Thursday, May 24, 2012

ambedakar se marxvaad tak


   हमारी मुहिम अंक ४ : अम्बेडकर से मार्क्सवाद तक
           
हनारी मुहिम का चौथा अंक बीच मई में आ सका | इसकी सामग्री के आधार पर इसे अम्बेडकर और मार्क्स की दोधारी कह सकते हैं |
                        इलियट ने अप्रैल को क्रूरतम माह कहा है | हमारी मुहिम के संदर्भ में यह उक्ति चरित्रार्थ है क्योंकि अप्रैल का अंक मई में आ सका | वैसे देरी के प्रति हम भारतियों की सहनशीलता लाज़वाब है | और उस पर तुर्रा यह कि हमने उसे विशिष्टता का लक्षण बना लिया है | आप कहीं समय पर पहुँचे तो समझिए आप दो कोड़ी के सिद्ध हुए | जो काम समय पर हो गया सो काम कैसा? बाजिचाये अत्फाल  यानी बच्चों का खेल हो गया | जैसा ग़ालिब कह गये हैं |
                           तथापि अप्रैल की  हमारी मुहिम देरी के अलावा भी महत्वपूर्ण है | अपनी सामग्री और उस बहस के लिये जो हमारे समय का ज़रूरी हिस्सा है |
              अप्रैल का अंक होने से विमर्श लेख अम्बेडकर का महत्व बाबा साहेब अम्बेडकर पर केंद्रित हैं | जिसे ईश्वर सिंह दोस्त ने अपनी धार दी है | अम्बेडकर का महत्व  सरकारी योजनाओं और नौकरियों में आरक्षण पाने से बहुत आगे है | यह बात  आज अम्बेडकरवादियों और विकल्प की राजनीति करने वाले बुद्धिजीवियों  को  समझनी चाहिए | ईश्वर सिह दोस्त  उचित ही कहते हैं पूंजीवाद के विकल्प की राजनीति करनेवालों के लिए अम्बेडकर के विचारों को पढ़ना , उसका सामना करना तथा  मार्क्स और अम्बेडकर को एक दूसरे की रोशनी में देखना बहुत ज़रूरी है |
                          इसमे कोई शक नहीं कि अम्बेडकर को या तो अवतार बनाकर मूर्ति पूजा का अंग बना दिया गया  या कट्टर मार्क्सवादी तराजू में तौलकर  बाहर कर दिया गया | अम्बेडकर के चिंतन ,लेखन में व्याप्त एतिहासिक संदर्भों , जाति की यातनाओं  और तत्कालीन राजनीति के अंतर्विरोधों को समझ कर  बाबा साहेब अम्बेडकर  की विचारधारा को परिवर्तन और प्रगति का संवाहक बनाना समकालीन चुनौती भी है | किन्तु तब अम्बेडकरवाद को आलोचना की कसोटी पर भी रखना होगा और यह  तभी संभव है जब  बाबा साहेब के समर्थक सहिष्णु होकर असहमतियों का सम्मान करें | बाबासाहब स्वयं राजनीति में  असहमति के तरफदार थे | संसद में बहस के दौरान कहा गया उनका यह कथन लोकतंत्र का महा मन्त्र है कि धर्म में भक्ति आत्म मोक्ष का साधन हो सकती है किन्तु राजनीति में व्यक्ति पूजा  पतन और तानाशाही का ही मार्ग प्रशस्त करेगी  | लेकिन दलित चूँकि सदियों से अपमान और हीनता का विषय बनाया गया है अतः गैर दलितों से भी  उसके यह अपेक्षा की जाना उचित हहोगी कि वे दलितों के मनोविज्ञान को समझकर  असहमति या आलोचना को इस तरीके से रखेंगें कि वह कि वह मात्र  प्रतिक्रियात्मक या बदले की भावना से परिचालित न दिखाई दे  |
                            इसी समझदारी के  अभाव की छाप  n. c. r. t. की  पुस्तक में छपे  कार्टून पर हाल ही में मचे बवाल पर दिखाई देती है | हमारे देश में शायद सबसे ज्यादा कार्टून  बापू पर बने होंगे | यह अभिव्यक्ति की  उस आज़ादी का अंग है जिसके लिए बापू और  देश ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी और बाबा साहेब ने संविधान में जिसे मूल अधिकार के तहत सुरक्षित किया |
                      कथित कार्टून शंकर्स वीकली में कोई ६५ साल पहले तब छपा था जब संविधान प्रारूप समिति के काम में देरी की  जोरदार आलोचना नेहरु खेमा कर रहा था | विषयान्तर न हो  इसलिए यह बहस यहाँ न करना ही उचित होगी |
                           हीरा  डोम की भोजपुरी कविता हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी को भी इसी विमर्श से जोड़कर हमारी मुहिम में धरोहर के रूप में  स्थान दिया गया है | हीरा डोम हिंदी में उसी परम्परा और धारा को आगे लाते हैं जिसे १९ वी सदी में मराठी में  महात्मा ज्योतिबा फुले लेकर आये थे | अम्बेडकर को बाबासाहेब बनाने में अर्थात उनकी वैचारकी के निर्माण में  महात्मा फुले का मुख्य योगदान है | महात्मा पुले का कर्म और विचार समूचे दलित साहित्य और आंदोलन का  दिशा निर्धारक है | हीरा डोम की कविताओं में उनकी छाप साफ़ नज़र आती है | हीरादोम के माध्यम से तब  हिंदी पट्टी के अस्पृश्य समाज की यातनाओं  का परिचय हुआ था | अछूत की शिकायत जैसी उनकी कविताओं ने तब सोये  समाज की नींद को तोडने जैसा काम  किया था | हमारी मुहिम के इस अंक में छपी उनकी कविता का असर भी यही है |
                            समाज में किसी वक्त दलितों के साथ एक और बड़े तबके यानी मज़दूर वर्ग की शिकायत भी अनसुनी रह जाती थी |  १९ वी  सदी के मध्य और उतरार्ध जब हिंदुस्तान में महात्मा फुले अछूतों की आवाज़ उठा रहे थे उसी वक्त दुनिया के मजदूर अपने शोषण के खिलाफ  मार्क्सवाद की रौशनी में गोलबंद हो रहे थे | इसी का परिणाम था  मई १८८६  में  मजदूरों के शिकागो हड़ताल और मजदूरों की शहादत | जिसकी याद में दुनिया भर में १ मई मजदूर दिवस के रूप में  मनाया जाता है |
                         हमारी मुहिम के ४ अंक में मई दिवस पर विशेष सामग्री के तहत  अजित वर्मा और अनिल राजिमवाले के आलेख हैं |
                                    मई दिवस के परिप्रेक्ष्य में आज  इस बात पर विचार और व्यवहार की ज़रूरत है कि मेहनतकश का असंघटित तबका इस चेतना का लाभ कैसे पायेगा ? विडम्बना ही कही जायेगी कि सरकारी और अर्ध सरकारी या निजी क्षेत्र के उपक्रमों में काम करने वाला मजदूर  सभी तरह के कानूनों का लाभ लेकर अपनी हालत सुधार कर एक पेटी बुर्जुआ जैसी स्थिति पा लेता है और फिर फेक्टरी का  वही  मजदूर दिहाड़ी या रेहड़ी वाले या घरेलू नौकरों के साथ मालिक वाली अकड़ और चालाकी  से पेश आने लगता है | तब मेहनतकश की एकता और सामूहिक संघर्ष सिरे से गायब नज़र आती  है |
                          असल में आज भी मेहनतकश का सबसे बड़ा तबका दिहाड़ी वालों , रेहड़ीवालों , खोमचेवालों, रिक्शेवालों, घरेलूनौकरों और खेतिहर मजदूरों का है | अव्वल तो इस तबके के लिए आज भी सक्षम क़ानून नहीं है और जो है भी जानकारी और संगठन के अभाव उसे लागू करवाने की  ताकत इस वर्ग की नहीं है | वहीँ दूसरी और पढ़े लिखे और संपन्न लोगो का एक ऐसा वर्ग भी है जिसकी माली हालात  मालिकों जैसी न भी हो तो उनसे कम नहीं है किन्तु जो मज़दूरों के लिए बने क़ानून का पूरा फायदा उठा रहा है | उदाहरण के लिए विमानों के पायलेट | जिनकी तनख्वाह और भत्ते राष्ट्रपति  जैसे हैं और  वे वर्कमेन कम्पनसेशन एक्ट के तहत लाभ भी उठा रहे हैं | यहाँ पीड़ा यह नहीं है कि वे क्यों? बल्कि यह है कि दूसरे ज़रूरतमंद  और हक़दार  उससे वंचित क्यों और कैसे हैं ? मई दिवस जैसे मौकों पर इसका विचार ज़रूरी है |  
                    क्या हम अपने घरों में काम करने वाले घरेलू नौकर और नौकरानियों से इसकी शुरुआत करेंगें ?उन्हें संगठित और जागरूक होने देंगे? यक्ष प्रश्न यही है |
             अंत में बात अंक के कवर पेज की |
                   कवर पेज पर फैज़ का मेहनत कश का तराना है |  मई दिवस के स्मरण में यह तराना खूब प्रासंगिक है  | कभी ये तराना नौज़वानो की मंडलियों द्वारा चौराहों और समारोहों में ताली के ताल पर खूब गाया गया है | अब वो बात नहीं रही पर तराना और उसे गाये जाने की ज़रूरत पहले से भी ज्यादा है |  
               और यह खतरा भी कि माँगने के जुर्म में लाठी  और गोली मिले |
              अंदर कवर पेज पर  कुमार अम्बुज की कविता खाना बनाती स्त्रियाँ   है |
            पश्चिम में स्त्री अधिकारवादियों ने गृहणी को मज़दूर की हैसियत में होने से, उसे उसी तरह  से प्रतिकर दिए जाने की लड़ाई लड़ी है |उसके काम के घंटों का तथा  माँ , पत्नी,  बेटी के रूप में उसके कामों का आर्थिक हिसाब लगाकर , पुरुषों और कानून से वैसा हिसाब भी माँगा गया |  
                            हिन्दुस्तानी समाज में गृहणी मज़दूर से भी गयी गुज़री दशा में है बल्कि  यों कहें कि  उस बंधुआ मज़दूर की तरह है जिसकी गुलामी ज़िन्दगी भर की है| किन्तु फिर भी क्रांतिकारी  स्त्रीवादी नज़रिये से उसे ना तो मज़दूर कहा जाना चाहिए और ना ही मज़दूरों की तरह मुआवजा उसकी परेशानियों और मुश्किलों का हल है | माँ और पत्नी के रूप में उसके कार्यों और प्रेम का उत्पादन के संबंधों जैसा कोई मूल्यांकन स्त्री का अपमान ही है | उसे मज़दूर की तरह से देखने का परिणाम परिवार के अस्तित्व के  लिए गम्भीर संकट हो सकता है | निश्चित ही इस संकट के लिए उसे अकेले ही ज़वाबदेह ठहराना  घोर पुरुषवादी छल है | परिवार में स्त्री और पुरुष की भूमिका बगैर लिंग आधारित विशेषाधिकार और पूर्वाग्रह के निर्धारित की जानी चाहिए | हर परिवार में परिस्थितियों के हिसाब से यह बदली हुई होगी और इसका कोई बना बनाया फार्मूला नहीं है और ना होना चाहिए |
                              समय आ गया है कि  पुरुषों  को अपनी  सुविधा जनक भूमिकाओं से निकलकर रसोई और घरेलू कामों की असुविधाजनक भूमिकाओं में भी आना होगा | भविष्य के  सुखी समाज की बुनियाद इसी पर निर्भर करेगी | और यह तभी सम्भव  है जब परिवार में स्त्री के कार्य एवं भूमिका को सम्मान और श्रेय मिले | उनके दर्द को सम्वेदना से अनुभव किया जाये | बदलाव की यह पुरोभाव्य शर्त है |
                 कुमार अंबुज की कविता खाना बनाती स्त्री   हमें स्त्री की उसी दशा और सम्वेदना के धरातल पर ले जाती है | पिछले दिनों जब हरिओम राजोरिया ने इसे फेस बुक पर लोगों के साथ बाँटा तो कईयों ने गहरी टिप्पणियाँ की | शरद कोकास ने कहा कि वे अपनी रसोई में इसका सामूहिक पाठ करते थे |  
                        वैसे यह कविता  दर्द और संवेदना से इतनी पगी है कि संवेदनशील पाठक को रसोई की ओट में गुम स्त्री के प्रति सोचने और अनुभव करने के लिए  न केवल विवश करती है बल्कि अपनी भूमिका को नये सिरे से तय करने और बदलने के लिए प्रेरित भी करती है | 
               हमारी मुहिम  भी यही है |