Thursday, November 8, 2018

कला की सार्थकता


कला की सार्थकता
+++++++++++++ -# हनुमंत किशोर
“कलाकार का असली काम मनुष्य के द्वारा मनुष्य के खिलाफ किये जा रहे षड्यंत्र को उजागर करना है |”
‘जैनुल आबेदीन’
कला क्या है ?
ये प्रश्न शायद ही कोई कलाकार अपना काम शुरू करने के पहले या अपना काम करने के दौरान पूछता हो | लेकिन ये प्रश्न उसकी कला के सम्पूर्ण होते ही ये प्रश्न तात्विक हो उठता है और  साथ ही कई अन्य प्रश्न भी जैसे कि क्या कला जीवन की अनुकृति है या जीवन की विवेचना है ?
क्या कला स्वांत सुखाय है या सामाजिक प्रभाव से प्रभावित होकर कलाकार के द्वारा किये गये सामाजिक कर्म से उद्भूत  एक सामाजिक उत्पादन है ?
एक सच्चा कलाकार सजग होता है और सजगता के साथ अपनी कला में वो इन प्रश्नों के उत्तर तलाश करता है | कवि , आलोचक मुक्तिबोध के मुहावरे में कहें तो वह ज्ञानात्मक सम्वेदन है | उसकी तन्मयता भले ‘बेखुदी’ में ले जाती हो लेकिन होशो हवास में ही चेतना पर उसका अवतरण होता है |
इस तरह से कला कला प्राणी जगत में मनुष्य मात्र का उत्पादन है | एक ऐसे मनुष्य का जो अपने होशो हवास में यथार्थ का साक्ष्तात्कार करता है और उसे एक माध्यम से निरुपित करता है | और यही उसकी कला है |
मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी में हम कला का दर्शन नहीं कर सकते हालांकि पक्षी के कलरव को हम गान भी कहते हैं और मोर के झूमने को नाच भी लेकिन ये इन प्राणियों की प्राकृतिक जैविक कार्यवाहियां हैं | ना कि स्वयं की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सीखी गयी , विकसित की गयी कला |
इस तरह कला जैविक या प्राकृतिक कार्यवाही ना होकर अभिव्यक्ति का  एक सीखा गया  और विकसित किया गया माध्यम है |
यानी सीधे सीधे कहें तो कला प्रकृति का नहीं संस्कृति का व्यवहार क्षेत्र है  |  एक तरह से सांस्कृतिक घटक है |
 जैसे जैसे संस्कृति विकसित और परिवर्तित होती गयी कला में भी विकास और परिवर्तन सहज घटित होता चला गया | लेकिन ये संव्यवहार एक तरफ़ा ना होकर दुतरफा है यानी जहाँ कला सांस्कृतिक , सामाजिक , ऐतिहासिक परिवेश से प्रभावित हुई वहीँ उसने भी  ऐतिहासिक और सामाजिक परिवेश को प्रभावित किया | इन परिवर्तनों में कभी उसकी भूमिका अवरोध की तो कभी उत्प्रेरक की रही | जैसा कि एल्बर्ट ह्ब्बार्ट कहते हैं “ कला कोई वस्तु नही , तरीका है|”
इस पूरे विमर्श को कला की उत्पत्ति और विकास के अवलोकन से समझा जा सकता है |
कला के प्राचीनतम रूप हमे गुफा भित्ति चित्रों में मिलते हैं | दुनिया भर में फैली ये गुफा भित्ति चित्र कोई दस हज़ार से लेकर एक लाख साल तक पुराने  हैं यानि होमो इरेक्टस मानव से शुरू होकर नियोलिथिक काल तक |
भारत में भीमबैठका और नरसिंह गढ़ के गुफा भित्ति चित्र सबसे प्राचीन है | इनका वर्णन कला की उत्पत्ति और सार्थकता को व्यंजित करता है | भीम बैठका के चित्रों में हम आखेट काल के मनुष्य के संघर्ष , साहस और उल्लास को देख सकते हैं | तीर भाले से जानवर का शिकार करते ये मनुष्य जिजीविषा , संघर्ष और दक्षता के विम्ब हैं | नरसिंह गढ़ के भित्ति चित्रों में हम इन्हें हिरण की खाल सुखाते हुए देखते हैं | ये पाषाण काल था |
लेकिन जब कृषि युग की शुरुआत हुई और वन जीवन ग्राम जीवन में बदल गया | सामाजिक जीवन के नियमन और जिज्ञासाओं के समाधान के लिए सांस्थानिक धर्म  अपनी भूमिका में आ गया तब अजन्ता और एलोरा के गुफा भित्ति चित्र में बुद्ध और जातक कथाएं चित्रित हुई |
परिवर्तन और विकास यहीं नहीं रुका बौध धर्म के पराभाव के बाद बने तंजोर राजराजेश्वरी मन्दिर में नृतकी के भित्ति चित्र में शैली ही नहीं बदली बल्कि विषय-वस्तु में भी बदलाव साफ़ साफ़ देखा जा सकता है | मुग़ल काल में भित्ति चित्रों का स्थान महल की नक्काशियों ने ले लिया , जहां भारतीय शैली में फ़ारसी शैली का प्रभाव साफ परिलक्षित होता है |
आधुनिक काल में ये भित्ति चित्र म्यूराल की शक्ल हमारे समय की सबसे सशक्त आलोचना बनकर सामने आते हैं | यूरोप में माइकल एंजेलो , राफेल और लियोनार्ड विन्ची के म्यूराल प्रबोधन काल की पूर्व पीठिका रचते हैं |
बात जब आदिम काल से आधुनिक काल के  भित्ति चित्रों के बहाने कला की प्रासंगिकता को चिन्हित करने की हो तब पाब्लो पिकासो की म्यूराल पेंटिंग ‘गुएर्निका’ का सन्दर्भ जरूरी हो जाता है जो युद्ध के विरुद्ध कला का एक सार्थक वक्तव्य और हिंसा के विरुद्ध कला के एक कारगर हस्तक्षेप के रूप में सदियों याद किया जाता रहेगा | १९३७ में कैनवास पर आयल पेंट से बने इस म्यूराल में नाजी जर्मन और फासिस्ट इटली के दौर में बमबारी से तबाह हुए स्पेन के एक गाँव ‘गुएर्निका’ की  बर्बादी का मंज़र है | इसमें श्वेत-श्याम और धूसर रंग से खंडहर की पृष्ठभूमि में सांड , घोड़े और क्षत-विक्षत शव के जरिये एक विलाप रचा गया है | ऊपर जलता एक बल्ब और नीचे टूटी तलवार काव्यत्मक व्यंजना देती हैं | जब एक ‘गेस्टापो’ ने इसे देखते हुए पिकासो से पूछा “ ये आपने बनायी है ?”
पिकासो ने कहा “ नहीं ...आपने बनायी है”
कला यही करती है यानी सत्ता के पाखंड को उजागर करते हुए उसका प्रतिपक्ष रचना | सच्ची कला हू ब हू नकल नहीं करती बल्कि आंदोलित करती है |
‘गुएर्निका’ हमे हमारे दूसरे प्रश्न का उत्तर भी देती है कि क्या कला जीवन की अनुकृति है या जीवन की विवेचना है ?
‘गुएर्निका’ में कहीं भी सीधे- सीधे युद्ध का कोई दृश्य नहीं है | कोई भी बम वर्षक विमान नहीं | कोई गेस्टापो कोई हिटलर कोई मुसोलनी नहीं | लेकिन फिर भी ये उनके विरुद्ध एक वक्तव्य इसलिए बन जाती हैं क्योंकि यह युद्ध की अनुकृति या नक़ल नहीं उसका विवेचन है | जिसकी त्रासदी क्षत-विक्षत शव नुमा आकृतियों के विलाप से ध्वनित होती है | समीक्षक जिसे विलिंग सस्पेंशन ऑफ़ डिस्बीलीव कहते हैं वो यहाँ नहीं है है | जैसा कि ब्रेख्त के एपिक थियेटर में किसी तरह का सम्मोहन , मायाजाल रचने के द्वारा दर्शक की चेतना को सुलाने के स्थान पर उसे मायाजाल से काटकर उसकी चेतना को जागृत करने और सोचने  के लिए मजबूर करने प्रयास किया जाता है | ‘जीवन की अनुकृति’ अरस्तू के ‘पोएटिक्स’ में वर्णित कैथारसिस यानी विरेचन सिद्धांत का अनुसरण करते हुए अपना एस्थेटिक रचती है | कला के इतिहास में उसका स्थान और उपयोगिता निर्विवाद है | अरस्तू के सिद्धांत के आलोक में एसीकिलस, सोफ़ोक्लेस और यूरीपिडस की ग्रीक त्रासदियों में हमारी दमित इच्छायें और सुप्त भय निकास का मार्ग भले पाते हो लेकिन कला का वास्तविक कार्य इससे आगे जाते है जब वह इन त्रासदियों के लिए दायी शक्तियों का विवेचन कर हमे उनके विरुद्ध सतर्क करती हैं |
कला की यही भूमिका और शक्ति है जो अरस्तू के गुरु प्लेटो को आतंकित करती है और वे अपने ग्रन्थ रिपब्लिक में वर्णित आदर्श राज्य से सभी कवियों ,कलाकारों को खदेड़ देने की पैरवी करते हैं | प्लेटों के मत में कवि ,कलाकार अराजक होते हैं और वे आदर्श राज्य के लिए खतरा हैं | यहाँ एक हद तक प्लेटो सही भी हैं क्योंकि कला अपने को अभिव्यक्त करने के दौरान पानी की तरह होती है यानी बंधे बंधाये ढर्रे से जब वह अपना मार्ग नहीं पाती तो जिधर से पाती है अपने निकास का रास्ता बना लेती है | इस क्रम में वह हर संस्कृति या मूल्य का निषेध कर जाती है |वह हर क़ानून का अतिक्रमण कर जाती है | वह तब स्वयम सर्वोच्च विधेयक होती है | अभिव्यक्ति के दवाब में उसके सामने तब श्लीलता –अश्लीलता के प्रश्न गौण हो जाते हैं | वैसे भी ये समय और संस्कृति सापेक्ष प्रश्न हैं और महान कला अपने समय से बहुत आगे होती है | श्लीलता – अश्लीलता का हौआ अक्सर राजनीति परिचालित होता है | तभी कामसूत्र  ,कुमार सम्भव और खजुराहो के देश में हालिया फिल्म ‘ रंगरसिया’ को भी अश्लीलता का आरोप झेलना पड़ा | मकबूल फ़िदा हुसैन के सर की सुपारी दी गयी | मंटो की कहानियों को बदनाम किया गया |जैसा कि नामवर सिंह कहते हैं ‘ इन रचनाओं का मुख्य अपराध यह रहा कि इन्होने पूजीवादी व्यवस्था के नैतिक ढोंग का उद्घाटन किया’ |
कला के ऊपर राष्ट्र द्रोह ,अश्लीलता,चरित्र हीनता और समाज को पथ भ्रष्ट करने का आरोप दरअसल व्यवस्था के तरकश में कला और साहित्य को बधिया करने का सबसे कारगर तीर है | कभी क़ानून कभी नैतिकता कभी राष्ट्र तो कभी धर्म के जरिये सत्ता के निहित स्वार्थ कला के लिए लक्ष्मण रेखा खींचते आये हैं और हर बार कला ने अपने अस्तित्व  को सिद्ध करने के लिए इस लक्ष्मण रेखा को लांघा है | कला की सार्थकता इसी लक्ष्मण रेखा को लांघने में निहित है |
लेकिन सार्थक कला व्यवसायिक नंगेपन और विकृत कामुकता के बीच हमेशा फर्क करते चलती है | कला में जो होता है प्रसंग और सन्दर्भ से परे और न्यूनाधिक नहीं होता | यही कला का संतुलन और कला की नैतिकता है | सार्थक कला कभी अनैतिक नहीं होती ,बस उसकी नैतिकता कई बार समाज की प्रचलित नैतिकता से बेमेल हो सकती है | जैसे ‘रंग रसिया’ में वेश्या में देवी का दर्शन और अंकन | जिसे लेकर शुद्धता और नैतिकता वादियों ने वितंडा किया था |
एक सार्थक कला सत्ता के द्वारा बाधित किये जाने के इस डर के वाबजूद भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष जारी रखती है | जैसा की ग्रॉय कहते हैं ‘कला अपने में सत्ता है’| यही वजह है कि कला का सत्ता से द्वन्द सनातन रहा है | कला का मूल चरित्र ही सत्ता की आलोचना रहा है जिसे सत्ता विद्रोह के रूप में देखती रही है | कला की प्रासंगिकता प्राकृतिक आपदा को नहीं बल्कि मानव निर्मित आपदा को अपनी विषय वस्तु बनाने में निहित है |  
प्रदर्शन कारी कला का तो जन्म ही प्रतिरोध के स्वरूप हुआ है | जैसे खून में श्वेत डब्लू बी सी नष्ट हो जाने से प्रतिरोधक क्षमता नष्ट हो जाती है और उसी के साथ शरीर भी वैसे ही प्रदर्शन कारी कला से प्रतिरोध नष्ट हो जाते ही वह कला ही स्वयमेव नष्ट हो जाती है |
 याद करें नाट्य शास्त्र भरत मुनि का मिथक | स्वर्ग में देवताओं का मनोरंजन करते करते एक दिन वे उनका उपहास क्या कर बैठे , देवताओं ने उनके स्वर्ग से बेदखल कर धरती पर भेज दिया |
इस मिथक की मीमांसा जरूरी है |
कला के लिए और विशेषकर प्रदर्शनकारी कारी कलाओं के लिए एक आर्थिक आधार की आवश्यकता होती है | सत्ता कला को वो आधार उपलब्ध कराती है | पहले राज दरबारी कवि और कलाकार हुआ करते थे , आधुनिक समय में ये शासकीय और अशासकीय अनुदान जीवी कलाकार हैं |सत्ता अपने लिए उपयोगी कलाकारों को मात्र धन और सुविधा ही उपलब्ध नहीं कराती अपितु उन्हें पुरुस्कृत , सम्मानित और पीठ आदि पर बैठाकर उपत्कृत भी करती है | जब कला उस सत्ता का प्रतिवाद रचने लगती है या वह सत्ता के लिए उपयोगी नहीं रह जाती तो इन्ही सब साधन और सुविधाओं से उसे वंचित कर शक्तिहीन करने का प्रयास किया जाता है |
मिशेल फूको ने अपने लेख सब्जेक्ट आफ दि पॉवर में सत्ता की इसी प्रवृत्ति की मीमांसा करते हुए कहा है कि सत्ता अपने सामने आने वाले हर प्रतिरोध को न्यूनीकृत करती है |
सृजन कारी कला और  सत्ता के मध्य द्वंद को भीष्म साहनी के ‘हानूश’ में बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया गया है |
‘हानूश’ एक कुफ्ल साज़ है जिसका सपना घड़ी साज़ बनने का है |
सपना आसान नहीं है लेकिन संघर्ष करता हुआ ‘हानूश’ अपनी रचना यानी घड़ी बनाने में कामयाब हो जाता है |
और इसी कामयाबी के साथ तत्कालीन व्यवस्था के साथ उसका संघर्ष शुरू हो जाता है | राजा चाहता है कि घड़ी बजे लेकिन हानूश कहता है घड़ी तो अपने समय पर ही बजेगी | जब घड़ी बजती है और बाहर जनता इस रचना के लिए ‘हानूश ‘ की जयजयकार कर रही होती है राजा के हुकुम से ‘हानूश’ अंधा बनाया जा रहा होता है ताकि बह दूसरी घड़ी ना बना सके और यह रचना नायाब बनी रहे | ‘ हानूश’ की कला को लेकिन सत्ता फिर भी नहीं रोक पाती | ‘हानूश’ से घड़ी बनाने का हुनर सीखकर उसका शागिर्द को राज्य की सीमा के बाहर निकलने में कामयाब रहता है | यहाँ तक पहुंचकर ‘हानूश’ एक व्यक्ति से एक प्रवृत्ति में रूपान्तरित हो जाता है जो सत्ता के सामने अपनी रचनात्मक जिजिविषा के साथ क्षत मस्तक भले है किन्तु नतमस्तक नहीं है |
‘हानूश’ के बाद से कला और सत्ता के द्वंद का चेहरा आधुनिक स्वातन्त्र्य और विधि आधारित समाज में बदला है | चेहरा बदला है आत्मा नहीं | दमन और कठोर हुए हैं और उन्हें विधि के आवरण में अंजाम दिया जाने लगा है |
आधुनिक राज्य में कला पर नकेल क़ानून की डाली जाती है | ये क़ानून जैसे ही अपर्याप्त होते हैं नये क़ानून गढ़ लिए जाए हैं |
जैसे ‘नील दर्पण’ जैसे प्रदर्शन से घबराकर अंग्रेज सरकार ने  ‘ड्रामेटिक परफार्मिंग एक्ट’ लागू किया था | तो प्रथम विश्व युद्ध के समय सिनेमा की आलोचनात्मक शक्ति से आतंकित होकर सभी देश की सरकारों ने अपनी अपनी तरह से सिनेमेटोग्राफिक एक्ट लागू कर सेंसरशिप के जरिये कला को नियंत्रित करने की कोशिश की | यानी सत्ता कला को हमेशा कला कंद के रूप में परोसना चाहती है | सर्वथा निरापद सर्वथा अनुरूप सर्वथा उपयुक्त | लेकिन कला की सार्थकता कला कंद होने में नही उत्पीड़ित ,वंचित वर्ग के पक्ष में सत्ता का काला-कांड उजागर करने में निहित रहती है | यही कला धर्म भी है और इसी के निर्वहन में कला जोखिम में भी आती है | लेकिन जो कला यह जोखिम ना उठा सके उसे कला नहीं ‘क्राफ्ट’ कहा जाना चाहिए |
यह सवाल हर कलाकार द्वारा अपने आप से हर शुरुआत में पूछा जाना चाहिए कि उसकी कला का धर्म क्या है ? और क्या अपनी कला से वह उस कला धर्म का निर्वाह करने जा रहा है |
दुर्भाग्य से दूसरे धर्मों की तरह कला धर्म भी अपने मर्म और दर्शन से च्युत होकर कर्मकांड तक में सिमट कर रह गया है | वहां नवाचार , कल्पना और साहस की उड़ान नहीं है | बंधे बंधाये ढर्रो , परिपाटियों में कला का दम घुटा जा रहा है लेकिन भीरु और अनुदान की बैशाखियों पर टिका कलाकार उसे निरंतर अनदेखा और अनसुना कर रहा है |
आज जबकि पृथ्वी पर मनुष्य जाति का भविष्य संकट में है | बर्बर विकासको एकमात्र विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है और साम्प्रदायिक उन्माद क्रांतिकारी दर्शन की शक्ल में आ रहा है | आवारा पूँजी के पतनशील मूल्य सृजन चेतना पर हावी हो चुके हैं | मनुष्य अपनी गरिमा खोकर एक संसाधन में रूपांतरित हो रहा है | कला को सजग बौद्धिक कार्यवाही के रूप में सार्थक प्रतिवाद की भूमिका में आना होगा | कला स्वयम में लक्ष्य या साध्य नहीं है वह साधन है | कला के लिए अभ्यास से पहले दृष्टिकोण (विजन) विकसित करने की जरूरत है | कला को स्वयम कलावाद से मुक्त होने की आवश्यकता है | एक मुक्त कला ही मनुष्य जाति के मुक्ति के स्वप्न को चरितार्थ कर सकेगी  |कला की सार्थक उसे चंडीदास के शब्दों को याद रखने की जरूरत है –
“शुनहु मानुष भाई
सबाई ऊपरे मानुष सत्य
ताहार ऊपरे केऊ नाही”
(चित्र :गुएर्निका - पाब्लो पिकासो )