Friday, September 14, 2018

14 सितम्बर :कर्मकांड से आगे सोचना होगा

14 सितम्बर हिंदी के सरकारी कर्म कांड का दिन है ।
कहते हैं जब कर्म ना फले तो कांड अवश्य कर लेना चाहिए ।
सो आज एक निर्माणी में हिंदी पखवाड़े के दौरान मुख्य अतीथि होकर मैंने भी हिंदी कर्म का कांड किया ।
मैंने बात आमंत्रण पत्र से शुरू की । आमंत्रण पत्र में राजभाषा अधिकारी के हस्ताक्षर अंग्रेजी में थे । हिंदी की चिंदी लहराने वाले हम में से कितने अपने हस्ताक्षर हिंदी में करते हैं । कार्यालय की नाम पट्टिका और बंगले के
गेट  पर टँगा  शिलापट्ट हिंदी में खुदवाते हैं ।
हम तो अपने कुत्ते का नाम तक हिंदी या मादरी जुबान में नही रखते ।
हद तो तब हो गयी है जब मेरा कवि मित्र आपसी बातचीत में अपने बिल्डर  को श्वान और उसकी महिला मित्र को मादा श्वान कहकर संबोधित करने लगा । मैंने टोका सीधे सीधे *कुत्ता* क्यो नही बोलते तो कहने लगा *आदरणीय ...जिह्वा का स्वाद बिगड़ जाता है*
तो हम में कोई स्वाद तो कोई सम्मान बिगड़ने के डर से जीवित हिंदी से दूर जाते हुए या तो राजभाषा टाइप की बनावटी हिंदी के मुँह में जा घुसा है या अंग्रेजी के पिछवाड़े में ।
हिंदी का बंटाढार जितना विलायती टट्टुओं ने किया उससे कम तत्सम पिट्ठुओं ने भी नही किया । हाल का वाकया है मेरे मातहत अधिकारी सिर खुजाते हुए बोले *सर .. कारावास जो तीन वर्ष से अन्यून नही होगा ..अन्यून मतलब?*
मैंने कहा अंग्रेजी में देख लो ।
अंग्रेजी में उन्हें झट से समझ आ गया *नॉट लेस देन थ्री ईयर*
अब विधि का राजभाषा अधिकारी यदि *अन्यून  होगा* की जगह *कम नही होगा* लिख देता तो उसका कुछ घट नही जाता बस  हिंदी में कानून की समझ आसान हो जाती ।
जिस फेक्ट्री में आज हिंदी  कर्मकांड था वहाँ  जाते हुए चौराहे पर एक से मैंने पूछा *निर्माणी* किस तरफ है ?तो उसमें उल्टा मुझसे पूछ लिया निर्माणी मतलब ?
कारखाना कहो तो समझ आ जाता है लेकिन जब तत्सम का बेताल सर पर सवार हो तब जनता की समझ और सुविधा का ध्यान किसे रहता है ?
 उस पर तुर्रा ये कि जनता की सुविधा का ख्याल कर कामकाज हिंदी में होना चाहिए ।
कोई पूछे तो सही
*...किस हिंदी में ?*
उस हिंदी में जिसे आप ही कहिये आप ही बूझिये ...
हिंदी को इतना सँकरा मत कीजिये कि उसमें उसी की बोली बानी के शब्द ना अंट सके ।
अस्पताल से थाने से इसलिए नाक भौं मत सिकोड़िये कि उर्दू वालो ने उनसे अँकवार कर ली ।
उर्दू यदि देवनागरी में लिखी जाने लगे  हिंदी से अलग नही बैठती और बोलने में तो वो बस हिंदी की ही एक शैली नज़र आती है।
यानी झगड़े की झड़ में भाषा नही सियायत है ..बस ।
इसी का फायदा तब अंग्रेजो ने 1850 से 1900 के दौरान इसे साप्रदायिकता के रंग में रँगकर उठाया   था जब काशी नागरी प्रचारणी सभा के झंडे तले उत्तरप्रदेश में देवनागरी की लड़ाई लड़ी गयी थी क्योंकि तब थाना कचहरी सबकी लिपि उर्दू के नाम पर फारसी थी ।
*जय हिंदी जय नागरी* उस समय का नारा था ।
किसी भाषा का भाग्य शायद इतना विचित्र नही रहा हो जिसे पहली लड़ाई लिपि की लड़नी पड़ी हो।  क्रिस्टोफर किंग की किताब का शीर्षक ही है *वन लेंगवेज टू स्क्रिप्ट*
खैर तबकी सत्ता भले देवनागरी या हिंदी के साथ भले ना रही हो जनता हिंदी और देवनागरी के साथ बराबर थी । तभी प्रचार की दृष्टि से गैर हिंदी प्रदेश से आने वाले  स्वामी दयानंद सरस्वती ने1875में  सत्यार्थ प्रकाश देवनागरी में ही लिखा ।
उनसे भी 25 साल पहले गुजराती कवि नर्मद हिंदी को राष्ट्र भाषा का  दर्जा दे चुके थे ।
स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान तिलक, गांधी और राजा राम मोहन राय सभी ने हिंदी को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़कर आगे बढाया ।
वे जानते थे आज़ादी की लड़ाई भाषा की लड़ाई के वगैर अधूरी रहेगी ।
लेकिन आज आज़ादी के सत्तर बरस बाद हिंदी कहाँ है ? इससे भी पहले ये पूछना ज़रूरी है कैसी है ?
भूमंडळीकरण के दौर में उसे  बड़ी कुटिलता से विपन्न और विस्थापित किया जा रहा है ।
देशज और लोक भाषा से उसकी दूरी बढाई जा रही है ताकि उससे स्मृति विहीन और प्रतिरोध विहीन किया जा रहा है ।
प्रभु जोशी के शब्दों में कहें तो *हिंग्लिश को हिंदी की हत्या सुपारी दी जा चुकी है*
इस स्थिति को एक रूपक में कहे तो आज हिंदी की दशा लगभग वैसी ही है जी किसी नदी की राह में पहाड़ धसक जाने से होती है यानी ना वह बह पाती ना कुंड हो पाती । छिछला जाती है बस ।
हिंदी के रास्ते मे ये पहाड़ भूमंडळीकरण के दौर में अंग्रेजी का है जिसने
प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में और अब सोशल मीडिया में भी हिंदी भाषा और लिपि में अंग्रेजी की सायास घुसपैठ कर हिंदी को विस्थापित किया जा रहा है ।
अंत मे निर्णायक हमला त्रिनिनाद और गुयाना कीतरह होना है जहाँ 40 प्रतिशत हिंदी भाषी होते हुए भी हिंदी को फ्रेंच या अंग्रेजी लिपि में लिख रहे है।
भाषा के विलुप्त होने की यह शुरुआत है ।भूमण्डलीकरण के  ग्लोबल विलेज बाज़ार में बोली और भाषा पहले कुपोषित होकर अशक्त होती है और फिर दम तोड़ देती है
भूमंडळी करण के पैरोकार बड़ी चतुराई से भाषा को मात्र सम्प्रेषण का माध्यम बताकर इस बहस को अपने पक्ष में करना चाहते हैं ।
जबकि भाषा मात्र सम्प्रेषण का माध्यम नही एक सांस्कृतिक चेतना के साथ प्रतिरोध की वाहक भी है। वह अपने भाषी समाज का इतिहास उसकी धरोहर भी है ।
जब कोई शब्द छीजता है तो उस शब्द के साथ एक इतिहास एक चेतना एक संस्कृति भी छीज जाती है । ये मसला डेविड क्रिस्टल के कथन से आगे का है *एक शब्द की मृत्यु एक व्यक्ति की मृत्यु है*
14 सितम्बर के दिन हिंदी का कर्म कांड करते हुए इन ज़रूरी सवालों से यदि दो चार हुआ जा सके तो यही इसकी सार्थकता होगी ।