Monday, July 23, 2012

manto


              मंटो : खारे बियाबान में कतरा शबनम  
[जन्म शती पर विशेष ]
               यदि तुम मेरे अफसानों को गंदा पाते हो , तो जिस समाज में तुम रह रहे हो वह गंदा है |मेरी कहानी केवल सच्चाई का खुलासा करती है |

                            हमारी तहरीरें आपको कड़वी और कसेली लगती हैं ,मगर अब तो जो मिठास आपको पेश की जाती रही उनसे इंसानियत को क्या फायदा हुआ है ?नीम के पत्ते कड़वे सही ,मगर खून ज़रूर साफ़ करते हैं|

                                             सहादत हसन  मंटो
                 मंटो के अफसाने नीम के कड़वे पत्ते सही मगर  कहानी की दुनिया में आज भी मंटो का सिक्का चलता है | आज मंटो होते तो सौ पार होते |  पर आज भी उनकी किताबें ,कहानियाँ एक साथ रेहड़ी वालों और बड़े प्रकाशकों का पेट पाल रही हैं | निचले और उपरी यानी आम और खास दोनों तरह के लोग आज भी उन्हें उतना ही पसंद करते हैं जितना मंटो के अपने ज़माने में | उनकी कहानियाँ ज़ब्त हुईं | उनपर मुकद्दमे चले | उनकी ज़ाती ज़िन्दगी पर फिक़रे कसे गए |तरक्की पसंदों ने उन्हें हाथो हाथ लिया तो फिर लानत मलानत भी की | उन्हें महबूब की तरह मोहब्बत की गयी तो शैतान की तरह भी बताया गया |गोया ज़िन्दगी के हर लुत्फोसितम मंटो ने झेले और जो दुनिया ने उन्हें दिया ,जैसी दुनिया उन्होंने देखी वही कहानियों में उतार दी | अपना कोई फैसला दिये बिना और लोगों के फैसले की परवाह किये बगैर| यही वज़ह है कि बड़े बड़े शूरमा तक एक ही कोर्ट केस में चीं बोल जाते हैं  लेकिन मंटो ने एक नहीं पूरे ६ मुकदमे अश्लीलता के इल्जाम के साथ  सच्चाई लिखने के जुर्म में झेले| ३ आज़ादी के पहले और ३ आजादी के बाद | वो भी बू खोल् दो ठंडा गोश्त और ऊपर नीचे और दरमियाँ जैसी कहानियों के लिए | ठंडा गोश्त के लिए ३ महीने की कैदे बामुशक्त  और ३०० रूपये जुर्माने की सज़ा भी हुई | बाद में हाई कोर्ट ने क़ैद मुआफ कर दी लेकिन जुर्माना  बनाये रखा |लेकिन  मंटो अपनी राह चलते रहे |वे जैसे कहानी के मार्फ़त एक आइना कौम को दिखा रहे थे | कि दुनिया वालों ये हैं तुम्हारा चेहरा अब यदि ये गंदा है तो इसे साफ़ करने , बदलने से तुम्हे किसने रोका है | मगर दुनिया अक्सर चेहरे साफ़ नहीं करती | उन आइनों को ही तोड़ देती है जो उसे चेहरे की गंदगी दिखाते हैं | मंटो के साथ भी दुनिया ने यही किया |
११ मई १९१२ को  सरमाला { लुधियाना} पंजाब जो अब पाकिस्तान में है सहादत हसन पैदा हुए | जिस उम्र में लोग पढ़ने की तमीज़ हासिल करते हैं उस उम्र में मंटो की किताबे छप चुकी थी | आतिशे पार जब आया तब मंटों की  ताज़ी ताज़ी मसें भींगी थीं |उस उम्र में नंगी आवाजे लिखना हैरान करता था | और जिस उम्र में लोग अफसाना लिखना शुरू करते हैं उस उम्र में मंटो अपना कुतबा आप लिख कर ज़माने से विदा हो लिए |कहते हैं कि शाइर को ४० के बाद जिंदा नहीं रहना चाहिए और अफसाना निगार  को ४० के पहले अफसाने लिखने शुरू नहीं करने चाहिए | लेकिन  १८ मई १९५५ लाहौर में जब उन्होंने अलविदा कहा तो वे बस ४२ ही पार कर पाए थे |मंटो बड़ी ज़ल्दी में थे | उनमे सब्र  नहीं था |संयम और सलीके के तो  सहादत हसन असल जिंदगी में दुश्मन ही थे | न होते  तो मंटो न होते |इलियट जिसे मोमबत्ती के दोनों सिरों का जलना कहते हैं वो मंटो के यहाँ हकीक़त था | बकौल  ग़ालिब  मैं  हूँ वो कतरा ए शबनम जो हो खारे बियाँबा  पर |मंटो इस शेर को अपने लिए एक जगह इस्तेमाल भी करते हैं और जो वाज़िब भी है | मंटो ने पसमंजर में अपने लिए फांसी की सज़ा खुद मुकर्रर की | लेखक बतौर २ दशक में जो मंटो कर गए उसे अंजाम देने में दूसरों को दो सदियाँ भी कम पड़ सकती हैं| देवेन्द्र सत्यार्थी ने सटीक लिखा है
                         मरने के बाद मंटो खुदा के दरबार में जब पहुँचा तो खुदा से बोला कि तुमनें मुझे क्या दिया सिर्फ ४२ साल कुछ महीने और कुछ दिन |मैंने सुगंधी को सदियाँ दी हैं|

                        और हतक की सुगंधी ही क्यों ? ठंडा गोश्त का  ईशर सिंह, नया कानून का मंगू कोचवान नंगी आवाजे का भोलू ऐसे कितने किरदार हैं जो ज़माने से उठकर उनकी कहानियों में आकर यादगार हो गए| वे किरदार जो उनके अफसानों में आते हैं अक्सर  ज़िन्दगी के  सियाह इलाकों में ही मिलते हैं | रोशन ज़िंदगियाँ उनसे कभी नहीं मिल पाती |स्याह हाशिये उनकी एक किताब का नाम भी है | ये वे लोग हैं जिन्हें हम जब अपनी रोजमर्रा ज़िन्दगी में देखते हैं तो नाक भौं सिकोड़कर मुँह फेर लेते हैं |उनसे हमें घिन भी आती है | क़ानून की नज़र में वे अपराधी भी हो सकते हैं| मगर मंटो की दुनिया उन्ही से बनती है  वहाँ वे जैसे हैं वैसे ही आते हैं ना  फ़रिश्ते ना शैतान की तरह बल्कि हाड़ मांस के इंसान की तरह जो जिस्मानी और ज़ज्बाती ज़रूरतों का मारा है , चुगद के तई |लिहाजा वे अपराध भी करते हैं और उनसे  गुनाह भी होते हैं | जानवरों की तरह दिखने के बाद भी वे इंसानियत की कोमलता को सहेजे हुए होते हैं और यही वो चीज है जो मंटो को मंटो बनाती है|निचले तबके और स्याह इलाके में पाए जानेवाली वेश्याएं ,रंडियाँ, हत्यारे , पागल ,उच्चके सभी  साबुत  के साबुत हो मंटो के अफसानों में दाखिल दर्ज  हैं | मिसाल के तौर पर ठंडा गोश्त का ईशर सिंह | दंगों के दरमियाँ एक वहशी जो लूटपाट क़त्ल कर एक नन्हीं जान को  अपनी हवश बुझाने   के खातिर उठा ले जाता है | जो  दहशत से उसके कांधों पर ही मर जाती है | जब हवस का मारा ईशर सिंह उसे कंधो से उतारता है तो  एक बेजान जिस्म के साथ  जिना का घिनौना ख्याल उस पर हादसे की शक्ल में तारी होकर उसे आगे के लिए नामर्द बना देता है | जो इस बात की ताईद है कि जानवर में भी थोड़ी इंसानियत की किरच बाकी है | यहाँ जो खराश ईशर सिंह की रूह पर दिखती है वो मानो पढ़नेवाले सुनने वाले सभी की रूह पर निशान कर जाती है |
                           इसके उल्ट टोबा टेक सिंह के मार्फ़त वे तथाकथित सभ्य दुनिया के पर्दों के पीछे के झूठ को नंगा करते हैं| उनके किरदार कहानियों के अंत में भौचक कर देते हैं जिसका कोई इल्म शुरुआत में नहीं होता|मंटो अपने किरदार का मन खूब तरह से समझते हैं | हालाँकि अपने ऊपर एक लेख सहादत हसन में मंटो इस बात से इंकार करते हैं कि उन्होंने फ्रायड को पढ़ा है | लेकिन  यौन  कुंठाओं  ,वर्जनाओं के मानसिक असर की ऐसी मिसाल वहाँ है कि मनोविज्ञान की पाठशाला में उनकी कहानियों से  केस हिस्ट्री जैसी मदद ली जा सकती है|मिसाल के तौर पर बू |
                    समाज की वर्जनाओं के चित्रण की वजह से उनकी मिसाल अक्सर डी . एच. लारेंस के साथ दी जाती है |
                       मंटो अपने किरदारों को लेकर कतई जजमेंटल नहीं होते| ना उनकी पैरवी करते ना ही उन्हें लानत भेजते हैं|उनके दुःख से दुखी  नहीं होते   ना ही  उनके सुख से सुखी होते | वे अपने किरदारों को किसी तरह का डिक्टेशन नहीं देते | किरदारों से इतनी ठंडी दूरी साधुओं में भी नहीं दिखती | उनका अंदाज़ कुछ कुछ किस्सागोई का होता है मगर किस्सागो जहाँ किस्सा बुनता है वे मानो किस्सा उधेड़ते हैं| जैसे कोई  ऊन का स्वेटर एक सिरे से खीचता चलता हो | या प्याज के छिलके एक एक कर उतारते जाता हो | |लेकिन अंत में कई बार जैसे  उनकी कलम की नोक में डंक आ जातो है  |  कुल जमा  तहजीब जिसे कालीन के नीचे छुपा देती है मंटो उसे अपनी कहानियों में समेट लाते हैं |मंटो न तो समाज को चोली पहनाने का काम करते हैं और न ही चोली उतारने का | मंटो ने अपने बारे में खुद लिखा था कि वे कोई एक नाम सोचना शुरू करते हैं और लिखने लगते हैं| कहानी का कोई प्लाट ज़ेहन में पहले से नहीं होता | मंटो के लिए कहानी बच्चे का खेल थी | रोजाना एक कहानी की रफ़्तार से भी उन्होंने लिखा|चुटकी बजाते  हुए संपादक की टेबल पर बैठ कर लिखा और २५ रुपये लेकर चलते बने | या सिलसिला बरसों चला | गरज की कहानी मंटो के खून में दौडती थी |
                          मंटो ने जो ज़हर ज़ाती ज़िन्दगी में पिया वही उनके अफसानों में बह निकला |मंटो ने अदालत में कहा था कि एक लेखक कलम तभी उठता है जब उसकी संवेदना आहत होती है|ज़माने में जो हादसे मंटो के कलेजे में कील की तरह चुभे , उनका लहू और मवाद कागज़ पर कहानी में  की शक्ल में बह निकले| दंगो में  मंटो जो वहशीपन देखा वो खोल दो और ठंडा गोश्त में उभर आया | ठंडा गोश्त पढ़ने के बाद यदि आपके भीतर का दरिंदा ठंडे गोश्त में तब्दील नहीं हो जाता तो समझिए कि इंसान होने में कोई कसर बाकी है  | स्लम बस्ती में टाट के परदे के इस पार और उस पार जो खेल होता है और उसकी अपनी जो मजबूरियाँ हैं उनकी शिनाख्त  नंगी आवाजें  में की जा सकती हैं |तंगदस्ती में मंटो का साबका ऐसी ज़गहो से बारहा हुआ | अपनी असल ज़िन्दगी में मंटो तंगदस्ती में जिए | एक समय ऐसा आया कि लोग उन्हें बुलाने से भी कतराने लगे कि जाने कब उधार मांग बैठे | खासकर बम्बई में फिल्म का अच्छा खासा मुकाम और दाम छोडकर जब बंटवारे के कारण  उन्हें लाहौर जाना पड़ा | बँटवारे के खिलाफ़ गुस्सा और दर्द टोबा टेक सिंह में बहुत साफ़ है | मगर इन सब को दरकिनार कर मंटो को बार बार फुहश यानी अश्लील लेखन के लिए ताना दिया गया कचहरी में घसीटा गया | इससे अजीज आकर मंटो को कहना पड़ा लानत है सआदत हसन मंटो पर कमबख्त को गालियाँ भी ठीक से नहीं मिलती |
                                ज़ाती जिंदगी भी एक खब्त मंटो पर सवार रहती | कोर्ट  के मुकदमों  तंगदस्ती और  उधारी के दौरान मंटो  खुद की तुलना ग़ालिब से करने लगे| जिन्हें जुआ खेलने  की लत  के चलते जेल की हवा खानी पड़ी थी और पीने की लत ने जिन्हें कर्ज़दार बना दिया था | पता नही कब किस घड़ी दारू मंटो के होंठों से लगी | और फिर ऐसी लगी कि छूटे ना छूटी और लिवरोसिस की शक्ल में मौत का सबब बन गयी | नशे की लत ने उन्हें कितना गिराया इसका ज़िक्र खुद उन्होंने कई मर्तबा कई जगहों पर किया है| कैसे वे सारी कमाई अपनी बीबी सोफ़िया  को सौंप देते | और देखते रहते की वो पैसे कहाँ छुपाये गये| फिर उन्हें चुरा लेते और इलज़ाम आता नौकरों पर | बाद में इन्हीं वजहों से सोफ़िया ने उन्हें बहुत बड़ा झूठा तक कहा | और उनकी मयनोशी और खब्त का संज़ीदगी से इलाज़ कराना चाहा | मंटो मेंटल अस्पताल में भर्ती कराये गये लेकिन कमाल ये कि मंटो ने वहाँ भी अपने किरदार खोज लिए | टोबाटेक सिंह की ज़मीन उन्हें वहीँ मिली| लेकिन ख़ब्त और मयनोशी के नीमपागलपन में भी मंटो को बराबर अपनी कमजोरियों का इल्म रहा | मंटो ने जिस बेरहमी से अपनी कमजोरियों का खुलासा अपने लेखों में किया वैसा बहुत कम लोग कर पाते हैं| सहादत हसन इसकी मिसाल है | जिसमे अपने अफसानों की तुलना  वे उस तिल से करते है जो हसीना सुरमे से अपने गाल पर बनाती है |मयनोशी और खब्त के दौरों के दरम्यान भी मंटो कभी अपना या अपनी कहानी का किरदार भूल गए हों ऐसा नहीं जान पड़ता | अपने किरदारों का इल्म उन्हें हर लम्हा रहा |
                            यदि उन्होंने  वेश्याओं पर  लिखा तो उसकी मजबूरियों से मनोरजंन नहीं किया | उसका समूचा समाज विज्ञान और मनोविश्लेषण प्रस्तुत किया | उन्होंने  ताईद की कि हर औरत वेश्या नहीं होती किन्तु हर वेश्या औरत होती है | वे उसकी मिसाल कचरा उठाने वाली मुनिसिपाल्टी की गाड़ी से देते हुए लिखते हैं ये औरते उजड़े हुए बाग हैं जिनमे गंदे पानी की मोरियां बह रही हैं | वे इश्मत फरोशी की जड़ो तक पहुँचते हैं | मंटो लिखते हैं दुनिया में जितनी लानते हैं भूख उनकी माँ है | भूख गदागरी सिखाती है भूख ज़राइम की तरगीब देती है | भूख इश्मत फरोशी पर मजबूर करती है ,भूख इन्तिहापसंदी का सबक देती है |.... भूख दीवाने पैदा करती है , दीवानगी भूख पैदा नहीं करती |

 
                 मंटो का होना अपने  और ज़माने के दुरंगेपन ,धूर्तता और  हैवानियत के खिलाफ़ होना था मगर बगैर शोर किये  बेआवाज़ | उस वक्त का एक इश्तहार काबिले गौर है जो तरक्की पसंद    सवेरा में उनकी कहानी पर छपा था -
            सहादत हसन मंटो सच्चाई का झंडा बुलंद करता है | उसके हाथ में सच्चाई की दोधारी तलवार है जिसे वो हुकूमत और समाज के जंगल में इन्तिहाई बेरहमी से घुमाता है और बनावट के पर्दों को फाड़ता चला जाता है | उसे गालियाँ मिलाती हैं और वो मुस्कुरा देता है | वो दुआओं और तलवारों के परवाह किये बिना एक ऐसी राह पर आगे की और बढ़ रहा है जिस पर सिर्फ वही चल सकता है |
             मंटो के अपने ज़माने में और आज भी मंटो को खाँचे और खाने में क़ैद करने के बहुत काम हुए मगर मंटो जैसो को किसी हद में बाँधना मुमकिन नहीं है | वे स्वयं अपनी कसोटी और मयार हैं| अपनी कलम के ज़रिये वे इंसानियत का  धरम कांटा तैयार करते हैं |
                                   मंटो की राख के नीचे अभी भी बहुत सी चिंगारियाँ दबी हैं , मगर हममें आग में झुलसने का हौसला कितना है ? असल सवाल यह है|
                              


मंटो ने कहा था ....

           { मंटो का कहा कुछ मेरा पीछा करता रहता है ...जिनमें  यहाँ कुछ  पेश हैं }

अगर आप मुझे पत्थर ही मारना चाहते हैं तो खुदारा ज़रा सलीके से मारिए |मैं उस आदमी से हरगिज़ हरगिज़ अपना सिर फुड़वाने को तैयार नहीं जिसे सिर फोडने का सलीका ही नहीं आता ...दुनिया में रहकर जहाँ आप नमाज़े पढ़ना, रोज़े रखना और महफिलों में जाना सीखते हैं वहाँ पत्थर मारने का ढंग भी आपको सीखना चाहिए |



                      मुझे बड़े शौक से गालियाँ दीजिए | मैं गली को बुरा नहीं समझता , इसलिए कि ये कोई फितरी चीज नहीं नहीं , लेकिन जरा सलीके से दीजिए | न  आपका मुँह बदमज़ा हो और न मेरे ज़ौक को सदमा पहुंचे |



मुझे  नाम निहाद नक्कादों में कोई दिलचस्पी नहीं | नुक्ताचीनियाँ  सिर्फ पत्ते नोचकर बिखेर सकती हैं ,उन्हें जमा करके एक सालिम फूल नहीं बना सकतीं |

                          रोटी, औरत और तख्त | और अगर इंसान इनसे उकता गया तो खुदा  यानी  एक ऐसी ताकत जो रोटी औरत और तख्त से कहीं ज्यादा नाकाबिले फहम और नाकाबिले रसा है |

अगर एक ही बार झूठ न बोलने और चोरी न करने की तलकीन करने पर सारी दुनिया झूठ और चोरी से परहेज़ करती तो शायद एक पैगम्बर काफी होता लेकिन जैसा आप जानते हैं पैगम्बरों की फेहरिस्त काफी लंबी है |

                  वेश्या का मकान खुद एक ज़नाज़ा  है जो समाज अपने कंधों पर उठाये हुए है | वह उसे जब तक दफ़न नहीं करेगा उससे मुताल्लिक बातें होती रहेंगी  |

अगर वेश्या का ज़िक्र मम्नूह [ निषिद्ध] है तो उसका पेशा भी मम्नूह [ निषिद्ध] होना चाहिए | वेश्या को मिटाइए उसका ज़िक्र खुद ब खुद मिट जायेगा |

                    मेरे अफसाने तन्दुरूस्त और सेहतमंद लोगो के लिए हैं | नार्मल इंसानों के लिए जो औरत के सीने को औरत का ही सीना समझते हैं और इससे ज्यादा आगे नहीं बढते |

 रोटी खाने के मुताल्लिक  एक मोटा सा उसूल है कि हर लुक्मा अच्छी तरह चबाकर खाओ |....पढ़ने के लिए भी यही मोटा उसूल है कि हर लफ्ज़ को हर सतर को हर ख्याल को अच्छी तरह ज़ेहन में चबाओ |

                  मैं तहजीबो तमद्दुन की चोली क्या उतारूँगा , जो है ही नंगी | मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता इसलिए कि यह मेरा काम नहीं दर्जियों का है |

ज़माने के जिस दौर से हम इस वक़्त गुज़र रहें हैं  अगर आप उस से नावाकिफ हैं तो मेरे अफसाने पढ़िए | अगर आप उन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं तो इसका मतलब यह है कि यह ज़माना नाकाबिले बर्दाश्त है|

ज़माने की करवटों के साथ अदब भी करवटें बदलता रहता है |

                     चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है , मेरे अफसानों की हिरोइन नही  हो सकती | मेरी हिरोइन चकले की एक टखियाई रंडी हो सकती है जो रात को जगाती है और दिन को सोते में कभी कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाजे पर दस्तक देने आया है |

जब तक औरत और मर्दों के ज़ज्बात के दरमियाँ एक मोती दीवार हाइल रहेगी , इस्मत चुगताई उसके छूने को अपने तेज नाखूनों से कुरेदती रहेगी|जब तक कश्मीर के हसीन देहातों में शहरों की गंदगी फैली रहेगी गरीब कृशनचंदर  हौले हौले रोता रहेगा |जब तक इंसानों में और खास तौ़र पर सआदत हसन मंटो में कमजोरियाँ मौजूद हैं वह खुर्दबीन से देख देख कर बाहर निकालता रहेगा और लोगों को दिखाता रहेगा |


  

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