Sunday, November 13, 2016

मुक्तिबोध

मुक्ति -बोध (जन्म शताब्दी में नमन
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बड़ा रचनाकार वो है जो भविष्य के लिए बड़ी रचनाकारो की जमीन तैयार कर दे |
इस लिहाज से निराला और धूमिल के साथ मुक्तिबोध को मै बड़ा रचनाकार मानता हूँ , जिन्होंने अपने और बाद के दौर में कवियों ,लेखकों को प्रेरित और प्रभावित किया |
कोई १९- २० की उम्र रही होगी जब मैंने अपने मुक्तिबोध को पहली बार पढ़ा था और उनकी 'भूल-गलती' कंठस्थ हो गयी थी जिसका कालेज में नाटकीय पाठ करने लगा था | जब एक 'दिल्ली चलो' अभियान में पहली बार जुलूस के साथ दिल्ली जाना हुआ तो दिल्ली से एक ही याद लेकर लौटा , वो थी दरियागंज से राजकमल प्रकाशन की 'मुक्ति बोध रचनावली' छ: खंड में | इसे खरीदने के लिए तब दिल्ली में ही साथ गये अपने साथी कामताप्रसाद तिवारी से रूपये उधार लिए थे |
इस रचनावली के अब दो खंड ही साथ बचे हैं पत्र और लेख के शेष चार खंड परिवार के ही एक सदस्य की चोर्यकला की भेंट चढ़ गये |
जब पहली पोस्टिंग राजनांदगांव हुई तो अगले दो-चार दिन के भीतर ही दिग्विजय कालेज का सज्दा करने पहुंचा जहाँ मेरे मुक्तिबोध कभी पढ़ाया करते थे | वहीं वो कमरा भी था जिसमे मुक्तिबोध रहा करते थे |जिसे भूतिया तिलस्मी अँधेरा घेरे हुए था | चक्करदार जीने वाले उस खंडहर के प्लासटर उखड़े हुए थे भयावह चित्रों से |पास ही सूखी बाउली थी ..और बगल में किसी रहस्य सा दिखता तालाब भी .मुक्तिबोध की कविता अँधेरे का दृश्य यह सब देखते ही सामने आ गया ..
"जिंदगी के...
कमरों में अँधेरे
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार;
आवाज पैरों की देती है सुनाई
बार-बार... बार-बार,
वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
किंतु वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा.."
बाद में इसी कालेज के कार्यक्रम के लिए मैंने मुक्तिबोध की कहानी "समझौता" का नाट्य रूपांतरण भी किया जो जिंदगी की अभावो और लाचारी के चलते उस मनुष्य की विडम्बना को रचती है जिसमे मनुष्य ज़िंदा रहने के लिए जानवर तो बन जाता है लेकिन अपने भीतर के मनुष्य को पूरी तरह नहीं मार पाता |
मुक्ति बोध के कई सस्मरण तब उनके साथ काम कर चुके शरद कोठारी और रमेश बक्षी से सुनने को मिले थे जिन्होंने मुक्तिबोध के प्रति समझ और रोमांस दोनों गहरे किये |
'अँधेरे में' की उनकी ये पंक्तियाँ आज भी मेरी वैचारिक भूमि को तैयार करती हैं
"कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।"
प्रगतिशील आन्दोलन में कमांडर कमलाप्रसाद मुक्तिबोध की एक पंक्ति बराबर दोहराया करते थे "पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ?"
आज भी रचना की भीतर और बाहर मुक्तिबोध की यह बात बराबर आगा-पीछा करती है | उनकी विचारधारा ही उनकी रचना के लिए जमीन तैयार करती है और उनकी रचानाओ का रक्त-मांस-मज्जा जिस ज्ञानात्मक समवेदन से बनता है उसका मूल उनकी विचारधारा ही है जो घोषित तौर पर वामपंथी है जिसके लिए वे अभावों में मरना तो स्वीकार करते है लेकिन समझौता करके जीना उन्हें स्वीकार नहीं होता |
उन्होंने केवल कविता में ही नहीं लिखा
"अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक "
मुक्तिबोध ने अपने इस लिखे को अपने जीवन में जिया भी | वे रचना औरजीवन की एकता के दुर्लभ प्रमाण थे | अभिव्यक्ति के इसी साहस के लिए जब उनकी किताब 'भारतीय इतिहास और संस्कृति ' राज्य शासन द्वारा प्रतिबंधित की गयी तो उन्होंने बिना समझौता किये संघर्ष किया और अपने ही वैचारिक साथियो द्वारा साथ ना दिए जाने पर आहत होकर कहा भी कि मेरे ही शिविर में मेरी ह्त्या हुई है |
निराला के बाद वे दूसरे कवि थे जिन्हें रचना के मूल्यों के जीवनउत्सर्ग करने के लिए महाप्राण कहा जा सकता है |वे आजीवन आत्म संघर्ष ,आत्मालोचन में निरत रहे | आज हमारी आत्म हीनता या आत्म दया का यही विकल्प है |
मुक्तिबोध इसी लिए मुझे अपनी भी मुक्ति का बोध प्रतीत होते हैं
जन्म शताब्दी पर ज्ञानात्मक सम्वेदन और सम्वेदनात्मक ज्ञान से त्वरित आवेग की कालयात्री कविता रचने वाले इस महाकवि का स्मरण ..नमन ||
उनकी कविता भूल-गलती यहाँ साझा है जिससे मुझे मुक्तिबोध का परिचय मिला ...
भूल-गलती
(मुक्तिबोध )
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भूल-गलती
आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के;
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।
सामने
बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है...
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लंबे दाग
बहते खून के।
वह कैद कर लाया गया ईमान...
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार,
शाइर और सूफी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!
नामंजूर,
उसको जिंदगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर
हठ इनकार का सिर तान...खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त -
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो - रेत का-सा ढेर - शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँख्वार
हाँ खूँख्वार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमें वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर...
हम सब कैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!
इतने में हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!
लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज के उस तरफ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाके में
(सचाई के सुनहले तेज अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
(हनुमंत किशोर )