Monday, October 8, 2012

मंहगाई के सवाल पर ढोंग की राजनीति.....


मंहगाई के सवाल पर ढोंग की राजनीति.....
-----------------------------------जयराम शुक्ल ( पूर्व अनुमति से साभार)
महंगाई के अर्थशास्त्र पर इन दिनों बौद्धिकों की बहस चल रही है। ये जीडीपी, रेपोरेट, रिवर्सरेपो, ग्रोथरेट, सेंसेक्स, तेजड़िया, मंदड़िया जैसे जुमले अपन के पल्ले नहीं पड़ते। रुपए का टूटना, डॉलर का मजबूत होना, वायदा कारोबार, सट्टा बाजार के बारे में अपन क ख ग भी नहीं जानते। देश में अपन जैसे करोड़ों-करोड़ लोग ऐसे होंगे जो सत्ता के अर्थशास्त्र के मामले में निरक्षर हैं। फिर भी चाहे अखबारों के पन्ने पलटो या टीवी चैनल बदलो चारों तरफ हमारे अर्थशास्त्री कांव-कांव करते नजर आते हैं। कोई केलकर कमेटी की सिफारिश का हवाला देता है, तो कोई महेश रंगराजन के तर्को की बात करता है। देश को दो अर्थशास्त्री हांक रहे हैं। दोनों कहीं न कहीं और कैसे भी इन्टरनेशन मानिटरी फंड (आईएमएफ) या वर्ल्ड बैंक से जुड़े रहे हैं। अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और योजना आयोग के उपाध्यक्ष सरदार मोन्टेक सिंह अहलूवालिया।
अर्थशास्त्र के बारे में इनकी विद्वता वैश्विक है। अमेरिका सैन्य शास्त्र की पाठशाला के साथ अर्थशास्त्र की पाठशाला भी चलाता है। सरकारें अपने मंत्रियों व नौकरशाहों को इन्हीं पाठशालाओं में दीक्षित होने भेजती हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे डॉ. मनमोहन सिंह अमेरिका द्वारा पोषित और निर्देशित वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ में अपने देश का सालों-साल प्रतिनिधित्व किया। कुल मिलाकर यही योग्यता थी कि जब नब्बे में नरसिंहराव की सरकार बनी तो बिना किसी सदन के सदस्य रहते हुए भी उन्हें वित्तमंत्री बनाना पड़ा था।
1992 में जब सारा देश "अंग्रजों भारत छोड़ो" के क्रांतिकारी ऐलान की स्वर्ण जयंती मना रहा था तब मनमोहन सिंह बतौर वित्तमंत्री "अंग्रेजों भारत आओ" की अर्थनीति का ताना-बाना बुन रहे थे। अर्थनीत का ग्लोबलाइजेशन (मेरे एक मित्र इसे अक्सर गोबराइजेशन कह दिया करते हैं) शुरू हुआ। बाजार के लौह कपाट ईस्ट इण्डिया कम्पनी की वंशज कंपनियों के लिए खोल दिए गए। हर क्षेत्र में धड़ाधड़ पूंजी निवेश होने लगा, बाजार में चमक आ गई। गांधीजी के वंशजों की सरकार ने अपनी पीठ ठोंकी और कहा हमने डूबते हुए देश को बचा लिया। विपक्ष में बैठी भाजपा ने भी वाह-वाह कहा। सरकार ने इसके एवज में बाबरी विध्वंस का नजराना दिया। प्रधानमंत्री नरसिंहरावजी स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ के बाद मौनी बाबा बन गए। कृतज्ञ भाजपा के बड़े नेता राव सरकार के ब्रान्ड एमबेसडर बनकर अमेरिका और यूरोपियन कम्युनिटी के देशों की सैर पर निकल पड़े! यह किस्सा कोई मैं अपने से रचकर नहीं सुना रहा हूं। गुजराल सरकार के पतन के बाद फुरसत हुए जार्ज फर्नाडीस से एक लंबा इन्टरव्यू करने का मौका मिला था। यह तब के प्रमुख दैनिक देशबन्धु में छपा भी। जार्ज साहब ने विदेशी अखबारों में छपे बयानों का हवाला देते हुए बताया था कि भाजपा के नेताओं ने विदेशी निवेशकों को भरोसा दिलाया कि प्रमुख विपक्ष होने के नाते भारत में राजनीतिक स्थिरता को वे गारंटी देते हैं।
बहरहाल, एनडीए के संयोजक बनने व वाजपेई सरकार में बतौर रक्षामंत्री शामिल होने के बाद, मैंने उनके छपे हुए इंटरव्यू की कतरन के साथ एक पत्र भेजा तो मुझे जवाब के नाम पर सिर्फ पावती मिली। खैर जहां तक अर्थनीति की मेरी जितनी सतही समझ है उसके मुताबिक एनडीए सरकार का चरमोत्कर्ष "इण्डिया शाइनिंग" के साथ हुआ, इसके बाद ये "शाइनिंग" भाजपा के लिए सिंक्रिंग साबित हुआ। इस सच्ची-झूठी (जैसा आप मानें) किस्सागोई का लब्बो-लुवाब सिर्फ इतना है कि देश की अर्थव्यवस्था व अर्थनीति को लेकर कांग्रेस व भाजपा के नजरिए में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। इसीलिए जब भाजपा वाले महंगाई को लेकर हाय-हाय करते हैं तो मुझे यह निरा ढोंग लगता है। एफडीआई की वैचारिक बुनियाद एनडीए ने ही रखी थी, कांग्रेस ने तो बस नस्ती को निर्णय की टेबिल तक पहुंचा दिया। ये वही भाजपा और उसके संगी दल हैं जिनकी सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने के लिए विनिवेश मंत्रालय तक गठित कर दिया।
लौटते हैं महंगाई के अर्थशास्त्र की ओर। गांधी के वंशजों ने जिस तरह उनके ग्राम स्वराज्य की अवधारणा को ठिकाने लगाया, उसी तरह लोहिया के अनुयायियों ने सत्ता में आने के बाद उनके विचारों के साथ व्यभिचार किया। डॉ. राममनोहर लोहिया ने "लागत तय करो, दाम बांधो" के नारे के साथ आंदोलन छेड़ा था। महंगाई पर लगाम लगाने का यह सरल सूत्र, अर्थशास्त्रियों की समझ में आए या न आए पर मेरे जैसे मंदबुद्धि के सीधे समझ में आता है और अपनी जमात के करोड़ों लोगों की समझ में आएगा ऐसा मैं मानता हूं। अपने इलाके में कई सीमेंट कारखाने हैं। इनका ही एक उदाहरण लें। एक बोरी सीमेंट बाजार में 280 से 300 रुपए के बीच बिकती है। सीमेंट इन्डस्ट्री के एक जानकार के अनुसार एक बोरी सीमेंट में मुश्किल से 20 से 30 रुपए का कच्चा माल लगता है। मशीनरी, बिजली-कोयले का खर्च, मानव संसाधन सबको जोड़ दें तो इतना ही और बैठता है, यानी कि अधिकतम 60 रुपए। अब विपणन और विज्ञापन के 20 रुपए और जोड़ दिए जाएं तो कुल कीमत पहुंचती है 80 रुपए, अधिकतम लेकर चलें तो 100 रुपए। लेकिन इसकी कीमत है 280 रुपए यानी कि दोगुने से ज्यादा का मुनाफा। बाजार में 90 फीसदी ऐसी वस्तुएं हैं जिनके दाम लागत से तीन गुना और चार गुना तक हैं। पेप्सी-कोक और अंकल चिप्स के मामलों में तो कई सौ गुना। 5 रुपए किलो के आलू की 50 ग्राम चिप्स की कीमत 20 रुपए। बड़े मॉल और रेस्तराओं में बोतलबंद पानी 45 से 50 रुपए में (मैनें दिल्ली के अपोलो हॉस्पिटल की कैन्टीन से मजबूरी में इतने में ही खरीदा था) किसानों से खरीदा जाने वाला 12 रुपए किलो का गेहूं आटा बनने और पैक होकर बाजार में पहुंचने पर 25 रुपए का हो जाता है। 13 रुपए के मुनाफे का खेल कौन खेलता है क्या सरकारें नहीं जानती? क्या-गांधी, लोहिया और अन्त्योदय का उद्घोष करने वाले पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के वंशजों की सरकारों को महंगाई पर लगाम कसने का यह सरल सूत्र समझ में नहीं आता।
कम से कम मुलायम और नीतीश अपने राज्यों में इसकी शुरुआत कर सकते हैं। क्योंकि सार्वजनिक मंचों पर लोहियाजी ही इनके "सिरे आते" हैं। पर पिछले पांच सालों से बढ़ रही कमर तोड़ महंगाई के दौर में मैंने न किसी अखबार में ऐसा पढ़ा और न ही चैनलों में देखा कि कोई अर्थशास्त्री या कोई नेता लागत तय करो और दाम बांधो की बात कर रहा है। लेकिन अब वक्त का तकाजा है कि सरकारों को हम इसके लिए मजबूर करें, या फिर निकल पड़े पीवी राजगोपाल के "जनकारवां" की भांति सत्ता के साकेत में बैठे मदांध नेताओं को झकझोरने।
जयराम शुक्ल
लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं.