Wednesday, December 28, 2016

गोरेपन की ग्रन्थि (complex of fairness)(gorepan ki granthi)

गोरेपन की ग्रन्थि 
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''शरीर के रंगभेद होने से आदमी को आदमी न समझना सबसे बड़ा जंगलीपन है। वास्तव में जो लोग जंगल में रहते हैं, वे इन तथाकथित सभ्य लोगों से अधिक सुसंस्कृत होते हैं। वन्य समाजों में रंगभेद की धारणा शायद ही कहीं पाई जाती हो। उनमें और बहुत-सी कमियाँ होती हैं, पर उनमें रंगभेद नहीं होता। रंगभेद का संस्कार पुराना है, परंतु उसका प्रसार गुलामी की प्रथा के साथ हुआ।''
(डा.राम विलास शर्मा )
सयुंक्त राज्य अमेरिका में जब बराक ओबामा प्रेसीडेंट लिए विजयी हुए तो उसे “पॉवर ऑफ़ ब्लेक” की जीत माना गया था जो अफ्रीकी –अमेरिकी समाज में १९६०-१९७० के दौरान जन्मा एक रंगभेद विरोधी आन्दोलन था |१९५४ में रिचर्ड राईट ने इसी नाम से किताब लिखकर ब्लैक यानी काले रंग को एक नैतिक शक्ति प्रदान की थी |यहाँ तक की राजनैतिक-सामाजिक अधिकार की लड़ाई के लिए ब्लेक पैंथर पार्टी का भी जन्म इसी दौरान हुआ |
हालिया अमेरिकी प्रेसीडेंट के चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत ने खुद अमेरिका को कितना रंगभेद की जमीन पर शायद पीछे ना घसीटा हो लेकिन हिदुस्तान में रंग की ग्रन्थि को खाद-पानी देने का काम कालेधन के मुद्दे के साथ अनजाने ही कर दिया |
इस ग्रन्थि का संकेत सोशल मीडिया में बहु प्रचारित-प्रसारित उस चुटकुले से मिलता है जिसमे कहा गया कि हम यहाँ अभी तक काले धन से पीछा नहीं छुड़ा सके उधर अमेरिका में अपना राष्ट्रपति काले से गोरा कर लिया |
हमारे समाज में जाति-भेद , वर्ण-भेद की तो पहचान साफ़ तौर पर की जा सकती हैं लेकिन हमारे समाज में व्याप्त रंग-भेद और ‘कलर-काम्प्लेक्स’ की शिनाख्त बड़ी मुश्किल है क्योंकि यह विकार मूलत: अंग्रेजों के आगमन के बाद का औपनेवेशिक सर्वोच्चता की ग्रन्थि से व्युत्पत्त है और हमारी मूल परम्परा में इसका स्थान नही था |अन्यथा राम, कृष्ण जैसे लोक स्वीकार देवता श्याम-सलोने नहीं होते |
लेकिन कालान्तर में यह रंग सर्वोच्चता की ग्रन्थि ही रही होगी कि वे राजा रवि वर्मा कालीन चित्रों तक आते आते नीले हो गये | विष्णु भी नीले हैं | ब्रिटिश राजवंश भी अपने को ‘ब्लू-ब्लड’ कहता आया है |
भारतीय परम्परा में वर्ण व्यवस्था रही है | ‘वर्ण’ का एक अर्थ ‘रंग’ भी होता है किन्तु इस वर्ण व्यवस्था को सीधे रंग भेद से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि एक ही वर्ण में काले, गोरे , गेहुंए सभी रंग के लोग थे | और यदि निम्न वर्ण का व्यक्ति गौरांग भी था तो पूज्य नहीं था | कहते हैं कि शुक्राचार्य से लेकर अद्वैत मत के प्रचारक शंकराचार्य तक कई ऋषि-मुनि काले थे | पुराने काले देवी-देवता , काले जगन्नाथ स्वामी से लेकर काले धर्म गुरु और शास्त्रीय श्याम वर्णी नायक-नायिका हमारी परम्परा में खूब स्थापित सम्मानित रहे | 
हमारी प्राचीन परम्परा में शोक और शांति का प्रतीक सफ़ेद था तो काला तो शक्ति का प्रतीक था |
कालान्तर में पाश्चात्य के प्रभाव में सफेद शान्ति का प्रतीक हो गया और काला शोक , बुराई और विरोध का |
फिर हमारे समाज में जो भी बुरा ,निकृष्ट बदसूरत था वह काले से जोड़ दिया गया |
हमारी भाषा-मुहावरे इसकी बानगी देते हैं - काला -धन” “काली-करतूत” “मुंह काला करना ” “किस्मत काली होना“ ‘काला-जादू’ “काली कलूटी बेगन लूटी” “करिया बाभन गोर चमार इनको समझो महा गंवार “ आदि आदि |
वहीं काले के उलट सफेद हर तरह की शुचिता , सुन्दरता से संयुक्त कर दिया गया |
इसका बहुतांश आदिकाल की नहीं आधुनिक काल की उपज है |
बुराई से जुड़कर रंग से भेदभाव का इतिहास अंग्रेजो से शुरू होता है |
काले-गोरे को लेकर यह बहस आगे बढे इसके पहले जीव विज्ञान की इस अवधारणा को समझना जरुरी है कि मानव त्वचा की कोशिकाओ में मेलानिन नामक वर्णक इसके लिए उत्तरदायी होता है जो त्वचा को केंसर जैसी बीमारियों से बचाता है | इसके अलावा नृतत्व विज्ञान के अनुसार पूरी दुनिया तीन रंगो में विभिन्न जलवायु और भोगोलिक प्रभावों के कारण बंटी है ये हैं गोरे काकेशियन , पीले मंगोल और काले इथोपियाई | इन्ही तीन के कम ज्यादा शेड से सभी लोगों के रंग बने हैं और भारत में इनके सभी रूप मौजूद रहे हैं |
आज से कोई ५००-६०० बरस पहले जब यूरोप ने दुनिया भर में अपने उपनिवेश कायम करने स्थापित किये तो विजेता वर्ग ने विजितो को शासित करने के लिए उन्हें जन्मना हीनतर प्रचारित करने प्रोपेगंडा किया | उन्होंने खुद को बर्बर को सभ्य बनाने वाला देवदूत बताया और तबके शासक वर्ग ने दुनिया भर के शासित वर्ग को रंग-भेद यानी उनके रंग को हीनता से जोड़कर उन्हें कमतर साबित किया | अफ्रीका , अमेरिका और एशिया जहाँ-जहां ये ओपनेवेषिक शक्तियाँ सत्ता में रहीं वहां रंगभेद उनके शासन संचालन की एक युक्ति बन गयी | 
महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में इसका अनुभव किया और खुद को कुली-काले के रूप में लांछित पाकर आन्दोलन शुरु कर दिया | वहां भारतीयों को गंदा और बेईमान बताकर ना केवल उन पर तरह तरह के विभेदातम्क क़ानून थोप दिये उनके माल का बहिष्कार करने को भी कहा 
भारत के सन्दर्भ में बात करें तो अंग्रेज ना यहाँ के मजदूरों की श्रम शक्ति का मुकाबिला कर सकते थे ना यहाँ की व्यापारिक कौशल का | इसलिए अंग्रेजो ने यहाँ भी रंग भेद का अपना वही घिनौना खेल खेला और अपने गोरे रंग को बेहतर गुणों से और यहाँ के ‘नेटिव’ के रंग को हीनता,दुर्बलता से संयुक्त कर दिया | रेल,रेस्टारेंट,क्लब से लेकर नौकरी के बड़े पदों पर उनके लिए अलग जगह आरक्षित कर दी गयीं | अब वे प्रथम नागरिक थे और यहाँ के ‘नेटिव’ दोयम दर्जे के |
अंग्रेज हालांकि चले गये लेकिन अपने चमड़ी के कीड़े यहाँ छोड़ गये जिन्हें हमारा समाज आज भी बड़े प्यार से पाल-पोस रहा है |
भारतीय समाज में रंग-भेद अमेरिका और अफ्रीका की तरह नहीं रहा | इसलिए यहाँ कोई मंडेला, लिंकन या मार्टिन लूथर किंग कभी नहीं जन्मा | कारण यहाँ चमड़ी का यह भेद बड़ा सूक्ष्म है, एक अलग एडीशन की तरह | यहाँ मर्दों में वह सिर्फ उपहास जनक है जहाँ उसे स्वर्ण और अवर्ण दोनों के लिए वर्ण संकरता से जोड़कर देखा जाता है तो स्त्रियों में यह उपहास के साथ एक सामाजिक अयोग्यता भी निर्मित करता है |
कुछ हालिया उदाहरण इसकी बानगी देते हैं |
जब एक केन्द्रीय मंत्री ने कांग्रेस नेत्री सोनिया गांधी के सन्दर्भ में टिप्पणी करते हुए कहा कि राजीव गांधी नाइजेरिया की किसी काली औरत से शादी करते तो कांग्रेस उसे नेता के रूप में स्वीकार नहीं करती | इसका मतलब कि श्रीमती सोनिया सिर्फ अपनी चमड़ी के रंग के कारण इस पद पर हैं यही उनकी योग्यता है | एक अन्य मामले में हड़ताली नर्सो को समझाइश देते हुए गोवा की मुख्यमंत्री ने कहा कि वे धूप में बैठकर हड़ताल ना करें अन्यथा रंग ‘डार्क’ हो जाने से उनकी शादी की संभावनाओ पर असर पड़ेगा |
हम अपने घर-परिवार में इसका आज भी अनुभव कर सकते हैं कि लड़की की कामना करने वाले घर में भी सावली कन्या का जन्म होते ही लोगों के माथे पर बल पड़ जाते हैं | मन्नू भंडारी और प्रभा खेतान जैसी विदुषी भी चमड़ी के रंग की इस यातना से बच नहीं पाती |
एक समारोह में एक सज्जन एक गोरी लडकी को माडलिंग, मार्केटिंग से लेकर एयर होस्ट्स जैसे व्यवसाय में आने की सलाह दे रहे थे लेकिन उसकी बड़ी बहन जो गहरे रंग की थी उसके बारे उन्होंने यह कहकर सलाह समाप्त कर दी ‘बेटा पढ़ाई पर फोकस करो’
और वे गलत भी नहीं कहे जा सकते क्योंकि हमारे यहाँ रंग के आधार पर कुछ ख़ास इलाके सर्वथा आरक्षित हैं |
इस रंग-ग्रन्थि के निर्माण में कास्मेटिक इंडस्ट्रीज का योगदान है क्योंकि उनका सबसे बड़ा मुनाफा काले से गोरे होने के इसी गोरख धंधे में है |
भारत में दूर दराज के गाँव में आपको पेरासिटामाल जैसी बेसिक दवाई या पीने का साफ़ पानी भले ना मिले फेयर एंड लवली जरुर मिल जायेगी | 
अब ये क्रेज लड़को में भी बराबर बढ़ रहा है | जिसकी बदौलत 2012 में भारत में 233 टन फेयरनेस क्रीम की खपत हुई| गोरा बनाने वाली ‘फेयरनेस क्रीम‘ का बाजार 1800 करोड़ रुपये का आंका गया . ब्लीच का तो 200 करोड़ रुपये का | गली कूचे में खुले ब्यूटी पार्लर के आंकड़े इसमें शामिल नहीं है |
नाओमी वूल्फ अपनी किताब ‘ब्यूटी मिथ’ में इस कास्मेटिक बाज़ार के छद्म का खुलासा करती हुई बताती हैं कि किस तरह ये बाज़ार विज्ञापन के जरिये सौन्दर्य का एक झूठ (मिथ ) रचता है और स्त्री देह को अनुशासित करता है |और इस अनुशासन में एक मर्द वादी दृष्टि स्त्री के उद्धार के नाम पर सक्रिय रहती है |
बाज़ार बच्चों को उनके बचपने से ही इस दृष्टि के लिए अनुकूलित करना शुरू कर देता है | सबसे अच्छा उदाहरण 'बार्बी डॉल' है अफ्रीका के काले बच्चे भी सुनहरे बालो वाली उस गोरी गुडिया से खेलकर बड़े होते हैं और जवान होने पर इसे ही सुन्दरता का मानक बना लेते हैं | बार्बी डॉल जैसे खिलोनों ने हमारे मानस में कितनी गहरी जड़ जमा ली है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब कुछ संगठनो की मांग पर काली बार्बी डॉल बाज़ार में उतारी भी गयी तो बिक्री ना होने से वापस बुला ली गयी |
गोरेपन की यही ग्रन्थि हमारी सोच को चमड़ी के रंग के आधार पर पूर्वाग्रह को जन्म देती है |
समय आ गया है जब इसके छुपे कारणों को पहचानकार सौन्दर्य और अच्छाई के मानदंड को चमड़ी के रंग से आज़ाद किये जायें | 
नंदिता दास इसे लेकर एक आँदोलन भी चला रही हैं कि चमड़ी का रंग जैसा है उससे वैसा ही प्यार किया जाये |
उनके आन्दोलन का स्लोगन है “ डार्क इस ब्यूटीफुल”
यानी काला खूबसूरत है | 
समय आ गया है जब हम इसकी गहराई को समझे और अपनी सोच बदले ||
||हनुमंत किशोर ||