Monday, September 26, 2016

स्त्री का देह विमर्श वाया 'पिंक' ( pink movie review )

स्त्री विमर्श वाया ’पिंक’
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यूं तो उपरी तौर पर शूजित सरकार की ‘पिंक’ में मुझे पिंक कलर कहीं दिखा हो ऐसा याद नही पड़ता सिवाय एक सीन में जहां पार्क में जागिंग करती मीनल ( तापसी पुन्नू ) ने गुलाबी जूते पहन रखे हैं लेकिन अन्दुरूनी तौर पर ‘पिंक’ ‘पिंक’ की ही कहानी है | ‘पिंक’ सिर्फ रंग नहीं एक सोच है | एक सांस्कृतिक अनुकूलन ,जिसके माध्यम से समाज को स्त्री और पुरुष के खांचे में बांटा जाता रहा है यानी ‘पिंक’ लड़कियों का और ‘ग्रे’ लड़को का | एक कोमल और स्त्रैण से जोड़ दिया गया , दूसरा कठोर और पौरुषत्व से | लड़कियों के गुलाबी जूतों से लेकर उनका हेयर बैंड,चश्मे का फ्रेम,उनकी स्कूटी तक सब गुलाबी है और लड़कों के जूते बाइक,टी-शर्ट तक सब ग्रे या वैसा ही कोई हार्ड कलर | क्या आपने कभी किसी लड़के को गुलाबी जूते पहने देखा है ? शायद देखा हो लेकिन मैंने एक बार कॉलेज में पिंक शर्ट पहनी थी और तब जब दोस्तों ने ताना दिया कि अबे ये लेडीज कलर है तो उसे उतार कर टांग दिया | बाद में मैंने जाना कि ‘पिंक’ के मायने कई जगहों और मौकों पर स्त्री का यौनांग भी होता है तो अक्सर रंडियों से जोड़कर और गाली के बतौर भी इसे इस्तेमाल किया जाता है | तब तक मैंने ‘सेकंड सेक्स’ में सिमोन को नही पढ़ा था कि स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है ना ही जर्मेन ग्रीयर के जरिये जाना था कि भाषा और सामाजिक सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से स्त्री किस तरह बधिया की जाती है | तो खिलौनो से लेकर रंग और भाषा और मिथक जैसी सारी बातें है जो स्त्री और पुरुष के मध्य एक सोच को तैयार करती है जिसे हम मानसिकता कहते हैं | स्त्रियों के लिए एक अलग कोड ऑफ़ कन्डक्ट तैयार कर इन पर तब से ही लाद दिया जाता है जब वे पालने में होती हैं | इस ‘कोड ऑफ़ कन्डक्ट’ के अनुसार स्त्री को ख़ास तरह से हँसना-रोना , उठना- बैठना , पहनना-ओड़ना , चलना-फिरना यहाँ तक की छीकना और खांसना भी होता है | जो स्त्री इस ‘कोड ऑफ़ कन्डक्ट’ के अनुसार अपने देह और मन की कांट-छाँट नहीं करती वो चरित्र हीन समझी जाती है और चरित्र हीन औरत को दंड देना पुरुष का पुण्य कर्तव्य घोषित कर दिया जाता है | यही मानसिकता समाज में स्त्री और पुरुष के सामजिक-सांस्कृतिक विभाजन की बुनियाद है जिस पर पुरुष के सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व की मीनार खड़ी है | हमारे समाज में इस अनुकूलन को ही नारीत्व की संज्ञा दी गयी है | नारीत्व को ही श्रृंखला की कड़ियों में महादेवी वर्मा अभिशाप कहती है | वालीवुड का हिंदी सिनेमा अपने तमाम अन्तर्विरोध के बावजूद इस सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व का और इसके भीतर स्त्री की छटपटाहट, उसकी जद्दोज़हद का कुछ तो पता देता है | सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व की मीनार में जो दरार विभिन्न वाद-सम्वाद के संघात से पैदा हुई है उसे भी इस वालीवुड के हिंदी सिनेमा में देखा जा सकता है | यह निर्विवाद है कि वालीवुड हिंदी सिनेमा स्त्री के प्रति बेहद परम्परावादी क्रूर और धन्धेबाज़ रहा है | उसने द्शक तक स्त्री देह को एक मानवीय रचना के रूप में प्रस्तुत नहीं किया बल्कि एक हुंडी के रूप में भुनाया है | लेकिन इसी सिनेमा में व्ही शान्ता राम विमल राय से होते हुए सुधीर मिश्रा ,मधुर भांडारकर,विशाल भारद्वाज और शूजित सरकार आदि ने उस स्त्री को भी स्ल्यूलाइड पर दिखाया है जो सुजाता-बंदनी-मदर इंडिया से आगे चलकर ‘माया मेमसाहब’ और ‘मरदानी’ बनकर ‘पेज थ्री’ पर मर्दवादी सत्ता को तुर्की बी तुर्की जवाब देती है | यहाँ अब वो ‘डेढ़ इश्किया’ है उसकी “हज़ारो ख्वाइशे ऐसी” हैं जहाँ उसके लिए ‘सात खून माफ़’ हैं | यहाँ तक आते आते स्त्री मुक्ति का विमर्श अनमेल विवाह,दहेज़,साक्षरता,मातृत्व से आगे आकर प्रेम और देह के अधिकार से जुड़ गया है | इस दौर में यह सिनेमा सामाजिक-सांस्कृतिक जकडन में स्त्री के द्वंद और उसकी आजादी के सवाल के साथ देह पर उसकी खुद मुख्तारी के सवाल को उभारते हुए हमारे सामाजिक यथार्थ को भी उधेड़ता है और तहखाने की ‘निगेटिव’ को ‘डेवलप’ कर दिखाता है | गतिशील यथार्थ को पकड़ते हुए ये फिल्मे स्त्री की बदलती अवस्थति और सत्ता में उसकी हिस्सेदारी की महत्त्वाकांक्षा को प्रश्नगत नहीं करती बल्कि रेखांकित करती हैं | यहाँ स्त्री अपनी देह पर मालिकाना हक़ नही चाहती, बल्कि इससे आगे जाकर सत्ता के लिए अपनी देह को भी आप ही मेनुप्लेट भी करना जानती हैं | आखिर इसमें बुरा क्या है और अगर है तो वो पुरुषों के लिए भी बुरा भी क्यों नहीं है ? यह सवाल भी इन फिल्मो में स्त्री की ओर से पूछा जा रहा है |
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अनिरुद्ध राय चौधरी निर्देशित ‘पिंक’ में भी तीन कामकाजी आत्म निर्भर महिलाओ की कहानी के माध्यम से पितृसत्तात्मक समाज की सोच को कोर्ट सीन की सिमेमाई युक्ति के द्वारा चुनौती दी गयी है | जहां जूलियट मिशेल से उधार लेकर कहें तो इन तीनो का ‘पर्सनल इज पोलिटिकल’ हैं | यहाँ तमाम बन्दिशो , गरियाये जाने और सताये जाने के जोखिम के बाद भी ये तीनों अपने वजूद के लिए समझौता करने को राजी नहीं होती और अपने को ‘प्रूव’ करने का खतरा उठाती हैं | एक तरह से वे तीनों यानी फलक(कीर्ति),मीनल(तापसी) और एंड्रीया(एंड्रीया)के मार्फत स्त्री की देह पर अपने मालिकाना हक़ की घोषणा हैं | यहाँ यह भ्रम सहज ही हो सकता है कि भारतीय समाज में स्त्री मुक्ति का सवाल अब केवल देह से जुडा है और परम्परागत जकड़बंदी से वह आज़ाद हो चुकी है | जबकि देश के बहुत बड़े इलाके में सामन्ती ,अर्ध सामन्ती ढांचा आअज भी मौजूद है जहां स्त्री मुक्ति के प्राम्भिक प्रश्न और स्थापनाये वे ही हैं जिन्हें हिंदी सिनेमा ने साठ और सत्तर के दशक में लचर ढंग से उठाया था | लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही सच है कि नब्बे के दशक के बाद वैश्विक पूँजी , टेक्नालोजी और सूचना ज्ञान के अनियंत्रित विस्फोट ने समाज के भीतर एक नये समाज और भारत के भीतर एक इंडिया का निर्माण किया है जहाँ स्त्री की समस्या को स्त्री की परम्परागत समस्या के प्रकाश में नही समझा जा सकता और इसका समाधान नयी सम्वेदनशीलता तथा समझदारी की मांग करता है| इस तथ्य के वावजूद भी कि इस नये समाज में पुरुष की ग्रन्थि पुराने जड़ संस्कारों की जकड़ बंदी से ही ग्रस्त है,‘पिंक’ अब तक टैबू विषय वर्जिनीटी और यौनिकता के सवालों पर इसी बदलती स्त्री के साथ जुड़ती है | फिल्म की कहानी के केंद्र में ये दिल्ली में अपने परिवार से अलग रह रही तीन कामकाजी स्त्रियाँ हैं | ये आर्थिक रूप से ही आत्म निर्भरता नहीं चाहती बल्कि अपनी जीवन शैली में भी अपना अधिकार चाहती हैं | वे महानगरीय संस्कृति में पार्टी और पब कल्चर अभयस्त हैं | ऐसे ही में एक राक शो दौरान उनकी मुलाकात राजवीर (अंगद बेदी) और उसके दोस्तों से होती है.जो उन्हें डिनर पर ले जाते हैं |यहाँ किसी कमरे में राजवीर मीनल की ‘ना’ को अनदेखा-अनसुना कर उसकी देह पर आक्रमण करता है |तब अपने मन और देह की आत्मरक्षा में मीनल राजवीर के सर पर शराब की बोतल मार देती हैं (यद्यपि यह दृश्य फिल्म में सिर्फ नरेशन के जरिये अनुमान कराया गया हैं )| राजवीर रसूखदार नेता का भतीजा है और यही से कहानी घुमाव लेना शुरू करती है और तीनों स्त्रियों की जिंदगी में डर और परेशानी का अंतहीन सिलसिला चल निकलता है |मीनल को हवालात का नर्क भोगना पड़ता है और अपने बचाव में तीनो स्त्रियाँ कोर्ट की अंतिम शरण लेती है जहां उनकी मदद के लिए एक बूढ़ा वकील दीपक सहगल(अमिताभ बच्चन) अपनी सकर्मक सम्वेदना के साथ मोर्चा सम्भालता है | आगे फिल्म अपनी सिनेमाई सम्वेदना खोकर कोर्ट ड्रामा तक सीमित हो जाती है | लेकिन इसे जिस मुहावरे दानी जुमले और लतीफेबाजी के साथ फिल्माया गया है वहां यह एक सिनेमाई उक्ति के रूप में दर्शक की ऊब से रक्षा करते हुए उसे एक विमर्श से भी जोड़ने में कामयाब होती है |कोर्ट रूम की यह ड्रामे बाजी हमारे समाज में स्त्री और पुरुष के लिए अलग अलग नैतिक आग्रहों और मानदंड पर हमे घेरते चलती है | यहाँ की बहस इस सच को उद्घाटित करती है कि एक दकियानूसी और ढकोसले के आदी समाज में स्त्री का चरित्र घड़ी की सुइयां और उसके स्कर्ट की लम्बाई तय करती है | जिसमे अति आधुनिक होने के वावजूद भी स्त्री को लेकर मध्य युगीन मानसिकता में कोई आमूल बदलाव नहीं आया | फिल्म में राजवीर (अंगद बेदी)के आक्रामक वकील के रूप में पीयूष मिश्रा समाज के प्रचंड पुरुषवादी छवि को साकार करते है | उनकी शारीरिक भाषा एक मेसोग्निस्ट की है| दबंगई बदतमीजी से भरी | जिसके लिए अपने मुवक्किल को बचाने का एक ही तरीका है कठघरे में खड़ी तीनो स्त्रियों को चरित्र हीन सिद्ध कर धन के लोभ में झूठे आरोप लगाने वाली सिद्ध करना |वो अपने मुव्वकिल राजवीर का ही बौद्धिक चेहरा है जिसके लिए हर स्त्री एक भोग्या देह मात्र है| जहाँ हर लड़की हंसी तो फंसी वाली चीज है | लड़को के साथ लड़की का हंसकर बात करना या शराब पी लेने का मतलब है कि वो हिंट दे रही है | यानी शिकार खुद शिकारी को आमंत्रित कर रहा है | प्रेमचन्द के उपन्यास ‘गोदान’ का एक शहरी चरित्र ‘मेहता’ कहता है “नारी में पुरुष के गुण आने पर वह कुलटा हो जाती है |” राजवीर की मान्यता भी यही अच्छी लडकियां शराब नहीं पीती ..हाँ लड़के पी सकते हैं | वो पूंजीवादी छिछोरेपन का प्रतिनधि चरित्र है | इसका विलोम है दयाल (अमिताभ बच्चन ),जो मीनल और उसके मित्रो के वकील हैं |शुरू में ‘दयाल’ बेहद कमजोर और कन्फ्यूज दिखाई देते हैं लेकिन जैसे जैसे फिल्म आगे बढती है वे आत्म विश्वासी और एसर्टिव होते जाते हैं | मर्द वादी सोच के विरुद्ध उनका यह यह सम्वाद पूरे स्त्री विमर्श का बीज वक्तव्य बन जाता है .. ‘न केवल एक शब्द नहीं होता, बल्कि वह एक पूरा वाक्य होता है. न का मतलब न होता है भले ही वह कोई आपकी दोस्त हो, प्रेमिका हो, कोई सेक्स वर्कर को या फिर आपकी पत्नी ही क्यूं न हो’ फिल्म का सबसे कद्दावर चरित्र है मीनल (तापसी पुन्नू) | एक जिद्दी लेकिन सेंसिबल किरदार | इसे अपनी देह से प्यार भी है और उसकी थोड़ी बहुत फैशनेबल नुमाइश से भी एतराज़ नहीं है|ऐसी लड़कियां जहाँ आमतौर पर ढीली समझ ली जाती है वहीँ मीनल बेहद मज़बूत और अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीने वाली फाइटर है | कोर्ट रूम में उसकी कालर बोन पर चिड़ियों के जो टेटू दीखते है | वे मानो मीनल जैसी तमाम स्त्रियों का रूपक है जो शिकारियों के हर खतरे के बाद भी आकाश के सम्मोहन में बंधी उड़ना चाहती है | मीनल बाज़ से लड़ने वाली ऐसी ही चिड़िया है मानो | उसकी खुद मुख्तारी और अपने प्रति ईमानदारी का चरम क्षण तब आता है जब उसका अपना वकील ही उसकी वर्जिनीटी पर उससे सवाल करता है |जज इस सवाल पर इसे इन कैमरा ट्रायल का विकल्प देता है | जिसे ठुकराकर वो अपनी वर्जिनीटी से सवालों का खुलकर जवाब देती है | उसके चेहरे पर पीड़ा साफ़ झलकती है लेकिन हर तरह के अपराधबोध छाया से सर्वथा मुक्त दिखती है | मीनल कहती है- ''मैने कुछ ग़लत नहीं किया है सर, मैं इसका जवाब यहाँ पब्लिक में देना चाहूँगी।'' यहाँ तक आते आते उससे सहानुभूति रखने वाले कई लोग उससे मुंह फेरते देखे जा सकते हैं लेकिन यही इस फिल्म की बोल्डनेस है और विमर्श का थ्रस्ट भी कि स्त्री अपनी देह अपनी यौनिकता के प्रति ईमानदार हो और हम उसकी इस ईमानदारी का सम्मान करें | यहाँ मीनल की यौनता देह या संभोग मात्र नहीं है बल्कि गायत्री चक्रवर्ती सिप्वाक जैसा कहती है वो उसकी चेतना है जिसका अर्जन किया जाता है | ऐसी स्त्री हमारे समाज में कई अवसरों पर परम्परागत मान्यताओ के लिए एक खतरे की तरह देखी जाती है |क्योंकि हमारा समाज उसी स्त्री को श्रद्धेय मानता है जिसके लिए प्रसाद के शब्दों में ‘है समर्पण सेवा सार’ | आगे फिल्म ‘फलक’ के एक उत्तर की मार्फत सेक्स वर्कर की ‘ना’ के सम्मान में भी खड़ी होती है,लेकिन आगे मानो दर्शक की सहानुभूति बनाये रखने के लिए इसे एक ग़लत उत्तर की तरह पेश कर दिया जाता है | आखिर में जब ड्रामेटिक अंदाज में जज मानो पहले से तय फैसला सुनाता है तो फिल्म कहीं अपने उस पंच में चूक जाती है जिसकी उम्मीद फिल्म के शुरू में बंध गयी थी यहाँ लगता है फिल्म निर्माता मानो दर्शक को उसके पैसे के बदले में संतोष और तसल्ली दे रहा हो | इसके अलावा मै यह भी समझ नहीं पाया कि फिल्म में सभी बूढ़े जैसे जज , मकान मालिक और वकील तो स्त्री के पक्ष ने दिखते हैं यानी वे यहाँ संरक्षक रूप में हैं लेकिन कोई नौजवानी उनके साथ खड़ी नही दिखती | स्त्रियों को बचाने वाला मसीहा भी पुरुष है उसी तरह जैसे कि भगवान् भी पुल्लिंग हैं | शायद व्यवसायिक मजबूरियों के चलते या भले पुरुषों को राहत देने के लिए मसीहा रूप में ‘दयाल’ का चुनाव किया गया हो | साथ ही एक सम्वेदनशील विषय को जुमले बाजी और ड्रामे बाज़ी से ट्रीट करने के चक्कर में इतिहास , मिथक , धर्म और संस्कृति सम्बन्धी वे सभी प्रत्यय और कारक पीछे छूट गये जो स्त्री की अवस्थिति के मूल में हैं | लेकिन फिर भी फिल्म देह की खुद मुख्तारी के पक्ष में जो फैसला देती है उससे एक विमर्श तो बनता है |
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(पुनश्च )
फिल्म से लौटकर मैंने एक कविता लिखी | यदि एक फिल्म अपने दर्शक को इतना भी दे सके तो आगे और अपेक्षा अभी बेमानी है-
मनु के वंशधारियों
हमारी देह हमारी भी उतनी ही है
जितनी तुम्हारी देह तुम्हारी
हमारी देह को
हर समय पुंगी की तरह बजाने का हठ ना करो ..
हमारी ‘ना’ से तुम्हारे बुर्ज की दीवार दरक रही है
जरा उसकी छाया से हटकर
इधर हमारी जगह कठघरे में खड़े रहो ...
घबराओ मत
स्त्री कभी जल्लाद नही होती
हम तुम्हे सिर्फ मनुष्य होने का दंड देंगी
यह घड़ी के कांटो को सही करने का समय है || हनुमंत किशोर ||

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