Monday, November 14, 2016

बाल मजदूरी (child labour )

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं..
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हर १४ नवम्बर को मुझे चाचा नेहरु की याद आती है और उनके कोट के बटन होल में टंगे लाल गुलाब की तरह लाल-लाल फूले गोल मटोल बच्चो के साथ उन मरियल सूखे, कीचट करिआ , घुटने तक कमीज पहने उसकी आस्तीन से नाक पोछते, होटलो-दूकानो-कंस्ट्रकशन साईट पर काम करते बच्चो की भी याद आ जाती है |जिनके हवाले से राजेश जोशी बताते और पूछते हैं -
“कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चें काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह
बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे ?क्याप अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्याए है इस दुनिया में?"
नब्बे के दशक में जब बाल श्रम प्रतिषेध अधिनियम (१९८६ )आया था और बाल श्रम उन्मूलन का सरकारी अभियान चला था तो दीवारों पर एक नारा लिखा जाता था -
'अभी करनी है हमें पढ़ाई
अभी ना करवाओ हमसे कमाई..'
हालांकि जैसा हर सरकारी अभियान के साथ होता है इसका भी अंजाम सरकारी ही हुआ यानी कागज़ी कामयाबी |इन सबके बीच मै खुद को बड़ा भाग्य शाली समझता हूँ कि मुझे ऐसा बचपना नहीं मिला मुझसे कमाई करवाने के लिए किसी ने मेरी पढ़ाई नहीं छुड़वाई हो | मै ध्रुव,प्रह्लाद, लव-कुश,वीर अभिमन्यु और मनु लक्ष्मीबाई के किस्से ,कविताये पढ़कर-सुनकर बड़ा हुआ और मेरे अपने बच्चे भी बाल हनुमान,बाल गणेश,छोटा भीम और डोरेमान देखकर-खेलकर बड़े हुए हैं | लेकिन फिर भी वे बच्चे करोडो में है जो इस तरह खुश नसीब नहीं थे और जिनका ज़िक्र राजेश जोशी की कविता में मिलता है |
ऐसे तीन बच्चे जो मेरे एकदम करीब है उनकी सच्ची कहानी आपको सुनाता हूँ |
सबसे पहले १४ बरस का राहुल चौधरी |
सिविल लाइन जबलपुर स्थित रिलायंस फ्रेश के ठीक सामने इसकी चटाई बिछी रहती है |
शू-ब्रश,पालिस की डिब्बी ,रांपी, हत्था सजे रहते हैं और उनके पीछे राहुल किसी जूते चप्पल के उपर जुटा रहता है | पढ़ाई और बचपन के खेल कूद से उसका रिश्ता टूट चुका है | १४ की उम्र में ४० के जैसी गंभीरता चेहरे पर चढ़ी रहती है | यहाँ की गई मरम्मत-पालिश की कमाई से है राहुल का परिवार पलता है |आज जब एक बजे मैंने उससे बात की तो वो चप्पल सी रहा था और उसकी यह बोअनी थी इसके उसे तीस रूपये मिलने थे |राहुल चौधरी के माता-पिता दोनों हत्या के सजा में जेल में है | परिवार में राहुल के साथ उसकी बहने हैं |
'तुम स्कूल नहीं जाना चाहते ?'
पूछने पर उसका जवाब होता है -
"स्कूल जाना ही लिखा होता तो माँ-बाप जेल क्यों जाते ?"
राहुल से अलग अमोल चौकसे ने ऐसी कोई मजबूरी कभी नहीं बताई है | जो पिछले दो साल से जानी सर्विस सेंटर,रसल चौक में काम करता १३ साल का बाल मैकेनिक है | मेरी गाड़ी खड़ी होते ही सबसे पहले दौड़कर वही आता है | पिता बाल काटने का धंधा करते हैं और अमोल चार भाइयो में सबसे छोटा है | लेकिन दो साल से मैकेनिक दूकान में मैकेनिक गिरी सीख रहा है | पैसा ले जाकर घर में देता है | स्कूल छोड़ चुका है, कहता है -"वहां नहीं,यहाँ अच्छा लगता है |"
'क्यों ?'पूछने पर उसका कहना है कि स्कूल में पढ़ाई नहीं होती यहाँ कम से कम दोस्तों के साथ काम सीख रहा हूँ | राहुल और अमोल से हटकर सुमन (बदला नाम ) स्कूल जाना चाहती है | पढ़ना चाहती है | बच्चो के साथ खेलना चाहती है | मेरे पड़ोस की लडकियां भी चाहती हैं कि वो उनके साथ खेले |लेकिन जबलपुर के एक अपार्टमेन्ट के जिस घर में वो ‘बेबी-सिटर’ है वहां से उस पर सख्त निगरानी के साथ इतना काम लाद दिया गया है कि उसका संसार तीन कमरों तक ही सिमट कर रह गया है | घरेलू काम ही उसका सब बचपना है मानो | सुमन को उसके मालिक लोग अपनी गाँव की कजिन कहते हैं लेकिन साफ़ है कि यह रिश्ता सिर्फ उनके गुनाह ढाकने के काम आता है |आप अपने आसपास नज़र घुमाकर देखेंगे तो एक नहीं अनेक राहुल , अमोल और सुमन पायेंगे | ये वो बच्चे है जिनका बचपना उनसे छीनकर उन्हें काम के कोल्हू में जोत दिया गया है |खिलोने से खेलने की उम्र में वे खुद खिलोना बनकर रह गये हैं |फूल-तितली,चाँद-सूरज से उनका रिश्ता हमेशा के लिए टूट चुका है | इन सच्चे किरदारो को छोड़ भी दें तो कि रोज सुबह हमारे घर में आने वाली जो चीज अखबार होती है उसे एक बच्चा ही दरवाजे के नीचे से सरका जाता है | फिर दूध आता है | इसे भी पहुचाने वाला अक्सर नहीं तो कभी-कभार एक बच्चा होता है| सुबह बालकनी पर चाय की चुस्कियों के साथ कोई खूबसूरत नज़ारा नहीं एक बदसूरत नज़ारा दिखाई देता है जिसमे पीठ पर प्लास्टिक की बोरी लादे बच्चे कचरे के ढेर से पन्नियाँ बीन रहे होते हैं | इन बच्चों के चेहरे और जिस्म से बेचारगी,लाचारी गोया जिंदगी की शर्म चू रही होती है | हम बदसूरत नज़ारे को भी चाय की मिठास के साथ चाट जाता हैं | बात इतने तक ही सीमित होती तो भी गनीमत थी | कचहरी यानी जो कानून का मक्का, मंदिर है वहां भी कानून के रखवालो की नाक के नीचे चाय-नाश्ता लाने वाला कोई बच्चा ही होता | यदि हम जूते की पालिश से शुरू करें तो हमारे कमीज के कालर तक ये बच्चे ही हैं जो अपना बचपना दांव पर लगाकर हम बड़ो की जिंदगी में सुख-चैन-आराम पैदा करते है | हमारी तटस्थता ने ही उस व्यवस्था को फलने-फूलने दिया जिसने उनसे उनका बचपना छीनकर उन्हें शोषण की चक्की में पीस डाला है |
यह दृश्य तब और लोमहर्षक बन जाता है जब बच्चे बंधुआ मजदूर बना लिए जाते है
‘हिन्दी-नेस्ट’ में बचपन खोने की कहानियाँ में एक कहानी ऐसी बंधुआ मजदूरमल्लेशम्माम ही है,जो आंध्र प्रदेश के कुरनूल जिलांतर्गत वंडागल्लु गांव की नौ वर्षीय बालिका मजदूर है | मल्लेशम्माम सुबह पांच बजे उठ जाती है। छह बजे तक वह कपास के खेत में पहुंच जाती है। दोपहर तक वह कपास के फूलों में परागण का काम करती है। एक छोटे से अंतराल के बाद वह फिर से खेत में घास-फूस निकालने और कीटनाशक दवाओं के छिड़काव के लिए पानी लाने का काम करने लगती है।
मल्लेशम्मा बताती है, ''कभी-कभी मुझे सर्दी, सिरदर्द और उल्टी के साथ बुखार भी हो जाता है। कीटनाशकों के छिड़काव के तुरंत बाद मुझे चक्कर आने लगता है। इन सब कार्यों के लिए मुझे तीन रुपए प्रति घंटे के हिसाब से मजदूरी मिलती है। मैं हर रोज 11 घंटे काम करती हूं, लेकिन मेरी मजदूरी कर्ज चुकाने में ही कट जाती है। मेरे पापा ने एक कपास खेत ठेकेदार से कुछ रुपए उधार लिए थे।'' (स्रोत : हिंदी नेस्ट )
उत्तर भारत में लगने वाले चूने भट्टे बंधुआ बाल मजदूरी का सबसे बड़ा अड्डा हैं | कैलाश सत्यार्थी और उन जैसो के संगठन ने जहाँ से अभियान चलाकर कई बंधुआ बाल मजदूर मुक्त कराये हैं | सर्व शिक्षा अभियान के तहत जो स्कूल इन ईट भट्टो के पास कभी खोले गये थे वे भी ‘दैनिक ट्रिबयून’ में कैथल से २६ जून को ललित कुमार दिलकश की रपट के अनुसार बंद कर दिए गये | शायद इस कारण से कि इन स्कूलों की वजह से भट्टों का धंधा बिगड़ रहा था |
हमारे देश में कालीन, कांच , पटाखे , खदान जैसे खतरनाक उद्योग में बालक नियोजित है |
1997 में अमरजीत कौर ने आन्ध्र प्रदेश के मार्कापूर की स्लेट खनिज इकाइयों पर धावा बोला जहाँ बहुसंख्या में बाल श्रम कार्यरत पाए गए । मार्कापुर की स्लेट की खाने 50 फूट गहरी हैं और 12 वर्ष से कम आयु के बच्चे वहाँ काम करते हैं । यही हाल उत्तर प्रदेश दे मुरादाबाद का है । जहाँ ब्रास वेयर्स उद्योग में बाल मजदूरों की भरमार है ।
हमारे देश के ये नोनिहाल देश के भीतर ही बाल मजदूरी का नर्क नही झेल रहे बल्कि बाल तस्करी के जरिये इन बलात बाल मजदूरों को खाड़ी और एशियाई देशो भी में धकेला जा रहा हैं | इस बाल तस्करी के तार पोर्न इंडस्ट्री और वेश्यावृत्ति के दलदल तक भी पहुंचे हुए हैं | इसी खतरे को भांपकर सुप्रीम कोर्ट ने १० मई २०१३ को ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ की जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए हर मिसिंग-चाइल्ड यानी बच्चे की गुमशुदगी पर एफ.आई. आर. को अनिवार्य बना दिया है |
देश में बाल मजदूरी और बाल शोषण से निजात पाने के लिए सक्षम कानून बनाने के लिए1979 में 'गुरुपाद स्वामी समिति' का गठन किया था जिसकी अनुशंसा को शामिल करते हुएबाल-मजदूरी (प्रतिबंध एवं विनियमन) अधिनियम को 1986 लाया गया और खतरनाक नियोजन में बाल मजदूरी को पूर्णत प्रतिबंधित और अपराध घोषित कर दिया गया | इस कानून में १८ वर्ष तक का मजदूर बाल मजदूर के रूप में परिभाषित है | देश के विकास लक्ष्यों और रणनीतियों के अनुरूप 1987 में एक राष्ट्रीय बाल श्रम नीति को भी अंगीकार किया गया।
लेकिन ना तो इस पर कारगर अमल हुआ और ना ही बाल मजदूरी से मुक्त कराये गये बाल मजदूरो का प्रभावी पुनर्वास हुआ | नतीजतन समस्या और विकराल होती चली गयी |
आज आंकड़ो के हिसाब से देश के कुल कार्यबल का ११ % यही बाल मजदूर है | यानी हर दसवे मजदूर में एक बालक है | आई . एल. ओ. के अनुसार इसका ६० % हिस्सा खेती में लगा है | एक दुखद पहलू यह है की हमारे देश में दुनिया के सबसे अधिक अनाथ बच्चे हैं । प्रतिवर्ष लगभग साढ़े ग्यारह लाख अवांछित बदनसीब बच्चे जन्म लेते हैं , जिनमें से अधिकांश 5-6 वर्षों के पश्चात् या तो भिखारी बना दिए जाते हैं या बाल मजदूर |
देश में जो डेढ़ लाख बच्चे भीख मांगने का काम करते हैं; वे बाल मजदूर के रूप में इन आंकड़ो में शामिल नहीं हैं क्योंकि वे परिभाषा से बाहर हैं |
एक समय सरकारी अनुमान के अनुसार भारत में बाल श्रमिकों की संख्या एक करोड़ सत्तर लाख थी । लेकिन यदि स्कूल से बाहर के सभी बच्चों को बाल श्रमिक माना जाये तो यह संख्या करीब 10 करोड़ होगी|
इस सम्बन्ध में डटथ् का फार्मूला है कि हर बच्चा जो स्कूल के बाहर है, बाल मजदूर है।
डटथ् का यह विश्वास है कि हर बच्चे को बचपन का और अपनी क्षमता तक विकसित होने का अधिकार है और बच्चे के द्वारा किया जा रहा हर काम उसके इस अधिकार में हस्तक्षेप करता है। उसका यह भी मानना है कि जो बच्चे पूरे समय छात्र हैं वे ही काम से दूर रखे जा सकते हैं और यह भी उसका विश्वास है कि बच्चे का बचपन वाला अधिकार तभी पूरा होगा जब वह पूरे समय के लिये छात्र बनेगा |
हमारे यहाँ बाल मजदूरों की सही गणना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि उनका एक बड़ा वर्ग परिवार के सदस्य की हैसियत से परम्परागत पेशे के काम-काज में हाथ बंटाता है या परिवार की आर्थिक गतिवधि में भाग लेता है | जिसे लेकर कुछ संगठनो ने सरकार पर दवाब बनाया कि उन्हें बाल मजदूर के दायरे से बाहर किया जाये |
इन संगठनो ने पारम्परिक शिल्प और पेशे को रूमानी मुद्दे की तरह देखा है |
यह सही है कि ग्रामीण अर्थव्यवथा को बनाये रखने में और गाँव से पलायन रोकने में पारम्परिक शिल्प और परम्परागत पेशा महत्त्वपूर्ण है | यह गांधीवादी माडल की बुनियादी शिक्षा से भी जोड़ा जा सकता है लेकिन बच्चे को उसकी शिक्षा से वंचित कर उसे परिवार के धंधे में धकेल देने का अर्थ होगा कि उसे एक नागरिक बनाने की अपेक्षा एक उत्पादक बना देना | इस तर्क को मान लेने का एक अर्थ यह भी है कि बीड़ी मजूर का बच्चा बीड़ी मजूर, कुम्हार का बच्चा कुम्हार ,बुनकर का बच्चा बुनकर बना रहे | डाक्टरी ,इन्जीन्यरी , प्रबन्धन के वाईट कालर जॉब कुछ ख़ास वर्ग के लिए ही सुरक्षित बने रहें | पारम्परिक पेशे और शिल्प को सीखना और उसमे जुटकर परिवार की आर्थिक गतिविधि में शामिल होना दो अलग –अलग बाते हैं , जिन्हें चालाकी के साथ गड्ड-मड्ड कर दिया गया है | जब कोई जातिगत –परम्परागत पेशा बच्चे से उसके व्यक्तित्व के विकास और खेलने, कूदने, सीखने, समझने के साथ अन्य रोजगार के अवसर छीन ले, तब वह बाल मजदूरी और बाल शोषण ही है भले उसकी वैचारकी कुछ भी हो |
लेकिन इसी बौड़म तर्क को सरकार ने आश्चर्यजनक रूप से स्वीकार करते हुए इसी साल २०१६ में अपने ही १९८६ के क़ानून को संशोधित कर दिया जिसके अनुसार अब १४ वर्ष से अधिक का बालक परिवार की मदद के लिए अखतरनाक नियोजन में नियोजित किया जा सकेगा | यह उदारीकरण की नीतियों का परिणाम है जो बालक के पुनर्वास की अनदेखी कर अर्थव्यवस्था के मुनाफे के लिए चिंतित हैं |
यानी अब राहुल चौधरी , अमोल चौकसे और सुमन जैसे बालक इस अभिशाप को वरदान की तरह ढोने के लिए अभिशप्त छोड़ दिए गये हैं |
यहाँ यह हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि बालश्रम किसी भी रूप में हो बाल शोषण है और इसशोषण के विरुद्ध हर बच्चे का अधिकार है कि उसका बचपना उसके पास रहे |
कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबल पुरुस्कार पाने वाली मलाला युसूफ जई कहती हैं
“एक बच्चा
एक पेन
एक शिक्षक
एक किताब ..
शिक्षा ही दुनिया को बदलने का उपाय है |”
यानी बच्चो को अनिवार्यत: श्रम से नहीं शिक्षा से जोड़ना होगा |
साथ ही बाल शोषण और बाल मजदूरी को एक सामाजिक अभिशाप की तरह भी देखने और व्यवहार करने की जरूरत है |
बचपन बचाओ आन्दोलन के जरिये बाल मजदूरी के अभिशाप के विरुद्ध सक्रिय कैलाश सत्यार्थी की इस अपील को अमल में लाने की भी जरूरत है, कि हम यह तय करें कि जिस घर में बाल श्रमिक होगा हम उस घर में पानी भी नहीं पियेंगे |
लड़ाई लम्बी है लेकिन सुरक्षित और मानवीय भविष्य के लिए आज के बचपने को सुरक्षित और मानवीय करना ही होगा ||
|| हनुमंत किशोर ||