प्रेमचंद सुराज और गाँव
हालिया वर्षों में आंध्रप्रदेश, केरल ,कर्नाटका और फिर महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या के मामले सामने आयें हैं | बाद में बंगाल और मध्यप्रदेश में भूमिअधिग्रहण के सवाल पर किसानों का जो बेरहमी भरा दमन दिखाई दिया ,उसने एकबारगी फिर से प्रेमचंद के किरादारों और उनके हालात की याद दिला दी |
इन किसानों की मौत और गोदान के ‘होरी’ की मौत पर विचार करें | दोनों की मौत के पीछे सूदखोर और व्यवस्था की असफलता सीधे ज़िम्मेदार है | ‘होरी’ जहाँ औपनिवेशिक शोषण की त्रासदी है ,वहीँ आज के किसान उत्तर औपनिवेशिक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की चालाकियों का शिकार है |
प्रेमचंद ने १९३० में बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे अपने पत्र में स्वराज्य प्राप्ति को अपने लेखन का लक्ष्य बताते हैं | देशद्रोह के आरोप में उनकी प्रारंभिक रचना संग्रह “ सोज़े वतन” ब्रितानिया शासन द्वारा ज़ब्त भी हुआ | आगे चलकर प्रेमचंद ने ‘स्वराज’ के दायरे में हिंदुस्तान में व्याप्त हर तरह की सांस्कृतिक और सामजिक पराधीनता को शामिल कर लिया | “गबन” का ‘देवीदीन’ एक सुराजी नेता से पूछता है, -
“साहब सच बताओ जब तुम सुराज का नाम लेते हो तो उसका कौन सा रूप तुम्हारे सामने आता है ?तुम भी बड़ी बड़ी तलब लोगे | अंग्रेजों की तरह बंगलों में रहोगे | पहाड़ों की हवा खाओगे |अंग्रेज़ी ठाठ बनाए घूमोगे | इस स्वराज से देश का क्या कल्यान होगा ?”
प्रेमचंद के लिए स्वराज गोरे साहेब के हाथो से काले साहेब के हाथों में सत्ता का हस्तान्तरण मात्र नहीं था |”आहुती” कहानी की नायिका कहती है “मेरे लिए स्वराज का अर्थ नहीं है कि ‘जान’[Jhon] की जगह ‘गोविन्द’ बैठ जाए |” स्वराज्य की इसी व्यापक अवधारणा ने उन्हें स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी विषय वस्तु का विस्तार गाँव और किसान तक करने के लिए प्रेरित किया |जहाँ भारतीय उपन्यास मुक्ति के आख्यान के रूप में अभी विकसित होने को ही था उस विधा को उन्होंने किसान की मुक्ति के आख्यान का दस्तावेज़ बना दिया |
१९०० के आसपास जब उन्होंने लेखन शुरू किया तब उनके विषय समाज में व्याप्त कुरीतियाँ ,विसंगतियाँ और ऊँचनीच जैसे भेदभाव थे | उनका यथार्थ आलोचनात्मक न होकर सतही था और जो समाधान वे प्रस्तुत कर रहे थे वे आदर्शवादी होकर भी कारगर नही थे | दयानन्द से लेकर राजाराम मोहन राय और गाँधी तक सबका प्रभाव उनके लेखन पर बहुत साफ़ दिखता है | किन्तु आगे उनकी सामाजिक चेतना इतिहास बोध से सम्पन्न होते हुए ह्रदय परिवर्तन संबंधी यूटोपिया से निकालकर किसान समस्या के बुनियादी कारणों यथा आर्थिक संरचना और जोत ज़मीन तक पहुँचती है |
1912 में प्रकाशित “ वरदान” जो उर्दू उपन्यास “ज़ल्वाए इसार” का हिन्दी अनुवाद था, में प्रेमचंद पहली बार हिन्दुस्तानी किसान की आर्थिक और मानसिक दरिद्रता का चित्रण कमलाचरण को लिखे गये पत्रों के माध्यम से करते हैं | यहाँ रात दिन पसीना बहाने पर भी भूखें पेट नंगें बदन रहने को मजबूर किसान उनमें गरीबी के साथ अंधविश्वास की जकडन, ओले से तबाह फसल पर भी लगान की जोर ज़बरदस्ती को देखा जा सकता है |१९१९ में “सेवासदन” तक आते आते उनका गुणात्मक रूपान्तरण होने लगता है | जहाँ नारी पराधीनता के साथ वे शोषक मूलक सामंती और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पड़ताल करते हैं| यही वह समय भी जब लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक क्रांति तले मज़दूर और किसानों का नया ज़माना जन्म ले रहा था | “ पुराना ज़माना नया ज़माना” लेख में स्वयं प्रेमचंद ऐलान करते हैं “आने वाला ज़माना अब किसानों मजदूरों का है |”
इस ज़माने की आहट “प्रेमाश्रम” में मिलती है | जो उपन्यास में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध हिन्दुस्तानी किसान का पहला विराट प्रयास है | ‘प्रेमाश्रम’ की तरह आगे ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’ और गोदान में भी शहर और गाँव का विभाजन ,शहर द्वारा देहात का शोषण , शहरी परजीवी और देहाती उत्पादक के मध्य टकराव चिन्हित है | ‘ प्रेमाश्रम’ में प्रेमचंद लिखते हैं- “अधिकारी वर्ग और उसके कर्मचारी विरहणी की भाँती इस सुख काल के दिन गिना करते हैं |शहरों में तो उनकी दाल नहीं गलती या गलती भी है तो बहुत कम | वहाँ प्रत्येक वास्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है |किन्तु देहात में जेब की जगह उनका हाथ सोंटे पर होता है या किसान की गर्दन पर | जिस दूध शाक भाजी ,मांस ,मछली के लिए शहर में तरसते थे , जिसका स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता था |यहाँ केवल जिह्वा और बाहुबल से रेलपेल हो जाती है |बार बार खाते हैं और जो नहीं खा सकते वह घर भेजते हैं |...... देहात वालों के लिए वे बड़े संकट के दिन होते हैं | दासत्व के दारुण निर्दय आघातों से आत्मा का भी ह्रास हो जाता है |” इसी उपन्यास में कादिर कहता है –
“अरे जो अल्लाह को यही मंज़ूर होता कि हम लोग इज्ज़त आबरू से रहें तो हमें काश्तकार नहीं बनाता | चपरासी ना बनाता |थाणे का कांस्टेबिल ना बनाता | बैठे बैठे दूसरों पर हुकुम चलाया करते |....... शायद अल्लाह भी नाराज़ है |नहीं तो क्या हम आदमी नहीं हैं ?”
‘प्रेमाश्रम’ से ‘गोदान’ तक आते आते औपनिवेशिक किसान की यह असहायता आत्मदया के स्तर तक उतर आती है | जहाँ ‘होरी’ कहता है –
“ कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं| हम में आदमियत कहाँ है ? आदमी वह है जिसके पास धन है , अख्तियार है , इल्म है, हम लोग तो बैल हैं जो जुतने के लिए पैदा हुए हैं |”
गुलाम हिन्दुस्तान के देहात की यह तस्वीर क्या आज आज़ाद हिन्दुस्तान में भी नहीं दिखती?
“ गोदान” तक आते आते प्रेमचंद “प्रेमाश्रम” और “रंगभूमि” वाली गांधीवादी दृष्टि से मुक्ति पा लेते हैं जिसका केन्द्रीय पात्र किसान नहीं अपितु सुधरा हुआ ज़मीदार है |वहाँ प्रतिरोध नहीं हृदय परिवर्तन की गुंजाइश है |किन्तु “ गोदान” में ‘होरी’ की त्रासदी अर्ध सामंती व्यवस्था में किसी भी सुधार की सम्भावना के स्वप्न को चूर चूर कर देती है | ‘ होरी’ ५ बीघा ज़मीन को जोतते हुए वर्ष भर किराया , ब्याज, टेक्स और बेगार के असहय बोझ के चलते अपनी ज़मीन पर ही मजूर सा हो जाता है |यहाँ वे अंदर और बाहर के शत्रुओं के रूप में पंचायत , बिरादरी , पुरोहित, कारिंदे, सूदखोर, सरकारी नौकर वगैरह की पहचान करते हैं | इसी मुकाम पर प्रेमचंद का होरी भी मासूम नहीं रह जाता बल्कि शहराती प्रभाव में मक्कारी , चालाकी से भरा पूरा दुर्बलताओं का वशीभूत खेतिहर हो जाता है |जो साझे के बाँस दमड़ी बसोर को २५ रुपिये सैकड़ा में बेचने का बयाना लेता है किन्तु २० रुपये सैकडा भाइयों को बताने के लिए कहता है |दमड़ी भी कम चालाक न था वह २० रुपये में सौदा करता है और भाइयों को १५ बताने को कहता है | सौदा पट जाता है | एक और प्रसंग में जब दरोगा होरी के घर की तलाशी का ऐलान करता है तो होरी अपनी झूठी इज्ज़त बचाने की गरज से दरोगा को घूस देने के लिए साहूकार से क़र्ज़ लेता है | जब वह घूस देने के लिए जा रहा होता है तो धनिया धक्का मारकर रुपये ज़मीन में गिराकर प्रतिवाद करती है-
“ऐसी बड़ी है तेरी इज्ज़त जिसे क़र्ज़ की घूस से बचाने चला है |”
“ऐसी बड़ी है तेरी इज्ज़त जिसे क़र्ज़ की घूस से बचाने चला है |”
प्रेमचंद का किसान केवल चालाक ही नहीं हुआ था | वह अब दूसरे रहस्यों को भी ताड़ रहा था | ‘होरी’ कहता है “मोटे वे होते हैं जिन्हें ना ऋण का सोच होता है न इज्ज़त का |इस ज़माने में मोटा होना बेहयाई है |सौ को दुबला करके तब एक मोटा होता है |सुख तो तब है जब सभी मोटे हो |”
गावों में किसान के दुख से लगा जातिभेद और छुआछूत का भी दुख था | प्रेमचंद इस समस्या से वाया गांधीवाद गुज़रते हैं और मार्क्सवाद तक पहुंचते हैं | वे लिखते हैं “हरिजनों की समस्या केवल मंदिर प्रवेश से हल होने वाली नहीं है | असल समस्या तो आर्थिक है|” एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा “हम जिस राष्ट्रीयता का स्वान देख रहें हैं उसमें जन्मगत वर्णों की गंध तक ना होगी | हमारे श्रमिक और किसानों का साम्राज्य होगा |जिसमे न कोई ब्राह्मण होगा न कायस्थ न क्षत्री|” ‘गोदान’ तक आकर वे दलितों के सक्रिय संगठित प्रतिरोध के पक्ष में दिखाई देते हैं | जहाँ एक प्रसंग में सिलिया के अपमान का बदला लेने के लिए चमार ब्राह्मण मातादीन का जनेऊ तोड़ डालते हैं और उसके मुँह में हड्डी का टुकड़ा डाल देते हैं | “ लो हम तुम्हे चमार बनाए देते हैं”| ‘गोदान’ के पहले तक प्रेमचंद ‘कर्मभूमि’ के ‘अमरकांत’ बगैरा के माध्यम से सुधार वादी और गाँधीवादी नज़रिए को लेकर चलते हैं | किन्तु आर्थिक कारणों की ओर जब उनकी नज़र जाती है तब वे पूरी साफगोई से कहते हैं “जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा तब तक मानव समाज का उद्धार संभव नहीं है |”महाजनी सभ्यता {१९३६} में तो वे आर्थिक वैसम्य को समस्त बुराइयों की जड़ बताकर उसे मिटाने के लिए जनता का आह्वान करते हैं | १९३६ में प्रलेस की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था “ आजमाए हुए को आजमाना मूर्खता है |”
हमारे वर्तमान किसानी समाज में आज भी पहला प्रतिनिधि ‘होरी’ है दूसरा ‘गोबर’ और अंत में ‘धनिया’ | व्यवस्था के आगे आत्मसमर्पण का चरम है ‘होरी’ का ‘रूपा’ की शादी के लिए क़र्ज़ लेना |यही हताशा और अवसाद होरी की मृत्यु का कारण थी और आज के किसानों की आत्महत्या का | नई पीढी का ‘गोबर’ का गाँव छोडकर शहर मजूरी को जाना गाँव में पूँजीवाद की विजय का प्रतीक है | यहाँ तक आकर विद्रोही ‘धनिया’ भी आत्मसमर्पण कर देती है “ यंत्र की भांति उठी | आज जो सुतली बेची थी ,उसके बीस आने लाई और पती के ठंडे हाथ पर रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली , महाराज घर में ना गाय है न बछिया न पैसा | यही पैसे हैं , यही इनका गोदान है और पछाड़ खाकर गिर पड़ी |”
एरिक हाब्स्बान अपनी किताब ‘द एज आफ रिवोलुयसन’ में लिखते हैं “पूंजीवादी समाज के दायरे में और अधिक देर तक शरण पाने में असमर्थ गरीब तबके के सामने तीन संभावनाएँ बची थीं | या तो वो खुद बुर्जुआ बनने का प्रयत्न करे या अपने आप को धीरे धीरे मिटटी में मिल जाने दे या फिर विद्रोह करे |”
आज उत्तर औपनिवेशिक समाज में हमारे किसान दूसरे विकल्प का वरण कर रहे हैं| तीसरे विकल्प की ज़मीन तैयार करना प्रेमचंद के वारिसों की जिम्मेदारी है और यही है प्रेमचंद की विरासत |
हनुमंत किशोर