Saturday, July 18, 2015

दंगो का सच और भीष्मसाहनी ( bhishm sahani )



दंगो का सच और  भीष्मसाहनी

++++++++++++++++++++++

जीवन और साहित्य एक दूसरे  के पूरक है दोनों एक  दूसरे को रचते है | इसलिए दोनों को एक दूसरे  के माध्यम से समझा  जा सकता है |जीवन की गति यथार्थ से कल्पना की ओर होती है लेकिन साहित्य कल्पना से यथार्थ  की ओर गति करता है | यूं  तो  दोनों  ही  जगह  यथार्थ और कल्पना इस  तरह अंतरगुम्फित है कि उन्हें  अलग अलग करना  कठिन  है | कोई भी रचनाकार कालबद्ध होते  हुए  ही  काल  का  अतिक्रमण  करता  है उसका  काल  उसकी रचनाओं  में आवश्यक रूप  से उपस्थित होता  है | वह अपने समय  से मुक्त  नहीं होता मार्क्स के शब्दों में चेतना  जीवन का  निर्धारण  नहीं  करती अपितु जीवन चेतना   का  निर्धारण  करता  है | एक रचनाकार  के रूप में  भीष्म साहनी  ने अपने  समय  में जो  भोगा और जिया  है, देखा  और  समझा  है   है वही उनकी रचनाओं  में रचनात्मक आवाजाही  करता  है क्योंकि वे  वास्तविकता को गल्प में बदलनेकी कला जानते हैं

 भीष्म साहनी उन थोड़े-से कथाकारों में हैं जिनके माध्यम से हम अपने समय की नब्ज पर भी हाथ रख सकते हैं और उनके समय की छाती पर कान लगाकर उनके समय के दिल की धड़कनें भी साफ-साफ सुन सकते हैं। उनके  पाठ  का  पुनर्पाठ कर हम अपने समय  को डिकोड कर  सकते  हैं | विभाजन , दंगा और साम्प्रदायिक भयावहता  ऐसा  ही  सच  है जिसका  दंश भीष्म  साहनी  के यहाँ शिद्दत से महसूस  किया  जा सकता  है | क्योंकि  इसे अपने  जीवन  में  भी  उन्होंने  भोगा था |

विभाजन की पीड़ा उनकी रचनाओं में - विभिन्न रूपों और विभिन्न आयामों में त्रासदी के रूप में अभिव्यक्तहुई  है । विभाजन की दुखद स्मृतियाँ इस तरह से भीष्म साहनी  की  अन्तश्चेतना का  स्थाई हिस्सा  बन चुकी थी कि उन्हें उनके पात्रो की अन्तश्चेतना में पहचाना  जा  सकता  है | विभाजन के  दुखद संदर्भ उनके  मानस-पटल पर निरंतर छाए रहे इसलिए विभाजन के संदर्भ और घटनाओं  लौट-लौट कर रचनाओं में आते रहे जिनका मार्क्स वादी दृष्टि के साथ वे विवेचन और विश्लेषण करते हुए वे उन्हें मानवीयता और मार्मिकता के साथ रचनात्मक धरातल पर प्रस्तुत करते हैं। रचनाओं में सिर्फ उनकी  स्मृति नही उनकी वैचारिक दृष्टि और संवेदनशीलता का समावेश भी है।

विभाजन के दंश और दंगो के सच को विश्लेषित  करने  के  लिए सबसे पहले उनकी  कहानी  ‘अमृतसर आ गया  है’ का पुनर्पाठ  किया  जा  सकता  है |

'अमृतसर गया है' भारतविभाजन के दौरान ट्रेन की एक उस दौर में साधारण सी लगने वाली घटना को केंद्र में रखकर लिखी गर्इ असाधारण कहानी है। कहानी भारत पाक विभाजन के दौरान विकसित परिवेश और इसके संदर्भो को रेखांकित करती हुर्इ साम्प्रदायिकता के मनोविज्ञान को खोलती है।दंगो की पृष्ठभूमि में अफवाहे किस तरह सेकाम करती है इसे इस कहानी में चीन्हा जा सकता है|
गाड़ी झेलम स्टेशन से निकलकर वजीराबाद से होकर हरबंसपुरा होती हुर्इ अमृतसर पहुँचती है। यह वह समय है जब विभाजन के दौरान हिन्दू-मुसिलम दंगों ने पूरेदेश को अपनी चपेट में ले रखा था |
इसका असर मुसाफिरों के दिलो दिमाग पर इस तरह छाया है कि ट्रेन के भीतर यात्रियों की मानसिकता और व्यवहार , उनकी क्रिया प्रतिक्रिया स्टेशन दर स्टेशन बदलती जाती है |
यहाँ गाड़ी के भीतर ही धर्म के आधार पर एक विभाजन होता दिखायी देता है | पहले यह विभाजन डिब्बे केभीतर तक सीमित रहता है लेकिन जैसे जैसे गाडी आगे बढती है यह समूची ट्रेन में हो जाता है | एक मजहब के लोग एक ही डिब्बे में इकठ्ठा होने लगते है |स्टेशन दर स्टेशन फैलतीअफवाह उनके भीतर खौफ और मजहबी नफरत को मजबूत करती चलती है |

कहानी अपना संकेत ट्रेन के वजीराबाद रेलवे स्टेशन से निकलते ही दे देती है जहां ट्रेन के भीतर पठानोें के दिल में हिंदू मुसिलम दंगों के दौरान फैला ज़हर छिपा हुआ है जिसके कारण वे एक दुबले पतले बाबू का उपहास करते हैं। उसे दाल पीने वाला कहते हैं और हिन्दू औरत की छाती पर लात मारकर भी उन्हें अफ़सोस नहीं तसल्लीहोती है इस दौरान ट्रेन मुस्लिम बहुलक इलाके से गुजर रही होती है |यहाँ साम्प्रदायिकता का एक रंग सामने है ..दूसरा रंग तब सामने आता हाई जब ट्रेन जैसे ही हरबंसपूरा से निकलकर हिन्दू सिख बहुल इलाके यानी अमृतसर की तरफ बढती है.. यात्रियोंकी प्रतिक्रिया बदल जाती है ...
अमृतसर एक दूसरी साम्प्रदायिकता का प्रतीक बन जाता है | जहाँ अब तक चुपचाप बैठा दुबला पतला बाबू सांप्रदायिक उन्माद से ग्रस्त होकर अर्ध विक्षिप्त होकर पठानोें को गालियाँ देता हुआ डिब्बे के दीगर मुसाफिरों को कोसने लगता है कि उन्होंने पठानों को क्यों जाने दिया |
प्रतिहिंसा से पागल यह दुबला पतला आदमी रात के अँधेरे में ट्रेन में चढ़ने की कोशिश कर रहे निरीह मुसाफिर के सर में लोहे की छड़ इस लिए मार देता है कि वो मुसलमान है |
मारने के बाद दुबला पतला युवक अपने हांथो को सूंघता है | यह खून सवार होने की गंध को सूंघना भी है और शायद अपराध बोध के रूप में उसका प्रतिवाद भी |
यहाँ आकर कहानी अंधी प्रतिहिंसा का आख्यान बन जाती है जिसे मनोवैज्ञानिक धरातल पर भीष्म साहनी खोलते चलते है |

सांप्रदायिकता मनुष्यता के विरोध् से ही शुरू होती है। मनुष्य मनुष्य के प्रति विश्वास और प्रेम के स्थान पर अविश्वास और घृणा आ जाती  है । पूर्वाग्रह और अफवाहे इस विरोध् और घृणा के लिए खाद  पानी  का  काम  करते  है । इनके नाम पर ही मनुष्य  समाज को  बांटा  जाता  है | सांप्रदायिक उन्माद बढ़ने पर धर्मिक उत्तेजना बर्बर की स्थितियों को जन्म देती है। जहां हम यथार्थ को समग्रता में न देखकर खंड-खंड में देखना शुरू कर देते  है और खंडित सत्य  को ही सम्पूर्ण यथार्थ सम्पूर्ण  सत्य  मान  लिया  जाता  है | यहाँ आकर मुनुष्य की चेतना भी खंडित  होकर विवेक से नहीं  भ्रम से परिचालित  होती है और अंध हिंसा-प्रतिहिंसा जैसी अविवेकी अमानवीय त्रासदी  जन्म लेती है | ‘अमृतसर आ गया है’ कहानी को इसी अर्थ में देखा और समझा जाना चाहिए।

मनोवैज्ञानिक धरातल से आगे भीष्म साहनी का  उपन्यास ‘तमस’ दंगो के सामाजिक धरातल की तहें  खोलता  है |जहाँ दंगो के समाज शास्त्रके साथ उसके अर्थशास्त्र को  भी समझा  जा  सकता है | एक अर्थ  में तो यह साहित्यिक कृति के साथ इतिहास भी है | ‘तमस में  भीष्म साहनी ने दंगा के कारणों में सामाजिक-आर्थिक कारण को महत्वपूर्ण बताया है। दंगों का कारण धर्म नहीं है बल्कि सत्ता की भूख है | दंगा शुरू हो जाने के बाद उत्तेजित और भ्रमित करने लिए सत्ता षड्यंत्र पूर्वक धर्म को दूसरों के सामने दंगे के कारण के रूप में पेश करती है | यानी दंगा भी हाथी की तरह है जिसके खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग अलग हैं |
तमसका आधार विभाजन के दौरान की कुछ घटनाये है जो भीष्म साहनी का अपना अनुभव भी है | चूकी यह दंगो के पीछे छिपे असली आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक चेहरों को बेनकाब करता है इसलिए तमसके खिलाफ  कुछ साम्प्रदायिक ताकते हमेशा विरोध की मुद्रा में रही हैं | और इतिहास की तरह उन्होंने तमस पर भी हमला करने में चूक नहीं की |
तमसविभाजन के परिदृश्य को बगैर किसी पूर्वाग्रह और पक्षपात के देखता है | बानगी बतौर विभाजन के दौरान राष्ट्रीय कांग्रेस का चरित्र और उसकी समझौतापरस्त नीति | ‘तमसका जनरैल जो सच्चा देशभक्त है जो हिन्दुस्तान की एकता एवं अखंड़ता को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है, कहता है कि कांग्रेस पार्टी समझौता में विश्वास करती है। इस तरह इसमें साम्प्रदायिकता के लिए कांग्रेस को भी उतना ही जिम्मेदार ठहराया गया है जितना साम्प्रदायिक राजनीति को। इतिहास के आईने में भी कांग्रेस इस दौर में साम्प्रदायिकता से संघर्ष नहीं समझौता करने की स्थिति में थी। अंग्रेजी राज को यहाँ साम्प्रदायिक दंगे के अमली उपकरण की तरह चित्रित किया गया है |जाहिर है अंग्रेजी हुकुमत भी अपने सियासी कारणों से ऐसी ताकतों को हवा देती रही थी | उसके अफसर दंगो के दौरान उन्हें और भडकाने की भूमिका में रहते थे | आज़ाद हिदुस्तान में भी नौकरशाही कमोबेश उसी भूमिका में जाती है |
जिसदंगाई अर्थ शास्त्र का हवाला ऊपर दिया गया उसका खुलासा तमसमें तब होता है जब दंगों के दौरान आदमी को कत्ल करने से ज्यादा मकानों को लूटा जाता है। यह सब वैसे लोग करते हैं जिनका एकमात्र उद्येश्य लोगों को लूटना होता है। स्पष्ट है, साम्प्रदायिकता उनके लिए धर्म का नहीं धंधे का सवाल है | यहाँ दंगो के वर्ग चरित्र की भी शिनाख्त की जा सकती है |
नत्थू एक सफाई कर्मचारी हैं. जिसे एक क्षेत्रीय मुस्लिम राजनीतिक नेता द्वारा रिश्वत और धोखा देकर एक सुअर को मरवा दिया जाता है.
अगली सुबह, मृत सुअर को स्थानीय मस्जिद की सीढ़ियों पर पाया जाता है और तनाव फैल जाता है | नाराज मुसलमान हिन्दू और सीखो को मार डालते है और हर इसके जवाबी कार्यवाही मैं मुस्लिम मारे जाते है. और इसके बाद जो दंगे भड़कते हैं उसकी कहानी पांच दिनों तक चलती है |
देखने लायक बात यहाँ यह है कि में मस्जिद के सामने सूअर मरवाकर रखनेवाला कोई हिन्दू नहीं बल्कि वह मुसलमान मुराद अली है।
भीष्म साहनी इसका खाका कुछ यूँ खीचते हैं -
'
सुनते हैं सुअर मारना बड़ा कठिन काम है। हमारे बस का नहीं होगा हुजूर। खाल-बाल उतारने का काम तो कर दें। मारने का काम तो पिगरी वाले ही करते हैं।' पिगरी वालों से करवाना हो तो तुमसे क्यों कहते?'यह काम तुम्ही करोगे।'' और मुराद अली ने पाँच रुपए का चरमराता नोट निकाल कर जेब में से निकाल कर नत्थू के जुड़े हाथों के पीछे उसकपी जेब में ढूँस दिया था।'
नत्थू के हाथ अभी भी बँधे लेकिन चरमराता पाँच का नोट जेब में पड़ जाने से मुँह में से बात निकल नहीं पाती थी।

काला सूअर मस्जिद के सामने मरा पाया जाता है.हवा में ज़हर फ़ैल चूका था.सूअर, गाय और इंसान काटने में कोई फर्क नहीं बचा था ऐसे में हुकूमत बस तमाशा देख रही थी.
दंगो के बाद सद्भाव कमेटी बनती है भीष्म साहनी इसका भी सच उजागर करते है | सद्भाव कमेटी के वाहन में जो कौमी एकता के जिंदाबाद के नारे लाउड स्पीकर पर लगा होता है वह मुराद अलीही होता है |
यानी सत्ता की यही ताकते अपने नफे नुकसान से परिचालित दंगों और उसके बाद के सद्भाव को अंजाम देने वाली है | राजनैतिक-आर्थिक हित ही सद्भाव की जरूरत तय करते है |
तमसदंगों में दौरान आम आदमी की भूमिका की पड़ताल भी दिखती है | यहाँ आम आदमी जो स्थानीय तत्व है चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान अमन पसंद ही हैं एक दूसरे के साथ प्रेम और सौहार्द से जीना चाहते है क्योंकि इसी में उनके हित सुरक्षित हैं लेकिन स्थानीय आबादी से बाहर के तत्व दंगो में अपना हित देखते है और वे ही दंगो में सक्रिय भूमिका निभाते हैं | ‘तमसमें हरनाम सिंह मजे में अपनी दूकान चला रहा होता है | बस्ती वालो को उससे कोई शिकायत नहीं होती उलटे सहानुभूति होती है | बस्ती वाले उससे यही कहते है कि तुम्हें खतरा तभी हो सकता है जब बाहरी लोग यहां आ जाएंगे।
इस तरह तमस’| को डिकोड करके हम गुजरात , महाराष्ट्र , उत्तर प्रदेश और आसाम के हालिया दंगो भी डिकोड कर सकते है |

अपनी परवर्ती रचना मुआवज़ेमें जो एक नाटक है भीष्म साहनी दंगो के एक तीसरे धरातल को उजागर करते है |

यह तीसरा धरातल आजादी के बाद मूल्यहीन विद्रूपताओ से सराबोर है |यहाँ तक  आते  आते पतन मासूम कही जाने वाली जनता को भी अपनी चपेट में  ले  चुका  है और वो भी सत्ता,सियायत ,मजहब और अपराध के नापाक गठजोड़ में शामिल दिखती है | निरंतर छीजती सम्वेदानाओ का चरम यह है कि दंगो के पाप की गंगा में जनता भी डुबकियां लगाकर मुआवज़े का पुण्य बटोरती दिखती है |यह जनता वो जनता नहीं है जिसके लिए भीष्म साहनी पूर्ववर्ती रचनाओं में सम्वेदाना और सहानुभूति दिखाते है | इस नाटक की जनता चतुर चालाक और उच्चतर मूल्यों से दूर तात्कालिक स्वार्थ सिद्धि में संलिप्त एक भीड़ है | गरीब तबके का जीवन मूलभूत सुविधाओं से इतना वंचित है कि वे भी दंगे के भयावह परिणामके बारे में न सोचकर मुआवज़े में सुखमय भविष्य की सम्भावनाढूँढ़ने लगते हैं । एक पिता अपनी बेटी का विवाह दयनीयगरीब दीनू से सिर्फ़ इसलिए करने पर आमादा है ताकि दंगे में दीनू की हत्या के बाद मिलने वाले मुआवज़े से उसकी शादी फिर से किसी सुयोग्य वर से कर सके । | यहाँ तक आकर प्रतिरोध .मानवीय गरिमा , मूल्य प्रतिबद्धता परिवर्तन की उम्मीद सिरे से नदारद हो चुकी है | यह इक्कीसवीं सदी के समाज की तस्वीर है जो लोगों को उत्तरआधुनिक सभ्य सुसंस्कृत कसाईबनाने पर आमादा है । यह एक हताशा की स्थिति है |
मुआवज़ेमें देश के वर्तमान में मसल्स पावर और मोरल पावर का नया विमर्श है जो नये कथ्य और शिल्प के साथ रचा गया है | जिसे जनता का जनता की भाषा में जनता के बीच से उठाया गया कच्चा माल कह सकते है |
मुआवज़ेका कथ्य दंगो के बाद बांटी जाने वाली रेवड़ी जिसे मुआवजा कहते हैं के चौगिर्द घूमता है | यहाँ दंगा पूर्व नियोजित प्रायोजितहै | उसकी भविष्य वाणी पहले ही कर दी जाती है और बाद की राहत और मुआवजे के इंतजाम भी पहले कर लिए जाते हैं | यह दंगा प्राकृतिक नहीं मानवीय आपदा है लेकिन इससे निपटने के तरीके सम्वेदना और मनोवृति प्राकृतिक आपदा की तरह हैं | प्राकृतिक आपदा की तरह है दंगा भी छवि चमकाने और राहत की लूट खसोट में हिस्सेदारी करने का सु अवसर मात्र है | दंगे की लहलहाती फसल काटने पर सभी आमादा हैं क्या नेता क्या अपराधी और क्या जनता |
आग लगाने का काम कुत्ता काम हैऔर कत्ल का काम शाही काम है’-ऐसा कहने वाला अपराधी जग्गा नये अवतार में राजनेता जगन्नाथ चौधरी बन जाता है | जिसके ऊपर देश के खजाने की चौकीदारी का जिम्मा है वही खजाने को लूटता है और लूट का एक हिस्सा जनता में बांटकर महीहा बन जाता है | अब अनैतिकता सिर्फ जगन्नाथ चौधरी तक सीमित नहीं है वह जनता तक जा पहुंची है जो किसी भी तरह से पाप की बहती गंगा में आचमन करना चाहती है |
सबसे बड़ी ताक़त बेईमानी में है’-
‘‘
मुट्ठी गर्म करोगे, काम आगे बढ़ेगा । सदाचार के उपदेश झाड़ोगे, फाइलें वहींकीवहीं पड़ी रहेंगी, उन पर धूल जमती रहेगी ।’’
सुथरा की यह व्यंग्योक्ति ही वर्तमान का सत्य है |
दंगो का एक सत्य यह भी है कि मारे जाने वाले सभी गरीब,वंचित और मजदूर तबके से ही होते है | इसका कारण जग्गा के इस कथन में है
‘‘
हम तो हर कौम के आदमी को मारते हैं, हमारे लिए सब बराबर हैं, जो सामने आ जाये । चुनचुनकर मारना ज़्यादा मुश्किल होता है ।––––तुम्हें कौनसे अमीरजादे और लखपति मरवाने हैं, यही मोचीनाईमजदूर मरवाओगे ।’’
मुआवज़ेके पहले दृश्य में कमिश्नर को टेलीफोन पर निर्देश देते दिखाया गया है । वह कह रहा है कि -अगर हालात इसी तरह बिगड़ते गये तो सोमवार तक दंगा हो जाना चाहिए––––‘अबकी बार दंगा ज़बर्दस्त होगा––––‘उम्मीद है, सोमवार तक दंगा हो जाएगा। उसकी बातों से जाहिर है दंगा कराने की कोई योजना पहले से बना ली गयी है जिसमें मन्त्री, अफसर और गुण्डे शामिल हैं । मुआवज़ेका यही केन्द्रीय तत्व है सेठ को अपनी फैक्टरी से जुड़ी सरकारी जमीन पर कब्जा करना है तो अफसरों तथा गुण्डों से मिलकर हो सकता है । उसे भी पक्का यकीन है कि दंगा होकर रहेगा। गुमाश तो सारा शहर खाली करवा देने का दम भरता है ।
भ्रष्ट और संवेदनहीन शक्तियाँ यहाँ प्रतिनिधि चरित्रों में उपस्थित हैं | यही हमारा आज का और दंगो का यथार्थ है|
 हनुमंत  किशोर