Monday, February 10, 2014

‘विकास’ के इस दौर में 'डकैत चूहे'



विकास के इस दौर में 'डकैत चूहे' 

समकालीन रंगमंच में नये मुहावरे की तलाश एक तड़प के रूप में दिखायी देती है | जिसके माध्यम से वह कला और समाज के प्रश्नों का ज़वाब दे सके | यहाँ सृजन, सरोकार के साथ तादतम्य बैठाना चाहता है | नये मुहावरे की यह ललक जिन शौकिया रंगकर्मियों में चिन्हित की जा सकती है उनमे आशीष पाठक एक हैं | उनकी नाट्य त्रयी पॉप कॉर्न रेड फ्राक और डकैत चूहे में हम एक नयी रंग भाषा और रंग मुहावरे को रेखांकित कर सकते हैं | जो मंचीय रूढ़ियों को जितना तोड़ती है ,नवाचार के रूप में उतना ही जोड़ती भी जाती हैं| वे नये प्रतिमानों की ओर अग्रसर दिखती है | यह त्रयी एक साथ प्राच्य और पश्चिम के सूत्रों को ग्रहण करती  है | इसमें मे परम्परा के  अतिक्रमण साहस  भी है और परंपरा के  पुनर्पाठ का विवेक भी | यह मुहावरा कला का उतना नहीं है जितना समाज के भीतर क्रियाशील परिवर्तनकामी जनवादी शक्तियों  का |  किन्तु इस पूरे मुहावरे को उत्तर आधुनिक संरचना एवं विकास बनाम विस्थापन को समझे बगैर   समझना मुश्किल है ,जिसके केंद्र में गतिशील बहुराष्ट्रीय पूँजी है और हाशिये पर सामाजिक सरोकार हैं |
                      ये पतनशील प्रवत्तियां  इस 'नाट्य त्रयी' के कथानक के केंद्र में है |डकैत चूहे में हाँ इन पतनगामी,शोषणकारी सत्ता का प्रतिवाद और विकल्प भी पाते हैं | यह उपद्रवी चूहों के डकैत चूहों में रूपांतरित होने की प्रकिया भी है | यह उस धन शक्ति का दीर्घ कालिक और शर्मनाक पतन है जिसका संकेत हितोपदेश  की कहानी में मिलता है | यह हितोपदेश की कथा का पुनर्पाठ है जो संस्कृत की विस्मृत कहानी को समकालीन विडम्बनाओं और संघर्षों से जोड़कर उसे हमारे समय का भाष्य बना देता है | धन की शक्ति की कुल कहानी इतनी है कि साधू की तपस्या में ज़ोर से उछल रहे चूहे व्यवधान कारित करते हैं | उनकी अप्रत्याशित उछाल से साधू को संदेह होता है और वह उस जगह को खोदने पर वहाँ गड़ा हुआ धन पाता है | और तब अपना निष्कर्ष देता है कि इस धन की शक्ति से ही चूहों में असामान्य बल उत्पन्न हो जाता है जिससे वे असामान्य ऊँचाई तक उछल सकते हैं | समरसेट माम ने  भी इस सत्य को एक उक्ति में कहा है कि पैसा छठी इन्द्रिय है जिसके अभाव में शेष पाँचों इन्द्रिया काम करनी बंद कर देती हैं |
                      धन की शक्ति के सामन्ती परिवेश के उपद्रवी चूहे उत्तर आधुनिक काल में  बहु राष्ट्रीय पूँजी के दलाल  बनकर  डकैत चूहे में बदल जाते हैं | जिनके निशाने पर बहु संख्यक आम जन , आदिवासी और दलित की जीवन निर्धारक सामग्रियाँ हैं यानी उसके खेत-खलिहान , जल ज़मीन और जंगल | लेखक /निर्देशक द्वारा इसे  अटारी पर रखी चार सूखी रोटियों के रूपक में बांधा गया है |
दरअसल वो रोटियों से अधिक उनके लिए कल के भोजन का आत्म विश्वास था जिसके सहारे वे जिंदा थे |
वे यहाँ अंधे बूढ़े बुढ़िया यानी सर्वहारा एक और सहारे पर जिंदा हैं और वह है उनका अपना आत्म छल | जिसमे वे अपनी दरिद्रता और अभाव की पूर्ती एक आध्यात्मिक से लगने वाले दर्शन से करने लगते हैं जिसका रूपक  परात में रेत के पहाड़ हैं |
दरिद्रता  जितनी थी बाहर
उससे अधिक थी भीतर
झोपड़ी से भी जर्जर एक बूढ़ा
इतना जर्जर
जैसे समय ने सैकड़ो हस्ताक्षर
उसके चेहरे पर करके
झुर्रियों से छुपा दिये हो |
और उसकी एक अंधी बुढ़िया .......
अंधी एक परात में
बनाती थी भात का एक पहाड़ |
उसी समय बूढ़ा भी
अपनी आँख बंद कर
मान लेता था उसे
भात का पहाड़ |
परात में रखे हुये
रेत के ढेर को |
                 शायद ही दुनिया के नक़्शे में इस वर्णित इलाके के अलावा और कोई जगह ऐसी हो जहाँ की धरती सोना और हीरे-मोती उगलती सच्ची वसुंधरा हो, लेकिन जनजीवन में भीषण दारिद्र्य व्याप्त हो | लहलाहते खेत-खलिहान और अनाज से भरे हुये  गोदाम हो लेकिन लोग परात में रेत के ढेर को भात मानकर जी रहे हों | फाइलों में विकास की एक धारा बह रही है | धारा बही ज़रूर है लेकिन  उसने ग़रीब और आदिवासी के लिए बाढ़ का रूप धर लिया  जिसमे उनके हिस्से में सिर्फ तबाही आयी | वही बहुराष्ट्रीय पूँजी मालामाल होती रही | ज़ाहिर के एक का जय जयकार दूसरे के लिए हाहाकार बन गया | वेदांता  जैसे के आने से जंगल के असली मालिक आदिवासी अपने ही घर में बेगाने होते गये | परमाणु विकिरण के खतरे जंगल और वाशिंदे के हिस्से आये और फायदों को राजधानियों के महापुरुषों ने हड़प लिया |जगलों और जमीनों को खनन कंपनियों के हवाले कर दिया गया|  जिस जमीन से स्थानीय लोगों को हटाकर वहां कोई फैक्ट्री लगाई गयी या रिहाइशी कालोनी बसाई गयी , उसमें विस्थापित को वाजिब हिस्सा नहीं दिया गया । जमीन और रोज़गार के साधन गंवाने के बाद उनके रोजी-रोजगार और सिर छिपाने का भी कोई उचित प्रबंध नहीं किया गया | असमान विकास से उपजे इसी क्षोभ में अपनी ज़मीन अपना जंगल बचाने के लिए स्थानीय जन कहीं जल सत्याग्रह पर हैं तो कही रेत में अपने शरीर को गाड़कर बैठे हुये हैं | लेकिन न्याय के बदले उन्हें लाठियाँ और गोलियाँ ही मिलती है | सिंगूर , पास्को, कुडूनकुलम ,नदीग्राम, पुणे, अनूपपुर , नोएडा सब जगह क्षोभ का एक ही उत्तर है दमन | विकास बनाम विस्थापन की यह लड़ाई प्रगति बनाम पुरातन में बदल दी जाती है | जबकि इसका एक ही उत्तर था सम्वेदनशील विकास जो स्थानीय जन और पर्यावरण दोनों को अपनी चिंता के केंद्र में रखता | बनिस्बत कारपोरेट को अपने केंद्र में रखने के | यानी सम्पति और संसाधन का साम्यपूर्ण नियंत्रण और वितरण |दर्दनाक सच्चाई यही है कि राज सत्ता कार्पोरेट के नफे के लिए इन्वेस्टर्स मीट करती हुई  प्रापर्टी डीलर की भूमिका में आ गयी है | उसके सर्वगासी विकास ने नये सर्वहारा को जन्म दिया है  | सेज़ और भूमि अधिग्रहण बिल इसके उदहारण हैं जिनकी तमाम कार्यवाहियों में ग्रामसभा या स्थानीय जन या विस्थापित की भूमिका निर्णायक नहीं है | परिणाम सवरूप कल तक ज़मीन के मालिक और किसान आज  भूमिहीन होकर किसी बेढब पुनर्वास केंद्र में गुमनाम जीवन बिता रहे हैं | इस विकास ने उन्हें स्वावलंबी से परावलम्बी बना दिया है |ऐसे असंतुलित और असम्वेदनशील विकास की कोख से ही डकैत चूहे जन्म लेते हैं और देश उनके बिल में बदल जाता है |
                             झोपडी से उस दिन जो चूहे भागे थे , फैल चुके हैं अब पूरी दुनिया में |अमेरिका में सबसे ज्यादा और क्यूबा में सबसे कम | मध्य प्रदेश में उन्हें बहुतायत में देखा जा सकता है | सिंगरौली अनूपपुर और रायसेन में | रोटियों से अब उनका पेट नहीं भरता |उन्हें चाहिये आदिवासी और किसानों की जमीन खाने के लिए |.... उन्ही का है जंगल , उन्ही का है जंगल राज| शेर से भी ज्यादा ताकतवर हो चले हैं ये डकैत चूहे|
              इस डरावने दौर में भी प्रतिवाद और प्रतिरोध  की कुछ उम्मीद बची रहती है कि जन चेतना का उभार एक दिन इन चूहों  के बिलों को खोद डालेगा |
बूढ़ा अपनी झुकी कमर ले , खोदता रहा चूहों का बिल | पूरा एक दिन पूरी एक रात |
नाटक का अंत एक क्रांतिकारी वक्तव्य के साथ होता है ..
अब वक्त आ गया है
कि अपने बीच के रिश्ते का इकबाल करें |
और विचारों की लड़ाई
मच्छर दानी से बाहर होकर लड़ें |...
अब वक्त आ गया है
कि निकल पड़ें सामूहिक शिकार पर
इन डकैत चूहों के |
यही वो जगह है जहाँ आकर नाटक सिर्फ नाटक नहीं रह जाता अंधी सुरंग के बाहर झाँकता एक सुराख बन जाता है |||