व के लिए
सरकारी और गैर सरकारी अनुदान पर टिके हैं |
लेकिन अनुदान का
खेल ज़ाहिर है उतना ही अंडरग्राउंड भी | इस गोरख धंधे को समझने के पहले इस मजबूरी
को समझना ज़रुरी है कि क्यों रंगमंच को उसके हाल पर छोडने की बजाय सत्ता की रूचि
उसमें नकेल डालकर उसे जीवित रखने की है |
असल में सत्ता की चिंता रंगमंच को बचाने की नहीं उससे अपने हितों को बचाने की है |
रंगमच नृत्य या संगीत जैसे दूसरे कला रूपों से इस मायने में अलग है कि वह विचार का
सम्वाहक बनता है | साथ ही जीवित माध्यम होने के नाते विचार और विद्रोह दोनों का
संक्रमण तेज़ी से होता है | यहाँ अभिनेता यानी विचार और दर्शक के बीच कोई दीवार कोई
अवरोध नहीं होता | कुछ ऐसे की आप जैसे ही प्लग का स्विच ऑन करते हैं करेंट
दौडने लगता है | अंग्रेजों ने जब ‘ नील दर्पण’ को प्रतिबंधित किया था तो वजह यही थी | हिदुस्तानी खेती को अंग्रेजों की
नीतियाँ किस तरह बंजर करते हुए संपन्न कृषि व्यवस्था को दरिद्र कर रही थी ‘नील दर्पण’ इस कुत्सित सच्चाई को बेनाकाब करता था | जाहिर है
अंग्रेजो को खतरे की आहट सुनाई दी और इसे प्रतिबंधित कर दिया गया | उसी दौर में
अँगरेजी हुकूमत ने नाटक की ताकत को बधिया
करने के लिए ‘ड्रामेटिक परफार्मिंग एक्ट’ जैसा क़ानून बनाया | जिसके द्वारा
नाटक की प्रस्तुति के पहले नाट्य आलेख
दिखाकर कलेक्टर से पूर्व अनुमति अनिवार्य
कर दी गयी ( दुर्भाग्य से आज़ाद हिन्दुतान में आज भी गुलाम हिन्दुतान का यह क़ानून
लागू है ) | लेकिन कानून बनाकर नाटक की ताकत को सीमित नहीं किया जा सका | इसे तब
की एक बहुत बड़ी घटना ‘ कीचक वध’ को लेकर समझा जा सकता है | बाल गंगाधर तिलक के
मित्र के . वी . खांडील्कर ने महाभारत के
रूपक लार्ड कर्जन के भारत में बाँधा | जिसमे
हिन्दुतान द्रोपदी के रूप में चित्रित किया गया था | नाटक का प्रभाव यह हुआ
कि नासिक कलेक्टर जैक्सन समेत कुछ लोगों की हत्या कर दी गयी |खान्दिलकर को इसके
लिए ज़िम्मेदार बताते हुए कैद कर लिया गया | आज़ाद भारत में भी जब ‘हल्ला बोल’,‘ मी गोडसे बोल तोय’ , ‘बहादुर कलारिन’, ‘मातादीन चाँद पर’ या ‘और अंत में प्रार्थना’ आदि पर सत्ता या फासिस्टों का
हमला होता है तो वजह यही होती है यानी नाटक की ताकत से पैदा होने वाली बौखलाहट ऐसी स्थिति में सत्ता जिसमे पूँजी भी शामिल है के लिए यही मुफीद होता है कि वह दमन के सामंती
तरीकों की जगह पूँजी की चालाकियों का सहारा लेकर इसे या तो अपने पक्ष में कर ले या
शक्तिहीन कर दे | अनुदान और सरंक्षण इसी योजना का हिस्सा है | विद्रोही कवियों को
राजा अपने दरबार में पालकर उनकी जनता में पैठ को रोक लिया करते थे रंगकर्मी को
जनता से काट देने का भी यही उपाय है उसे अनुदान आश्रित बना देना |
यह काम एक या दो
दिन का नहीं है इसके लिए पूरा एक चक्रव्यूह बहुत पहले से तैयार किया जाता हैं
जिसकी पहल रंगमंच के लोकधर्मी सौंदर्य शास्त्र के स्थान पर अभिजात्य धर्मी सौंदर्य शास्त्र को विकसित करने से होती है | देश में इसका
प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और
उसके स्नातक करते हैं | इस सौंदर्य शास्त्र में शिल्प कथ्य के ऊपर इस तरह से हावी होता है कि रंगमंच
महँगी लाइट्स और इफेक्ट का ऐसी दुसाध्य चढ़ाई बन जाता है कि शौकिया रंगमंच चलने के पहले
ही हाँफ उठता है | इस सौंदर्य शास्त्र के
लिहाज से नाटक के लिए सर्वसुविधा युक्त प्रेक्षागृह पहली शर्त बन जाती है और जिसका
भारी भरकम किराया अब आम बात हो चुकी है | जबलपुर की ही बात करूँ तो कोई भी काम
चलाऊ प्रेक्षागृह ७ हज़ार प्रतिदिन से कम पर उपलब्ध नहीं है | कभी सांस्कृतिक नीति के तहत हर शहर में रविन्द्र भवन बनाये गये थे | सामुदायिक गतिविधियों के लिये मोहल्लो में सामुदायिक भवन बनाये गये | विश्वविद्यालयों ,
महाविद्यालयों में कल्चर सेंटर और उनके प्रेक्षागृह हैं | कहने का तात्पर्य यही है
कि कमी प्रेक्षागृह की नहीं इच्छा शक्ति की है , जो सरकार रंगकर्म के लिये अनुदान
देकर दानवीर बनती है वो एक नीति बनाकर रंगकर्म
को निशुल्क मंच मुहैया करा सकती है | लेकिन इसका अभाव यही दर्शाता है कि वे
अधिकार नहीं बल्कि भीख देकर रंगमंच को
मुठ्ठी में रखना चाहती हैं | ऐसी
दशा में रंगकर्म या तो समर्पण की मुद्रा में आ जाता है या समाप्ति की | बहुत कम
रंगकर्मी बादल सरकार की तरह प्रेक्षागृह
से बाहर आ पाते हैं या हबीब तनवीर की तरह अभावों के मंच को भी अपनी जीवटता से जीत लेते हैं |
हर मामलों में यूरोप की नक़ल
करने वाली सरकार इस मामले में यूरोप की सांस्कृतिक नीति से कुछ नहीं सीखती जो अपने
कलाकारों को कला प्रदर्शन के लिये मुफ्त या रियायत पर परिवहन उपलब्ध कराती है |
हालाँकि कभी कभी कोई रेल मंत्री कला
मंडलियों के लिये किराये में कुछ रियायत
की घोषणा कर देता है जाहिर है ये प्रक्रिया और अनुपात दोनों स्तरों पर ऊँट के मुँह
में जीरा
सिद्ध होता है | यही वजह रही कि हिन्दुस्तान में युरोप की तरह मोबाइल
थियेटर विकसित नहीं हुआ क्योंकि दो - तीन
दर्ज़न लोगों के किराये का इंतजाम करने में ही
इतना खर्च हो जाता है कि स्थानीय
आयोजक की कमर झुक जाती है | यद्यपि इसके बाद भी असम के मोबाइल थियेटर ने एक मिसाल
कायम की है लेकिन उसकी अपनी स्थानीय वजहें हैं |
यहाँ प्रश्न घूम फिरकर वही आता है कि संस्थाओं को आयोजन के लिये अनुदान
देने वाली सरकार मंडलियों के लिये किराया माफ क्यों नहीं करती ? उत्तर वही है इस
तरह से वे उन्हें अपनी पकड़ से आजाद नहीं करना चाहते |
रा.ना.वि. दिल्ली या क्षेत्रीय नाट्य विद्यालयों की प्रस्तुतियाँ
देख ली जायें व्यवस्था की आलोचना सिरे से गायब और वे खास दिमाग को गुदगुदाने वाली
प्रस्तुतियाँ है | वे गरीबी का दुःख तो बताती है लेकिन बजह के रूप में पूँजी के शोषण और पूँजी समर्थक
नीतियों के खिलाफ गुस्सा पैदा नहीं करती | कई जगहों पर वे सेफ्टी वाल्व का काम
करती भी दिखायी देती हैं |
कमोबेश यही हाल सरकारी या गैर सरकारी अनुदानों पर जी रही
नाट्य संस्थाओं का है | उन्हें सरकार बदलने पर अपनी प्रस्तुतियाँ बदलते देखा जा
सकता है | खुलकर कहने की जगह वे अलंकार के आवरण में कहने लगते हैं | विडम्बना इतनी
भयावह होती है कि जिस अवाम को वे संबोधित करते हैं वो ही दर्शक दीर्घा से गायब
होती है | पीड़ा और विद्रोह के मनोरंजन
होते जाने की त्रासदी अनुदानजीवी रंगमंच का स्थायी भाव बन चुकी है | यहाँ चापलूसी पहले रणनीति और फिर विवशता बन जाती है | अनुदान की बहुत सी प्रत्यक्ष और
परोक्ष शर्ते होती हैं जिन्हें आप अनुदान जीवी होकर ही जान सकते हैं | अनुदान के
पैसे का अपना चरित्र होता है और वह रंगमंच के चरित्र का निर्धारण करता है | अनुदान
को तटस्थ समझ लेना भोलेपन से ज्यादा कुछ नहीं है | एक कारोबारी नेता ने हमारी मंडली को अच्छी रकम एक नाटक के लिये पेश
की शर्त इतनी थी कि उदघाटन पर उन्हें दो शब्द कहने दिये जायें | हमने पेशकश भोलेपन
में स्वीकार कर ली और वही हुआ जिसका डर था | उन्होंने हमारे नाटक के पहले ही अपने
फायदा का नाटक हमारे मंच से खेल लिया | यह एक उदाहरण भर है कि किस तरह से पूँजी और
दाता रंगमंच पर अपनी घुसपैठ करते हैं | अनुदान रंगमंच को पहले आरामतलबी की लत
लगाता है और फिर उसे अपनी शर्तों पर | ग्रुप का निर्देशक लेखापाल या मैनेजर बनकर
रंगकर्मी नहीं राजधानियों में जूते चटकाता
तिकड़म कर्मी हो जाता है |
आज हर नाट्य
संस्था चार नाटक के ब्रोशर लगाकर अनुदान का कटोरा लेकर खड़ी हो जाती है | हैरानी की बात तो ये है कि इसमें कई नाटको का
सिर्फ ब्रोशर ही छपता है | वे कब हुए, कहाँ हुए
कोई नहीं जानता | और सरकार बिना
पात्र कुपात्र बिचारे अंधे की तरह रेवड़ी
बाँटती है |आज अकेले भोपाल में दर्जन से ऊपर
रंग मंडलियाँ हैं जो रेपेटरी बनकर चार छ: लाख का अनुदान उठा रही है उनका
रंगमंच को योगदान साल भर में अनुदान को बनाये रखने लायक किये जाने वाले एक दो नाटक
होते हैं | जिनमे अधिकांश में या तो कामेडी का तड़का लगा होता है या संगीत का |
बहरहाल यहाँ उद्देश्य उनके रंगमंच बाबत
काम को कमतर आँकना कतई नहीं है |
अनुदान का विकल्प
अन्तत: दर्शक ही है | क्योकि रंगमंच का
सरोकार सरकार या कारोबार नही अपितु जनता यानी दर्शक
है | उस रंगमंच को संबल के लिये
भी सरकार की और नहीं अपितु
अपने दर्शक की और देखना चाहिये | ये हैरानी की बात नहीं है कि अनुदान मिलते
ही रंग मंडली नये दर्शक की ओर देखना बंद
कर देती है | यहाँ तक की कुछ तो दर्शक से बदतमीजी की मुद्रा में उतर आते हैं मानो
हमारा क्या कर लोगे ?
उपर जिस विकल्प की बात की गयी है
यहाँ उसे और साफ़ करना ज़रुरी है | सूत्र रूप में कहें तो दर्शक ही आयोजक है | जैसा
समागम रंग मंडल जबलपुर ने नारा दिया था | उन्होंने हज़ार दर्शक की सूची बनायी जो ५
दिवसीय नाट्य उत्सव के लिये ५०० रूपये का
टिकट एडवांस में खरीद सकें और फिर स्मारिका के लिये थोड़े विज्ञापन जुटाये इस तरह
दर्शको को आयोजक बनाकर बगैर किसी सरकारी खैरात के एक नहीं तीन चार वर्षों तक नाट्य
उत्सव किये | इसी क्रम में एक बहुत सम्मानित नाम “अस्मिता” ग्रुप का है | जिसने बिना
सरकारी या गैर सरकारी खैरात के दर्शक के
बल पर दशकों से प्रतिबद्ध रंग मंच और
आयोजन करती आ रही है | ‘इप्टा’ और ‘जनम’ की ईकाईयाँ देश भर जहाँ जहाँ वे है अनुदान बगैर
रंगमंच को जीवंत किये हुए हैं |
एक समय था जब ऐसी खैरात नहीं थी तब
के रंगमंच के अनुभव को तनिक याद करें | दर्शक किस तरह नाटक का हिस्सा होता था |
अभाव का रंगमंच हमें अपनी जान पहचान के लोगों से प्रापर्टी , कास्ट्यूम और सेट के
फर्नीचर जुगाड़ करने की तरफ ले जाता था | ये बात रंगकर्मी और दर्शक के बीच एक नया
जुड़ाव पैदा करती थी | दर्शक भी मंच पर अपनी प्रापर्टी , कास्ट्यूम को देखकर धन्य भाव का अनुभव करता
और स्वयं को रंगकर्म का भागीदार समझता |अब वो अनुभव शायद काल बाह्य हो चुका है |
लेकिन रंगकर्म की पुन: प्रतिष्ठा के
लिये उसे जीवित करने की आवश्यकता है
अन्यथा अनुदान जीवी रंगमंच एक मरणशील प्रवत्ति बनकर रह जायेगा | समय आ गया है जब
रंगकर्मी अनुदान के कुकून से बाहर निकलकर रंगमंच को सार्थक करें ||||
“हनुमंत किशोर”.... जबलपुर (म.प्र.)
मोब :
८९५९६८७४४५