अग्निपथ: संघर्ष और सन्देश
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'अग्निपथ' राम नारायण सिंह 'राना' की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है | यह एक इन्द्रधनुष है जिसे उन्होंने अपनी अर्ध शती विस्तारित रचना संसार से विविध रंग चुनकर तैयार किया है |जिसकी छटा का एक छोर प्रणय कामी रोमांटिक कविताओं का है तो दूसरे छोर पर मुक्ति कामी जनवादी कवितायें है | एक तरह से 'अग्निपथ ' कविता में कबीर के वंशज का सप्तम सोपान है |
राना उन कवियों में से हैं जिनकी कविता पुस्तको की पाठशाला से नहीं बल्कि जीवन की पाठशाला से अपना कच्चा माल लेती है और विचार की ऊष्मा में पकती है | ये अनुभव और संघर्ष से तपी हुई बिम्ब माला है | जिसका ओर छोर सपूर्ण जन जीवन और जगत है | वे स्थानिक होकर भी सार्वदेशिक हो जाते हैं |'गुरुदेव' की तरह एकदम 'विश्व मानव ' जब अपनी कविता में ' सम्पूर्ण विश्व मेरा घर ....लिखता हूँ जन जन के स्वर में गाता हूँ |'
कविता उनका शौक नही कर्म है ..मिशन है | जिसमे खेतिहर किसान हल उनकी लेखनी है | और इसे वे ही इतने आत्म विश्वास से कह सकते थे क्योंकि कविता के साथ किसानी भी उनका कर्म रहा है |और कविता भी वे किसानी की तरह ही करते हैं यानी पहले अनुभव् की परती ज़मीन को तोड़ना फिर विचार की खरपत वार हटाना और तब जाकर शब्द और विम्ब के बीजों की छिटाई |
वे कविता के किसान हैं ...भाषा ,विचार बोध सभी स्तरों पर और उनकी कविता जिसे सम्बोधित है वह वर्ग भी श्रमिक है, खेतिहर है |उसे सम्बोधित करते हुये वे विप्लव की ध्वजा सदा उठाये रहते है |उन्हें तब इसकी परवाह भी नहीं होती कि उनकी भाषा शिष्टता की खोल उतारकर समीक्षकों की राय में भदेस हो रही है...
" विलासी मंदिरों के गर्भ गृह से
सामन्तो ,सेठो की मनसद ,कोठियों तक
जिनके कूल्हों पर चर्बी चढ़ी है
और तोंदे ढोलक सी मढ़ी हैं
वे खाये पिये फूले पेट यही राग गाते हैं
हम दलित सर्वहारा को चूतिया बनाते है |"
डोमन ,कुंजडिन,बेड़न..उनकी कविता में अपनी समूची वेदना ,विडम्बना , विद्रूपता के साथ आवाजाही करते हैं जहाँ उनकी जात से बाहर का आदमी उनसे आदमी होने की तमीज के साथ पेश नहीं आता ...
"साली अब हुयी ना सीधी**
***चूतड़ में लात पाये बिना
सीधे नहीं होते ये ***"
सभ्यता और व्यवस्था के लिये इससे बड़ी गाली क्या होगी जब बेड़न सिर्फ इस बात के लिये चिरौरी करती है कि उसे नंगा ना नचाया जाये |
यही वो जगह है जहाँ आकर अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा के लिए ज़रूरी होने पर वे 'दलित पेंथर' बनने से भी गुरेज नहीं करते ..
"सदियों से तुम आदमखोर भेडिये हो ..
तुम्हारे दांत -दाढो , नाखून -पंजो में
हमारा मांस - गोश्त ..
गाँव गली से सड़को चौराहों तक
फैला है हमारा खून
हम ..
हब्सी ,नीग्रो,काले -सांवले शूद्र
दलित पैंथर ना बनें तो क्या करें ?"
'राना' मुक्ति के इस संग्राम के लाल रंग की शिनाख्त मार्टिन लूथर किंग और बेंजामिन मोलाइसे की शहादत में भी करते हैं | मुक्ति संग्राम का यह वही भाईचारा है जो पीड़ित मनुष्यता को जोड़ता है और उसकी विजय के लिए एक साझा मोर्चा बनाता है |
" एक नहीं लाखों बेंजामिन
एक नहीं लाखो मडेला ***
*** जारी यह संघर्ष रहेगा
हमें गर्व काले होने का
आज़ादी का यह सूर्य उगेगा |"
राना का कवि कर्म जैसे जैसे प्रोढ़ होता है वे वर्तमान की व्याख्या के लिए इतिहास को उपकरण बनाते हैं | मिथकों से आधुनिक संदर्भो को विश्लेषित करते हैं 'अंगूठा एकलव्य का ' और युद्ध के विरुद्ध में इसे सहज लक्षित किया जा सकता है ..
**हाय यह क्या हुआ ?
रक्त श्रेष्ठता के दंश ने
देश को डस लिया
द्वापर कलंकित हुआ
त्रेता का प्रेत द्वापर पर बैठा
** स्त्री शूद्रो ना धीयताम**
क्या मिला हाय !
गुरु द्रोणाचार्य को ?
सिवाय रक्त दर्प के **
***जब छूना ही पाप था
उस अछूत शूद्र का
तब क्या हुआ हश्र
रक्त रंजित उस मांस पिंड का
अंगूठा एकलव्य का
वह भी दायें हाथ का ही
आया किस काम ?"
एकलव्य का कटा हुआ अंगूठा आज भी समय की हथेली पर प्रश्नचिंह सा पड़ा है | व्यवस्था के पैरोकारो को आज भी उससे आँखे चुराते देखा जा सकता है |
'राना' की काव्य चेतना की दो मूल धुरी है पहली दलित चेतना जिसका हवाला ऊपर मिलता है और दूसरी स्त्री चेतना | स्त्री के प्रश्न पर वे मातृ सत्ता को पितृ सत्ता के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते है
**मात्र मातृ-सत्ता ही
मूल है सृष्टि की
** नाशेगी तुम्हारे स्वामित्व को |"
उनके यहाँ स्त्री का कारुणिक रूप 'जन वाणी सीता ' में विद्रोही स्वर 'द्रोपदी' में सुनायी पड़ता है
**पर हाय! आज नारी , जो मूल
सृष्टि सत्ता की क्या गति है ?
और पुरुष का अहंकार
कितना ढोंगी कितना बर्बर
नारी के प्रति शंकालु
अद्विजो के प्रति अनुदार
** शिव नहीं वाशिष्ठी
क्रूर व्यवस्था के चलते
अच्छा आया है राम राज्य
जिसको जो चाहे वह दंड दे
शोषित शूद्रो को शिरच्छेद
नारी को निष्कासन दे दे |"
'राना ' आम्रपाली, यशोधरा , उर्वशी जैसे पात्रो को भी वे अपनी स्त्री चेतना का आलम्बन बनाते हैं |लेकिन दलित स्वर की तुलना में स्त्री का स्वर उष्ण कम आद्र अधिक है |
रचनात्मकता का एक क्षेत्र ऐसा भी है जहाँ 'राना' के विचार और कविता में उजास तो दीखता है कितु उसमे आंच मंद होने लगती है | मानो यहाँ बोद्ध दर्शन और बुद्ध की करुणा उन्हें संयत और शांत कर देती है |
यहाँ उनकी कविता 'लाईट आफ एशिया ' की तर्ज़ पर बुद्ध वाणी बन जाती है ..
**पा तुमही से प्रेरणा
विकसित हुई पुलकित हुई
**हिंसा द्वेष से पा त्राण
ओ कला के प्राण ..|"
राना की कविता एक सैद्धांतिकी पर खड़ी है कीन्तु यह विचार की सैद्धांतिकी है सौंदर्य शास्त्र की नहीं |यहाँ संघर्ष और उसमे निहित सन्देश कलात्मक नहीं है अपितु सादगी भरा है |सहज और सीधा सीधा है | किसान मजूर की बोली बानी सा बगैर लाग लपेट | लेकिन फिर भी अकाव्यात्मक नहीं है |उनकी कविताई कबीर की सी है | खरी खरी अपने समूचे दूला दुच्चा के साथ |
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'अग्निपथ' राम नारायण सिंह 'राना' की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है | यह एक इन्द्रधनुष है जिसे उन्होंने अपनी अर्ध शती विस्तारित रचना संसार से विविध रंग चुनकर तैयार किया है |जिसकी छटा का एक छोर प्रणय कामी रोमांटिक कविताओं का है तो दूसरे छोर पर मुक्ति कामी जनवादी कवितायें है | एक तरह से 'अग्निपथ ' कविता में कबीर के वंशज का सप्तम सोपान है |
राना उन कवियों में से हैं जिनकी कविता पुस्तको की पाठशाला से नहीं बल्कि जीवन की पाठशाला से अपना कच्चा माल लेती है और विचार की ऊष्मा में पकती है | ये अनुभव और संघर्ष से तपी हुई बिम्ब माला है | जिसका ओर छोर सपूर्ण जन जीवन और जगत है | वे स्थानिक होकर भी सार्वदेशिक हो जाते हैं |'गुरुदेव' की तरह एकदम 'विश्व मानव ' जब अपनी कविता में ' सम्पूर्ण विश्व मेरा घर ....लिखता हूँ जन जन के स्वर में गाता हूँ |'
कविता उनका शौक नही कर्म है ..मिशन है | जिसमे खेतिहर किसान हल उनकी लेखनी है | और इसे वे ही इतने आत्म विश्वास से कह सकते थे क्योंकि कविता के साथ किसानी भी उनका कर्म रहा है |और कविता भी वे किसानी की तरह ही करते हैं यानी पहले अनुभव् की परती ज़मीन को तोड़ना फिर विचार की खरपत वार हटाना और तब जाकर शब्द और विम्ब के बीजों की छिटाई |
वे कविता के किसान हैं ...भाषा ,विचार बोध सभी स्तरों पर और उनकी कविता जिसे सम्बोधित है वह वर्ग भी श्रमिक है, खेतिहर है |उसे सम्बोधित करते हुये वे विप्लव की ध्वजा सदा उठाये रहते है |उन्हें तब इसकी परवाह भी नहीं होती कि उनकी भाषा शिष्टता की खोल उतारकर समीक्षकों की राय में भदेस हो रही है...
" विलासी मंदिरों के गर्भ गृह से
सामन्तो ,सेठो की मनसद ,कोठियों तक
जिनके कूल्हों पर चर्बी चढ़ी है
और तोंदे ढोलक सी मढ़ी हैं
वे खाये पिये फूले पेट यही राग गाते हैं
हम दलित सर्वहारा को चूतिया बनाते है |"
डोमन ,कुंजडिन,बेड़न..उनकी कविता में अपनी समूची वेदना ,विडम्बना , विद्रूपता के साथ आवाजाही करते हैं जहाँ उनकी जात से बाहर का आदमी उनसे आदमी होने की तमीज के साथ पेश नहीं आता ...
"साली अब हुयी ना सीधी**
***चूतड़ में लात पाये बिना
सीधे नहीं होते ये ***"
सभ्यता और व्यवस्था के लिये इससे बड़ी गाली क्या होगी जब बेड़न सिर्फ इस बात के लिये चिरौरी करती है कि उसे नंगा ना नचाया जाये |
यही वो जगह है जहाँ आकर अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा के लिए ज़रूरी होने पर वे 'दलित पेंथर' बनने से भी गुरेज नहीं करते ..
"सदियों से तुम आदमखोर भेडिये हो ..
तुम्हारे दांत -दाढो , नाखून -पंजो में
हमारा मांस - गोश्त ..
गाँव गली से सड़को चौराहों तक
फैला है हमारा खून
हम ..
हब्सी ,नीग्रो,काले -सांवले शूद्र
दलित पैंथर ना बनें तो क्या करें ?"
'राना' मुक्ति के इस संग्राम के लाल रंग की शिनाख्त मार्टिन लूथर किंग और बेंजामिन मोलाइसे की शहादत में भी करते हैं | मुक्ति संग्राम का यह वही भाईचारा है जो पीड़ित मनुष्यता को जोड़ता है और उसकी विजय के लिए एक साझा मोर्चा बनाता है |
" एक नहीं लाखों बेंजामिन
एक नहीं लाखो मडेला ***
*** जारी यह संघर्ष रहेगा
हमें गर्व काले होने का
आज़ादी का यह सूर्य उगेगा |"
राना का कवि कर्म जैसे जैसे प्रोढ़ होता है वे वर्तमान की व्याख्या के लिए इतिहास को उपकरण बनाते हैं | मिथकों से आधुनिक संदर्भो को विश्लेषित करते हैं 'अंगूठा एकलव्य का ' और युद्ध के विरुद्ध में इसे सहज लक्षित किया जा सकता है ..
**हाय यह क्या हुआ ?
रक्त श्रेष्ठता के दंश ने
देश को डस लिया
द्वापर कलंकित हुआ
त्रेता का प्रेत द्वापर पर बैठा
** स्त्री शूद्रो ना धीयताम**
क्या मिला हाय !
गुरु द्रोणाचार्य को ?
सिवाय रक्त दर्प के **
***जब छूना ही पाप था
उस अछूत शूद्र का
तब क्या हुआ हश्र
रक्त रंजित उस मांस पिंड का
अंगूठा एकलव्य का
वह भी दायें हाथ का ही
आया किस काम ?"
एकलव्य का कटा हुआ अंगूठा आज भी समय की हथेली पर प्रश्नचिंह सा पड़ा है | व्यवस्था के पैरोकारो को आज भी उससे आँखे चुराते देखा जा सकता है |
'राना' की काव्य चेतना की दो मूल धुरी है पहली दलित चेतना जिसका हवाला ऊपर मिलता है और दूसरी स्त्री चेतना | स्त्री के प्रश्न पर वे मातृ सत्ता को पितृ सत्ता के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करते है
**मात्र मातृ-सत्ता ही
मूल है सृष्टि की
** नाशेगी तुम्हारे स्वामित्व को |"
उनके यहाँ स्त्री का कारुणिक रूप 'जन वाणी सीता ' में विद्रोही स्वर 'द्रोपदी' में सुनायी पड़ता है
**पर हाय! आज नारी , जो मूल
सृष्टि सत्ता की क्या गति है ?
और पुरुष का अहंकार
कितना ढोंगी कितना बर्बर
नारी के प्रति शंकालु
अद्विजो के प्रति अनुदार
** शिव नहीं वाशिष्ठी
क्रूर व्यवस्था के चलते
अच्छा आया है राम राज्य
जिसको जो चाहे वह दंड दे
शोषित शूद्रो को शिरच्छेद
नारी को निष्कासन दे दे |"
'राना ' आम्रपाली, यशोधरा , उर्वशी जैसे पात्रो को भी वे अपनी स्त्री चेतना का आलम्बन बनाते हैं |लेकिन दलित स्वर की तुलना में स्त्री का स्वर उष्ण कम आद्र अधिक है |
रचनात्मकता का एक क्षेत्र ऐसा भी है जहाँ 'राना' के विचार और कविता में उजास तो दीखता है कितु उसमे आंच मंद होने लगती है | मानो यहाँ बोद्ध दर्शन और बुद्ध की करुणा उन्हें संयत और शांत कर देती है |
यहाँ उनकी कविता 'लाईट आफ एशिया ' की तर्ज़ पर बुद्ध वाणी बन जाती है ..
**पा तुमही से प्रेरणा
विकसित हुई पुलकित हुई
**हिंसा द्वेष से पा त्राण
ओ कला के प्राण ..|"
राना की कविता एक सैद्धांतिकी पर खड़ी है कीन्तु यह विचार की सैद्धांतिकी है सौंदर्य शास्त्र की नहीं |यहाँ संघर्ष और उसमे निहित सन्देश कलात्मक नहीं है अपितु सादगी भरा है |सहज और सीधा सीधा है | किसान मजूर की बोली बानी सा बगैर लाग लपेट | लेकिन फिर भी अकाव्यात्मक नहीं है |उनकी कविताई कबीर की सी है | खरी खरी अपने समूचे दूला दुच्चा के साथ |