Sunday, August 21, 2016



social media : मीडिया सोशल मीडिया और हम

मीडिया ,सोशल मीडिया और हम
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“मीडिया  ही  संदेश  है”... यह  वक्तव्य  समूची  मीडिया  संस्कृति  को  ध्वनित  करता  है  |
आप  आधुनिक सभ्यता-संस्कृति का  अध्ययन करना  चाहते  हों  तो  मीडिया के  अध्ययन से  शुरू  करें | इसका  बदलता स्वरूप, इसकी  हमारे  समाज और जीवन   में  बढती घुसपैठ  हमारे  समय  का  बेहतरीन  क्रिटीक  है | आदिम  समाज  का  वाचिक  मीडिया  मध्यकाल  में  प्रिंट  मीडिया हुआ आधुनिक  काल  में  इलेक्ट्रानिक  और  चाक्षुष होते  हुए  उत्तर  आधुनिक  काल  तक आते -आते  डिजिटल होकर  आभासी  हो  गया  | वह  सरकार और  पूँजी के पोंगे  की  जगह सोशल और  डेमोक्रेट  हो  गया ऐसा  कि मोबाइल और  नेट  की  शक्ल में  दुनिया  आम आदमी  की  मुट्ठी  में  कैद  हो  गया  | नेता-अफसर- नौजवान के  लिए  कभी टेक्नो सेवी  होना  गर्व  की बात  थी  आज  सोशल मीडिया  सेवी होना  गर्व की  बात बन चुकी है  | इस  वर्तमान  मीडिया  ने  ज्ञान  और सत्ता के परम्परा से चले  आ  रहे मठ  ध्वस्त किये  है | सूचना और ज्ञान  को इजारेदारी से  मुक्त कर  उसे  लोकतांत्रिक और  जन सुलभ  बनाया  है | अब  एकलव्य  और शम्बूक  की ज्ञान तक सहज  पहुँच सम्भव हुई  है | सीन गार्डनर ने  उचित  कहा  है  कि सोशल मीडिया एक  कार्यवाही मात्र  नहीं  अपितु भागीदारी है | इस तरह  इस  मीडिया के  जरिये  हम  शासन सरकार समाज की  कार्यवाही में सीधे  शामिल होते है | इस समाज-समूह की  कार्यवाही  में  हरएक  की  भागीदारी  बराबरी की है  आप  कितने  भी  बड़े  बल्लम हों  यहाँ कोई  भी ओना-पौना आपसे बराबर से खड़ा होगा | और उतना ही  मूल्यवान है |
यह मीडिया का लोकतंत्र है |एक समानंतर मीडिया है | जहां कोई मठाधीश नही है | जो क्रान्ति ७०-८० साल पहले कविता के क्षेत्र में कभी निराला ने मुक्त छंद लाकर की थी वो आज सोशल मीडिया ने समूचे लेखन में कर दी है | आज यहाँ जिसे भी तनिक लिखना आता है वो लेखक है | उसे अपने लिखे के लिए किसी सम्पादक ,आलोचक , 'हंस' , 'कल्पना' , 'सरस्वती' की मुहर की जरूरत नहीं रही | वो आप ही लेखक हैं ...सम्पादक हैं ...पाठक हैं ..आलोचक भी है | लाइक्स गिनकर अब वो रातो रात स्वयम्भू कालजयी ,विश्वजयी घोषित हो जाता है |
कभी  मीडिया बारे  में जो  सूचना,शिक्षा और  मनोरंजन  की  रैखिक सैद्धांतिकी  विकसित  की  गयी  थी  वो  आज  छिन्न  भिन्न  होकर अतिरेक  के चरम पर  है  | कही वो  सूचना विस्फोट  से आक्रान्त करता  है  तो कहीं  अफवाहों  से अस्थिर तो कही  मनोरंजन के  नाम  पर  पतन  की  फिसल पट्टी  पर फिसलता हुआ पोर्न इंड्रस्ट्री में  रूपांतरित  हो  गया  है |
लेकिन  इस  पूरे  विकास क्रम में  एक  बात  तसल्ली की जरुर हुई  कि मीडिया  पर  पूँजी और सरकार  की  इजारेदारी  ढीली  पड़ी और  उसका  अधिकाधिक जनतंत्रीकरण हुआ  है  यद्यपि यह  तसल्ली  ज्यादा देर  शायद ही  कायम  रह  सके  क्योंकि  पूँजी और सरकार  ने  अपनी  नकेल  डालनी शुरू  कर  दी  है  ...वक्त  जरूरत  लगाम  कसने  की देर  है  |
     सोशल  मीडिया  की  ताकत  के कई  ताज़ा उदहारण सामने  है | हाल  ही   गुजरात की  भूतपूर्व मुख्यमंत्री आनन्दी बेन  पटेल  का  पद से अपने  त्याग पत्र किसी प्रेस कांफ्रेंस में  नहीं दिया बल्कि सोशल मीडिया  में  किया | वही सरकार  गुड गर्वनेस के  लिए  पूरी  तरह  से  सोशल  मीडिया  की  शरण में  जा  चुकी है | रेल मंत्रालय , गृह मंत्रालय जैसे  कई मंत्रालय और  विभाग शिकायत  सुझाव वहीँ से  प्राप्त कर रहे  है और  वहीं  आदेश दिये जाकर योजनाओं  का  क्रियान्वन  भी किया  जा  रहा  है  | इसके पीछे प्रभाव का  मनोविज्ञान  भी है | जिसके अनुसार हम कुछ खरीदते वक्त किसी वस्तु के विज्ञापन से  उतना  प्रभावित  नहीं होते  जितना  अपने  इष्ट मित्र ,परिजन की  राय  से  |इसने अपना एक बाज़ार तैयार कर रोज़गार के असवर भी खोले हैं तो ठगी के अवसर भी |
जहाँ  सरकार  इसका  बैशाखी की  तरह इस्तेमाल कर  रही  है वहीं सरकार  के खिलाफ  आन्दोलन भी  यही  से जन्म  ले रहे  है | गुजरात  के  पाटीदार आन्दोलन में ..कश्मीर  के  हाल  ही  के  दुर्भाग्य पूर्ण  घटनाक्रम में ..इसकी ताक़त सहज  चीन्ही  जा  सकती  है  | यहाँ इस  विडम्बना को  भी देखा  जा  सकता  है जिसमे गृह मंत्री  जहाँ  एक  तरफ सोशल  मीडिया  में कश्मीर  के  लिए  शान्ति  की  अपील  कर  रहे  हैं वहीं कश्मीर में  इंटरनेट  की  सेवा  रद्द कर  दी  गई |इंटर  नेट  की  सेवाओं को  लेकर  कुछ  ऐसा ही  रूख गुजरात  में  पाटीदार  आन्दोलन  के  समय  हुआ  था | यानी यह  माध्यम  सरकार  के  लिए ‘भई गति  सांप  छछुंदर  केरी..’ हो  चुका  है  | हाल  ही के  संकेतो  से  यह साफ  है  कि  सरकार इसे  अपनी  मुट्ठी से  मुक्त नहीं  करनी  चाहती | सूचना प्रोद्योगिकी अधिनियम २००० के  कई  प्रावधान सुरक्षा  के नाम  पर  इसी  दूरागामी उद्देश्य  को  भी  साधते दिखते हैं | हालांकि इससे  कोई इंकार नहीं  कर  सकता  कि  माध्यम  को  पूरी  तरह  से  मुक्त  रखना  भी  उतना  ही खतरनाक है  जितना  उसे पूर्णत नियंत्रण  में  रखना |पहला  जहाँ अराजकता  के  खतरे  उत्पन्न करता  है वहीं दूसरा माध्यम को  शक्ति हीन  बना  देता है  |  ऐसे  में  नियत्रण हो लेकिन तार्किक होकर  माध्यम और जन  के  पक्ष में  हो  ना  कि  समाज की  सुरक्षा   की  आड़ में  सरकार  और  वर्चस्व शाली वर्ग के   पक्ष  में  |जिसका  संकेत  हर्बर्ट शीलर  ने  अपनी  पुस्तक में  संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व  के बहाने  दिया  है  | इसकी  बानगी हम  आज देख सकते  है जहाँ  सोशल  मीडिया  में  प्रतिसंस्कृति   की  टिप्पणी को  आस्था  पर  चोट  के  नाम  पर  दबाया , डराया  धमकाया  जा  रहा है भले ही  वे  बौद्धिक और  इतिहास सम्मत हो | आस्था और  विश्वास के  नाम  पर  हर  मूर्खता स्वीकार  की जायेगी लेकिन  विचार  और तर्क को  भावनाओं पर  चोट  के  नाम  पर खारिज  कर  दिया  जायेगा|उनके उपर शिकायत की तलवार लटका दी जायेगी | वे इस बात को भली भाँती जानते हैं कि जो मीडिया को नियंत्रित करेगा वही जन के मस्तिष्क को भी नियंत्रित कर सकेगा | इसलिये सत्ता के सभी प्रतिष्ठान अपने सायबर लड़ाके ..सायबर पुलिस यहाँ तैनात करते जा रहे हैं |
यहाँ भारतीय सम्विधान में  वर्णित वैज्ञानिक चेतना के प्रसार  बाबत मूल कर्तव्य के  साथ यूनेस्को  की  वह घोषणा भी  याद  रखी  जानी  चाहिए जिसमे संचार  के  अधिकार  को मनुष्य  के  बुनियादी  अधिकार  के   रूप  में   मान्यता  दी गयी है |
संचार  और  अभिव्यक्ति के  इसी  अधिकार  का  सम्मान  करते हुए कभी  अमेरिकन  राष्ट्रपति थामस जेफरसन ने  कहा था “यदि  सरकार  और  अखबार  में से  किसी  एक  को  चुनना  हो  तो मै सरकार  को  चुनूगा |”
आज  सोशल  मीडिया  ही  दूसरे मीडिया  के  लिये ट्रेंड सेटर हो  चुका  है  ...सोशल मीडिया  से  ही निकलकर  बहस  टेली विजन पर  पहुँच  रही  है .. अखबार अपने  पन्ने  यहाँ  के ब्लॉग .. ट्वीट ...कमेट ..जोक को  समर्पित करते  जा  रहे  है  | २०१५ में कोलम्बो में ब्लॉगर का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बड़ी चर्चा में रहा |जिसमे सोशल नेटवर्किंग को नये सम्वाद बताया गया |बरखा दत्त अर्णव गोस्वामी , श्वेता सिंह , सागरिका घोष जैसे परम्परागत मीडिया आयकून सोशल मीडिया में नये फालोवर तलाश रहें हैं |नेता अभिनेता सब यहाँ लाइक्स गिनते देखे जा सकते है | साहित्य यहाँ से निकलकर साहित्य के बाज़ार में भी धमक दे रहा है | रवीश कुमार अपनी फेस बुकिया टिप्पणियों को 'लप्रेक ' से सुसज्जित कर 'इश्क तेरे शहर में ' के नाम से जब बाज़ार में उतारते हैं तो 'जानकी पुल ' उसे साहित्य के लप्रेक वाद से विभूषित करता है | कल तक आभासी संसार कहकर उपहास उड़ाने वाले आज इस आभासी संसार में भाड़े के टट्टुओं पर सवार हैं |
आजादी आन्दोलन के  दौर में  जो भूमिका अखबार  की  थी बाद  में विगत तीन-चार दशक तक  जो  भूमिका टेलीविजन की रही, आज  वही सोशल मीडिया  की है | आज  का  ओपिनियन लीडर यही सोशल  मीडिया  है | इसलिये कल तक इसका  उपहास  उड़ाने  वाले  भी अपना चेहरा चमकाने  के  लिए  यहाँ  किराये के  टट्टुओं के  साथ  जम गये है | पार्टी  और  संगठनो ने  प्रोफेशनल साइबर  लड़ाकों की  बाकायादा भर्ती शुरू  कर  दी है | यही  से  हम  सोशल  मीडिया  के लोकतांत्रिक स्वरूप  को  नष्ट  होते  देख  सकते  है | अखबार  कभी उद्योग होने  की  होड़ में अपने  लक्ष्य  से  भटक  गया था और टेली विजन टी आर  पी  की  बीमारी से बर्बाद  हुआ था | सोशल मीडिया  के  सामने  विश्वसनीयता का  संकट  है  ..यदि  इसे  सेंसर शिप  से  आज़ाद  रखना है  डिक्टेटर शिप से  दूर रखना  है तो यहाँ आत्मानुशासन लागू  करना होगा  | जल्दीबाजी के  खतरे से  बचना  होगा | यहाँ खतरा एक्शन या  रीएक्शन का  नहीं  ओवर एक्शन का है | टेली विजन  जहां  बेबी सीटर बन  गया था वही सोशल मीडिया भी तेजी से व्यसन में तब्दील होता जा रहा  है | इस मीडिया ने हमारा एकांत हमारी निजता, हमारी गोपनीयता का अतिक्रमण भी किया है | अब जो प्रायवेट है वो पब्लिक है |शादी -हनीमून -जन्म -मरण सब कुछ परोसे जाने को बेताब है | यहाँ के सम्बन्ध निजी जीवन में दाखिल होकर निजी जीवन को न्ताव ग्रस्त करते देखे जा सकते हैं | विवाह टूट रहे हैं , विवाह हो रहे हैं |यहाँ के अपने व्यामोह हैं | आत्म मुग्धता , आत्म प्रचार , आत्म रति इसका दुर्गुण बनता जा रहा है |
मीडिया  समाज  और सच  के  जिस  खतरे को  फिल्म  ‘पीपली लाइव’ में  दिखाया गया  है  वह अतिरंजना नहीं  सच  है और सोशल मीडिया  पर  भी  उतना  ही   मौजू  है | हम दुखद रूप से सोशल  मीडिया  को ‘अफवाह का  मनोरजन’ बनते  देख  रहे है  इस  पर  तत्काल  कारगर  विचार  और उपाय  की  दरकार  है  |यह हमेशा याद रखा जाना चाहिये कि यह माध्यम एक तकनीक से अधिक एक समाजिकी और मनोविज्ञान अधिक है जिसके पहले नियन्ता हम ही हैं और इस माध्यम की शक्ति और सीमा हमारे अपने विवेक पर ही निर्भर करती है | सामाजिक माध्यम में विवेकसम्मत सामाजिक होना पड़ेगा ..अन्यथा इस माध्यम के असामजिक होने में देर नही लगेगी |
हनुमंत किशोर ...मीडिया  वर्कशॉप रीवा दिनाक  १३ -८- १५ हेतु बीज  वक्तव्य