प्रेमचंद होने के अर्थ
“ आज भी आप किसी देश
में जाइये , वह किसी कवि या कहानीकर को नहीं जानता होगा लेकिन प्रेमचंद को जानता
होगा निश्चित रूप से इसलिए की सब जगह होरी है .सूरदास है ,महाजनी सभ्यता है”
महादेवी वर्मा का
बहुत पहले का यह कथन आज भी सौ टका सही है |और
जो दुर्लभ रसायन कबीर और तुलसी के पास है वही प्रेमचंद में भी है जो उन्हें
एक साथ लोकप्रिय और स्तरीय बनाता है | जनता बुक स्टाल और अकादमी के पुस्तकालय में
वे एक ही समय में उपस्थित हैं | ‘लम्ही ‘ में उनकी प्रतिमा भले धूल चाट रही हो और उनकी किताबों का कुछ अतिरेकी अज्ञानी भले नाटकीय दहन कर रहे हों
किन्तु उनके रचे घीसू ,माधव, होरी , धनिया, सिलिया , गोबर , सूरदास, सोफिया ,सुमन
, जलापा, सुजान, मोटेराम ,तोताराम ,हामिद , अलगू चौधरी ,जुम्मन दुखी चमार
इत्यादि आज भी गाँव कस्बे नगर में अतरे कोतरे में
चीन्हें जा सकते हैं |बरसों की धूप, धूल, बारिश और तूफ़ान गुजर जाने पर भी इन चरित्रों की रंगत
ज्यों की त्यों हैं|कुछ शिकन भले पड़ गयी हो |
यह करिश्मा
प्रेमचंद की भाषा या अंदाज़े बयां का नहीं उस
नुक्ताये नज़रिये का है जिसे प्रेमचन्द अपने स्वाध्याय और जीवन अनुभव
से सतत विकसित करते चलते हैं| वे ईट गारे की पाठशाला से
कम जीवन की पाठशाला से ज्यादा सीखते है |यही कारण है कि मनोविज्ञान की कोई किताब
पढ़े बगैर भी मानवीय स्वभाव के अपने तजुर्बे से वे मानव मन की अतल गहराइयों को नाप
लेते हैं | वे यथार्थ का मात्र फोटोग्राफिक चित्रण नहीं करते एक्स रे की तरह मांस
मज्जा भेदकर आलोचनात्मक यथार्थ तक जा पहुंचते हैं |
उन्होंने
उपन्यास को देवकी नंदन खत्री के ऐय्यारी और तिलस्म भरे संसार से मुक्त कर मानवीय संबंधों
और संघर्षों का सजीव संसार दिया | लल्लूलाल ,सदल मिश्र बालकृष्ण भट्ट प्रतापनारायण
मिश्र से प्राप्त भाषा को जीवंत मुहावरों से सम्पन्न किया | ऐसे चरित्र रचे जो
मस्तिष्क को उद्वेलित करने के साथ हृदय तंत्री को भी झंकृत कर देते हैं|
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ब्रितानिया प्रभाव से
भारत के गाँवों का टूटता अर्ध सामंती ढांचा , उपनिवेशवादी नीतियों के चलते भारतीय किसान का मज़दूर में बदलते जाना, क़र्ज़ के
बढ़ते बोझ से किसानों में बढ़ती आत्मघाती लाचारी , स्वाधीनता आंदोलन की बनती बिगडती
छवि उसमे सम्प्रदायमूलक राजनीति की बढ़ती दखलंदाजी
और जाति गत राजनीति की बढती दरारें,
गांधी का राजनीति और सामाजिक जीवन में असर
यही है प्रेमचन्द का अपना समय और यही उनके लेखन में पूरे गुणधर्म के साथ
उपस्थित है |प्रेमचंद इन तत्सामयिक प्रवत्तियों और नायकों यथा दयानंद ,आंबेडकर ,
महात्मा गाँधी ,बोल्शेविज्म सभी के प्रभाव में आते हैं और सभी का अतिक्रमण कर जाते
हैं | कालबद्ध होकर भी काल जयी |
यह कुव्वत
प्रेमचंद में मसीहा की तरह एकाएक नहीं आती | किसी रेगिस्तानी पहाड़ी कंदारा या पीपल
के पेड़ तले उन्हें इस ज्ञान की प्रतीति नहीं होती अपितु यह समझ उनमें धीरे धीरे
विकसित होती है |जैसे जीवन एक कोशिकीय अमीबा से बहुकोशकीय स्तनपायी तक विकसित होते
हम तक पहुंचा है| इस समझ का सर्वोच्च सोपान है “ जीवन की आलोचना” जिसे उन्होंने १९३६ में लखनऊ अधिवेशन में व्यक्त किया था | जिसमे वे साहित्य
और सौंदर्य की नयी कसौटी का आह्वान करते हुए कहा -
“साहित्य वही है
जिसमें उच्च चिंतन हो ,स्वाधीनता का भाव हो ,सौंदर्य का सार हो ,सृजन की आत्मा हो
,जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो | जो हममें गति संघर्ष और बेचैनी पैदा करे , हमें
सुलाये नहीं |”
प्रेमचन्द की
उपर्युक्त उद्घोषणा ने साहित्य में नयी धारा नयी बहस छेड़ दी | महावीर प्रसाद
दिवेदी की “ साहित्य समाज का दर्पण है” वाली अवधारणा को उनकी “साहित्य जीवन की आलोचना है” वाली अवधारणा ने
विस्थापित कर दिया | स्वयं प्रेमचंद यह कहने के लिए १९३६ तक प्रतीक्षा करतें हैं |
अपने लेखन में इसको जीते हैं | यानि गाँधी की तरह कुछ कहने से पहले उसे खुद में
अमल करना |
जीवन की तरह प्रेमचंद के लेखन में भी
आलोचनात्मक मेधा आहिस्ते आहिस्ते विकसित होती है |उनके लेखन का प्रारम्भिक दौर वह
है जब आर्यसमाजी चिंतन देश के पढ़े लिखे और मूर्तिपूजा के कर्मकांड से उकताए
मध्यवर्ग को लुभा रहा था |१९१८ का ‘सेवासदन’ इसी आर्यसमाजी सुधारवाद का प्रवक्ता है |जिसमे प्रेमचंद आर्यसमाजी दृष्टिकोण से वेश्यावृत्ति
,दहेजप्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों को विश्लेषित करते हैं और अंत में एक सुधारवादी
सेवासदन की स्थापना कर देते हैं |
किन्तु शीघ्र ही प्रेमचंद की परिपक्कव होती
दृष्टि आर्यसमाजी सीमाओं को पहचान लेती है और वे अनुभव करते हैं कि सामाजिक सुधार
एवं राजनैतिक व्यवस्था अन्योनाश्रित हैं
|आगे राजनैतिक स्वशासन उनके लेखन की सर्वोच्च प्राथमिकता बन गया | यही वह समय है
जब गांधीवादी मूल्य यथा सत्याग्रह और अहिंसा प्रचलित मूल्यों का स्थान ले चुके थे
|साध्य से अधिक साधन की शुचिता का आग्रह था और ह्रदय परिवर्तन हर समस्या का रामबाण
नुस्खा मान लिया गया था | इसी कालखंड में प्रेमचंद गांधीवादी त्रयी प्रेमाश्रम ,
कर्मभूमि और रंगभूमि का सृजन करते हैं | इसी समय गाँधी के ही समानांतर भीमराव
अम्बेडकर की विचारधारा भी एक सामाजिक और राजनैतिक क्रांति की ज़मीन बना रही थी |
जातिगत विभेद से जनमी सामाजिक गैरबराबरी और छुआछूत के विरुध्द देश के भीतर एक गुस्सा
संघटित हो रहा था | ‘ठाकुर का कुआँ’ ‘मंदिर’ और ‘सद्गति’ में इसकी शिनाख्त
की जा सकती है | ‘ठाकुर का कुआँ’ में अपने प्यासे
बीमार पति के लिए गांगी को ठाकुर के कुएँ से पानी तक नहीं ले पाती और उसका
पति अन्य कुएँ का विषाक्त पानी पीने को विवश होता है |
इसके पहले १९२७ में डॉ.
अम्बेडकर महाड में पानी को लेकर आंदोलन कर चुके थे | सी तरह ‘मंदिर’ कहानी में भी १९३० में डॉ. अम्बेडकर के मंदिर आंदोलन की
छाप देखी जा सकती है | किन्तु अम्बेडकर का प्रभाव और उसका भी अतिक्रमण हमें ‘सद्गति’ में दिखाई देता है | जिसमें चमार बस्ती के लोग दुखी चमार
की लाश को उठाने से मना कर देते हैं | लिहाजा पंडित को स्वयं दुखी चमार की लाश को
हटाना पड़ता है | जीते जी शरीर को हाथ न
लगाने वाला उसकी लाश को हटाता ज़रूर है किन्तु जानवर की तरह | ‘सद्गति’ का यह विम्ब भारतीय मानस में जाति का जिस रूपक को
व्याख्यायित करता है उसे समझने के लिए इसका पुनर्पाठ आज भी जारी है | ‘गोदान’ के उस प्रसंग का दुस्साहस तो कोई घोर अम्बेडकरवादी भी ना
कर सकेगा जो प्रेमचंद ने सिरजा है ,जिसमे लम्पट ब्राह्मण के मातादीन के मुहँ में
गाँव के चमार जानवर की हड्डियाँ दाल देते हैं , “तुम हमें
ब्राह्मण्ड ना बना सके तो क्या ? लो हम तुम्हें चमार बनाये देते हैं |”
अपने नायकों से
पार जाने की प्रेमचंद की शक्ति का स्रोत है ‘सत्य के प्रयोग’ जिसे वे अपने लेखन में सदा बनाये रहते हैं |इसी प्रयोग के बल पर वे अपने
यथार्थवाद को आलोचनात्मक यथार्थवाद तक ले जाते हैं जिसका क्लासिक ‘गोदान’ है |यहाँ वे वोल्शेविज्म के निकट देखे जा सकते हैं | यही
वह कालखंड है जब अवध प्रान्त में किसान ज़मीदार और महाजन के जुए तले कोल्हू के बैल
की तरह पिस रहे थे | क़र्ज़ की मार के साथ परम्परागत मूल्यों से चिपटे रहने की
बेचारगी उन्हें भीतर से जर्जर कर चुकी थी |उपनिवेशिक बंदोबस्ती ने उन्हें अपनी ही
ज़मीन पर मजदूर बना दिया था |यद्यपि उन्हें श्रम बेचने की आज़ादी थी जो उन्हें
अर्धसामंती ढाँचे से आज़ाद करती थी | ‘गोबर’ जैसे नौजवान उसी आजादी के लिए शहर की नयी गुलामी में प्रवेश कर रहे थे | “ गोदान” उपनिवेशवाद के दवाब में चरमराते सामंती ढाँचे में संघर्ष
करती पीढा की महागाथा है | जिसका समाज शास्त्रीय मूल्य ‘श्रीनिवासन’ या ‘श्यामाचरण दुबे’ के वैज्ञानिक अध्ययनों से कहीं कमतर नही है | इसे उपन्यास के साथ समाज
शास्त्रीय दस्तावेज़ की तरह आँका जाना चाहिए |
यही वह समय है जब वे
महाजनी सभ्यता की तहों को खोलते हैं और साम्प्रदायिकता के फरेब को भी उजागर करते
हैं | वे कहते हैं-
“साम्प्रदायिकता संस्कृति की दुहाई देती है |”
और यह भी कि _
“मैं न हिंदू हूँ न
मुसलमान | जिस धर्म में रहकर लोग दूसरों का पानी नहीं पी सकते , उस धर्म में मेरी
गुंजाइश कहाँ |”
कबीर की तरह
प्रेमचंद को भी आलोचकों के दो आरोप खूब झेलने पड़े | साहित्यिक या रागात्मक सोंदर्य
का अभाव और स्त्री सम्बन्धी डार्क एरिया | डार्क एरिया चिन्हित करने वालों में
उनके स्वयम्भू वारिस श्री “राजेंद्र यादव” जी शामिल हैं | यद्यपि प्रेमचंद की “सुमन” जानती है कि “नारी की मुक्ति आर्थिक
परतंत्रता के रहते संभव नहीं है |” “कुसुम” कहानी में प्रेमचंद लिखतें हैं कि “स्त्री को धर्म और त्याग का पाठ पढ़ा कर हमने उनके आत्म सम्मान और आत्म त्याग
दोनों का अंत कर दिया है |”
अपने
लेखों में प्रेमचन्द स्त्री के तलाक के अधिकार और सम्पत्ती में पुरुषों की तरह अधिकार
दिए जाने की मांग उठाते हैं | निश्चित ही स्त्री का देहवादी आधुनिक विमर्श उनके
यहाँ नहीं है और उस उनकी सीमा से अधिक उनके समय की सीमा भी है |उनके समय का आग्रह
जिस समग्रता का है वो उन्हें बाल्जाक और तोल्स्तोय की तरह विविध वर्णी रचना संसार
की ओर ले जाती है |
प्रेमचंद अपनी परम्परा ,संस्कृति और पर्यावरण से
उर्जा लेते हुए अपनी रचना दृष्टि का सतत उन्मेष करते हैं | वे सौद्देश्य लेखन करते
हैं कुछ कुछ मिशनरी प्रेरणा जैसा किन्तु परलोक सुधारने वाला नहीं अपितु लोक
सुधारने वाला |कोई रीतिवादी या कलावादी आलोचना उन्हें कर्तव्य पथ से डिगा नहीं सकी
|उनके साहित्य का धेय्य कला नहीं समाज के बेहतरी थी | यही वो विरासत है जो
प्रेमचंद हमारे लिए छोड़ गए हैं | मनुष्य जाति में संवेदना की ऊष्मा और जिजीविषा का
ताप बनाए रखने के लिए प्रेमचंद हमारे समय में एवं उसके बाद भी प्रासंगिक बने
रहेगें |
यही है
प्रेमचंद होने का अर्थ |
“ हनुमंतकिशोर”