Wednesday, May 29, 2013

बस्तर के बहाने

        बस्तर के बहाने
****************************
दरभा घाटी में  काँग्रेसी नेताओं के काफिले पर माओवादी हमले ने इन दिनों बस्तर को मीडिया की सुर्ख़ियों में ला दिया है |सतही तौर पर यह कानून व्यवस्था का मामला लगता है लेकिन गहराई में यह सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक न्याय से जुड़ा है |यह संवैधानिक आदर्शो तक पहुँचने में  संवैधानिक संस्थाओ की विफलता से जन्मी हताशा है जिसे चरम पंथियों द्वारा अपने  पक्ष में भुना लिया गया है |
नक्सलबाड़ी  के इतिहास से भी इसकी पुष्टि होती है | जब १९६७ में पश्चिम बंगाल के गाँव नक्सल बाड़ी में आदिवासी किसान बिमल को कोर्ट के आदेश के बाद ना केवल उसकी ज़मीन का दखल दिया गया बल्कि ज़मींदार द्वारा उस पर हमला भी किया गया | इस घटना से  किसानों में जो आक्रोश उपजा उसकी परिणति  सिलीगुड़ी किसान सभा के जंगल संथाल के नेतृत्व में इंस्पेक्टर की तीर कमान से हत्या के रूप में हुई और नक्सल बाड़ी  आंदोलन भड़क उठा ..|
 इतिहास का सबक साफ़ है कि ऐसे चरमपंथी आंदोलनों और घटनाओं से  मुक्ति तभी संभव है जब संवैधानिक संस्थाओं को  सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक न्याय के संवैधानिक आदर्श के अनुरूप  सम्वेदनशील  बनाते हुए विकसित किया जाये |
  अब बात बस्तर की तो छत्तीस गढ़ में तैनाती से  पहले बस्तर  से मेरा भी  परिचय पत्रिकाओं में आदिवासी बालाओं की  तस्वीर और घोटुल की टेक्स्ट बुक वाली सूचना तक ही सीमित था | सन १९९५ में तब छत्तीस गढ़ में नक्सलवाद पनप रहा था | महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश से लगे इलाके में उसकी चेतावनी साफ़ थी | ज़रा सा भीतर पहुँचते ही समझाया जा सकता था  कि  यह राजनैतिक अदूरनदेशी और विकासयोजना से आदिवासी को बाहर रखे जाने का परिणाम है | उन्हें तब भी  हाट में नमक के बदले चिरौंजी बेचते हुए देखा जा सकता था |यह इंडिया के भीतर का वो भारत था जिसे राष्ट्रीय पर्वो में नाचता गाता दिखाया जाता  रहा लेकिन दर हकीकत बदतर और बदहाल बनाये रखा गया |
          रेल इस देश में अंग्रेजों ने कच्चे माल के परिवहन के लिये बिछायी थी यानी अपने मुनाफे के लिये और आजादी के बाद भी  बैलाडीला का लौह अयस्क जापान भेजने के लिये विशाखपत्तनम तक ५०० किलोमीटर लंबी रेल लाइन बिछायी गयी | यानी मनुष्य पर माल को वरीयता गुलाम देश में भी थी और आज़ाद देश में भी | बस्तर सहित पूरे दंतेवाड़ा में कोई उद्योग धंधों नहीं डाला गया लेकिन बस्तर के साथ समूचे  छत्तीस गढ़ की खनिज संपदा को खंखाल कर उसे खोखला करने का उपक्रम यथावत बना रहा | इसी दौर में दंतेवाड़ा के आदिवासियों का अपने जंगल और जमीन से रिश्ता टूटना शुरू हुआ |बड़ी बड़ी मशीनों और प्लांट ने तब कई दर्जन गाँव उजाड़ दिये थे |आज भी इसकी किसी को कोई खबर नहीं है कि उसके उजड़े लोग कहाँ किस हाल में हैं | शंखनी और डाकिनी जैसी निर्मल नदियाँ बीमारी की वाहक बन गयी | विकास के इस बर्बर सौपान की कीमत आदिवासियों ने चुकायी और माल किसी और ने उड़ाया |  इसी दौर में प्रवीर चन्द्र भंजदेव के रूप में पहला प्रतिरोध देखने को मिला जो देश की सम्प्रभुता को सीधी चुनौती था | उससे निपटने के बाद भी सबक नहीं लेते हुये बस्तर के साथ हमारा सलूक वही रहा ...यानी मालिक और रियाया वाला | जाहिर है इसमें फैसले और उसके मुनाफे मालिक और बुरे परिणाम रियाया के हिस्से ही आते रहे | विकास की जो विडम्बना  मैदानों और महानगरों में घटी  उसका भीषणतम रूप बस्तर जैसे आदिवासी इलाके में देखने को मिला | आदिवासियों की भूमि ओने पौने दाम में खरीदकर प्रवासी भूमिस्वामी बन गये | वन विधियों ने भी जंगल के मालिक आदिवासी को उसी के घर में अपराधी बना दिया | एक ओर जहाँ जंगल माफिया सरकारी अमले के साथ गठजोड़ कर जंगल को लूट रहा था वहीँ  आदिवासी अपने निस्तार के लिये भी सरकारी कारिन्दो की दया का पात्र हो गये | जिन्होंने अपनी दया की हर तरह से कीमत वसूल की | और आदिवासियों के शोषण का कुचक्र  चलता रहा |
            इसने हैव्स और हैव्स नाट की खाई को इस इलाके में इतना बड़ा दिया कि आदिवासी आधारभूत सुविधाओं शिक्षा, अस्पताल , पानी  से भी वंचित रहे वहीँ उनकी सम्पदा का दोहन कर दलालो ने स्वर्ग को शर्मिंदा करने वाली चमक दमक हासिल कर ली | शोषण ,दमन और विषमता का मुकाबला करने में जब क़ानून की मशीनरी चूक गयी तभी माओवाद  ने बस्तर में अपनी जगह बनानी शुरू की | जिसमे एक तरफ तो क्रांति का रूमानवाद था ..दूसरी ओर बेरोजगार नौजवानों के लिये एक रोजगार और तीसरी तरफ  सत्ता के सताये आदिवासियों के लिये फौरी राहत | माओवाद के विस्तार में गये बगैर यहाँ इतना समझ लेना ही पर्याप्त है कि इसका होना आदिवासी इलाके में विधि की स्थापित प्रक्रिया और संविधान के नीति निदेशक तत्वों की विफलता में निहित है जो आज भी बदस्तूर जारी है | सलवा जुडूम  जैसे अतिवादी कदमों ने भी  उनकी कार्यवाही को औचित्य प्रदान किया है |आज भी हमारे पास बस्तर जैसे इलाको और आदिवासियों के लिये कारगर नीति  नहीं है ..जो है उसे  भी अमल में लाने वाला प्रशिक्षित अमला  और इच्छा शक्ति  दोनों नहीं है नहीं है |
        पहले की तुलना में बस्तर में आदिवासियों के संकट आज और गहरा हुआ है एक तरफ सरकारी मशीनरी है तो दूसरी तरफ माओवादी | दोनों से उन्हें मुखबिरी का  दंड मिलता है  | दोनों तरफ से सम्पूर्ण समर्पण की माँग है | और बदले में जान जाने का खतरा |  
            यदि संवैधानिक मशीनरी  हालात में बदलाव लाना चाहती है तो इस समय ज़रूरत उसे अपनी  सोच को साफ़ करने की और  कार्य रूप में परिणित करने की है |