Sunday, January 22, 2017

जल्ली कट्टू

‘जल्ली कट्टू’ : सांड क्या चाहते हैं ?

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“क्रूरता देखकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देने का मतलब है कि देखने वाला व्यक्ति क्रूर है”

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'जल्ली कट्टू ' पर तमिलनाडु सरकार के अध्यादेश को राज्यपाल की मंजूरी मिलते ही रविवार को तमिलनाडु मे 'जल्ली कट्टू ' के समर्थको ने उसे उत्साह से मनाया । इस बीच 'पेटा' ने  अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती देने की अपनी मंशा का ऐलान भी कर दिया । 'पेटा' की याचिका पर ही सुप्रीम कोर्ट ने सन 2014 मे 'जल्ली कट्टू' को लेकर रोक लगा दी थी ॥ इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार याचिका भी रद्द कर चुका है हालाँकि मामले पर अभी भी सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है ।
इसके पहले  केंद्र सरकार ने ‘जल्ली कट्टू’ पर अद्ध्यादेश लाने से तमिल नाडु सरकार की माँग से इंकार कर दिया था ॥ जिस पर तमिलनाडु मे   ‘जल्ली कट्टू’ के पक्ष में प्रदर्शन तेज़ और हिसंक हो उठे थे |मरीना तट पर मोबाइल टार्च की रोशनी में प्रदर्शनकारियों ने टार्च चमकाकर प्रदर्शन किया था तो दिल्ली के जन्तर मंतर में भी आवाज़ उठायी गयी थी | मदुरै में प्रदर्शनकारी इतने उग्र हो गये कि उन्हें लाठी चार्ज के द्वारा काबू में रखने की खबर थी ।
वही प्रतिबन्ध के पक्ष में पशुओ के पक्ष में संघर्ष करने वाले भी आगे आये और “सेव एनीमल –सेव अर्थ” की मुहीम तेज़ हुई |

 पक्ष और विपक्ष दोनों का दावा है कि वे संस्कृति के पक्ष में संघर्ष कर रहे हैं |

विवाद की तह में जाने के पहले ‘जल्ली कुट्टू’ को समझना जरूरी है |

साधारण अर्थ में ‘जल्ली कट्टू’ सांड़ो की लड़ाई है और सांड़ो से लड़ाई है | कालिदास को संस्कृत के शेक्सपियर की तर्ज़ पर इसे स्पेन की बुल फाइटिंग का तमिल संस्मरण कहा जा सकता है | स्पेन की बुलफाईटिंग की तर्ज़ पर ही एक पिंजरे के पीछे सांड को कैद कर रखा जाता है | फिर उसे उन्मत्त कर छोड़ा जाता है | जहाँ वह चीत्कार करते दर्शकों के सामने से भागता है | इस भाग दौड़ में युवकों को उसे पकड़कर उसके सींग में बंधी थैली को कब्ज़े में लेना होता है | यदि एक निश्चित दूरी के पहले युवक ऐसा कर लेता है तो विजेता बन जाता है अन्यथा बेकाबू रहा सांड विजेता होता है | ‘जल्ली’ का शाब्दिक अर्थ है सिक्का और ‘कट्टू’ का अर्थ है बंधा होना | दरअसल इस खेल में सांड के सींगो  में सिक्के या रूपये की एक थैली बंधी होती है जिसे युवक को सांड के सींग पकड़कर निकालना होता है | इस खेल में कभी-कभी कुछ लोग गंभीर रूप से जख्मी हो जाते हैं , कुछ की मौतें भी होती हैं औरअक्सर साड़ो से दुर्व्यवहार होता है |

तमिलनाडू में फसल की उर्वरता से इसे जोड़ा गया और पोंगल के समय यह प्रदेश भर में  खेला जाता है |एक लोक विश्वास यह भी जोड़ा गया कि ‘जल्ली कुट्टू’ ना होने पर वर्षा रूठ सकती है | यह खेल तमिलनाडु में पिछले चार सौ सालों से लगातार खेला  जा रहा है | यहाँ प्रचलित आख्यान में लड़की उस युवक से विवाह  की कामना करती है जो ‘जल्ली कुट्टू’ का विजेता होगा | वहीं जो सांड ‘जल्ली कुट्टू’ का विजेता होता है वो गायों के प्रजनन के लिए चुना जाता है ताकि बेहतर नस्ल का पशु प्राप्त किया जा सके |

सब कुछ जब ठीक ठाक चल रहा था तब ‘पेटा’ यानी पीपुल्स फॉर दी एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ़ एनीमल जैसे संगठन की पहल पर यू पी ए सरकार ने २०११ में इस पर एक अधिसूचना जारी कर इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया | मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी ७ जुलाई २०१४ के फैसले में  राज्य सरकार द्वारा दायर याचिका खारिज कर  इस पर प्रतिबन्ध को कायम रखा |

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए केंद्र सरकार से अध्यादेश लाने की मांग पर हालिया विवाद जन्मा है |

तमिलनाडु की जनता का एक हिस्सा इसे अपनी संस्कृति से जोड़कर अपनी संस्कृति पर पाश्चात्य विचारों के अतिक्रमण के रूप में देख रहा है | सत्तारूढ़ दल ए. आई. डी. एम. के. की प्रवक्ता सी आर लक्ष्मी ने इन जानवरों को अपने बच्चों की तरह तक कह दिया तो  वहीँ डी. एम्. के. भी इसके पक्ष में सरकार की नाकामी को कोसने में  पीछे नहीं रहा |

इसके पहले माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ‘जल्ली कट्टू’ को संस्कृति मानने से इंकार करते हुए उसे पशु क्रूरता निवारण अधिनियम १९६० की धारा ३ के परिप्रेक्ष्य में पशु के प्रति क्रूरता की तरह देखा और प्रतिबंधित करने वाली अधिसूचना को उचित ठहराया |

आगे इस कानूनी लड़ाई का अंत क्या होगा ? इसका उत्तर भविष्य के गर्भ है|

लेकिन संस्कृति का जहाँ तक सवाल है तो वह पशुओ के साथ प्रेम और पूजा की रही है | सांड यानी नंदी शिव का वाहन होकर पूज्य हुआ | यहाँ तक कि ‘दशावतार’ की आस्था और परम्परा में पहले तीन अवतार सीधे मनुष्योत्तर रहे यानी ‘मत्स्य’ ‘कच्छप’ और ‘वाराह’ | इस क्रम में पृष्ठ दर पृष्ठ कहा जा सकता है | दरअसल ‘जल्ली कट्टू’ का मामला संस्कृति से अधिक उस अरण्य काल से जुड़ा है जहाँ पशु उसका स्वाभाविक प्रतिद्वंदी हुआ करता था और जहाँ दोनों एक दूसरे के भोजन थे | उस अरण्य काल में पशु पर शारीरिक विजय ही मनुष्य की श्रेष्ठता का मानक था | अरण्य काल से आगे कृषि काल तक यह मूल्य कायम रहा आया और एक कदम आगे  मनोरंजन में ढल गया | आधुनिक पूँजी के युग में यह मनोरंजन से आगे व्यवसाय तक बन गया जैसे सर्कसो में | साथ ही इस काल में खरगोश की फर टोपी , सियार और हिरन के चमड़े के जैकट , सांप की त्वचा के पर्स आदि नाना रूपों में ये ब्रांड बनकर मुनाफे का साधन बन गया |



सर्कसों में भी जब पशु की क्रूरता को लेकर प्रतिबन्ध लगाया गया तब भी सर्कस की इकोनामी और उसमे संलग्न लोगों की रोजी रोटी का तर्क दिया गया था जैसा ‘जल्ली कट्टू’ को लेकर भी दिया गया यहाँ तक कि पर्यटन के बढ़ावे की बात कही गयी |

ज़रा याद करने की जरूरत है कि पशु क्रूरता निवारण अधिनियम १९६० के परिप्रेक्ष्य में जब नाग पंचमी के दिन नाग और सांपो से अपनी कमाई करने वाले सपेरों के विरुद्ध कार्यवाही की गयी थी तब भी कई लोगो को यह संस्कृति पर हस्तक्षेप लगा था |

‘जल्ली कट्टू’  के बहाने से भी असल सवाल यही है कि कब तक मनुष्य पशुओं के दर्द से अपना मनोरंजन करता रहेगा |

“पेटा” ने इस विवाद के दौरान साड़ो के साथ क्रूरता के दर्दनाक फोटोग्राफ्स पेश किये थे | साड़ को इस खेल के लिए तैयार किये जाने के लिए उसे दारु पिलाने , उसके नथुने में मिर्च पाउडर डालने , साड़ को कील लगे डंडे से मारने , उसकी पूछ मरोड़ने और काट खाने जैसे अमानवीय तथ्य लोक विदित हैं |

एक मूक पशु के साथ मनोरंजन के लिए यह अमानवीय क्रूरता कैसे संस्कृति कही जा सकती है ?

और कहने वालो ने तो प्रतिबन्ध के दौरान तो कभी सती प्रथा , बाल विवाह, दहेज़ और छुआछूत को भी संस्कृति कहा था |

इतिहास में एक मोड़ ऐसा आता है जब पुरानी परम्पराओं की समीक्षा की जाकर नये अमल के लिए मार्ग प्रशस्त किया जाये |

कितनी बड़ी विडम्बना है कि मनुष्य क्रूरता को पशुता कहकर लांछित करता है लेकिन कुछ अवसरों पर पशुओ के साथ उसकी क्रूरता स्वयम पशुता को शर्मिंदा कर देती है | यदि मूक जानवर बोल सकते तो जरुर ऐसी क्रूरता को मनुष्यता कहकर लांछित करते |

और सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि मनुष्य अपने मनोरंजन के लिए कथित सभ्य युग में भी पशुओं को सताने पर निर्भर है जबकि किसी पशु या पक्षी को अपने मनोरंजन के लिए कभी किसी मनुष्य की आवश्यकता शायद ही कभी महसूस हुई हो |
कोई तीतर ,मुर्गा या सांड कभी आदमी के हाथ मे तलवार भाला पकड़ा कर आदमी बाजी करते नही देखा गया ।हालाँकि आदमियौ  को मजे और तमाशे के नाम पर लडाने का काम आदमी ही करता आया और आज भी कर रहा है ।इस तरह से यह सिर्फ एक खेल का प्रश्न नही मूल्यों का प्रश्न बन जाता है ।
इस कसौटी पर
फिर सभ्य कौन हुआ हम या पशु ?
बर्बर समाज के मनोरंजन के साधन भी बर्बर होते है ।समाज के विकास के साथ उसके मनोरंजन के साधन भी  विकसित और बदलते चलते हैं।हम सभ्य और विकसित कहलाने के इस दौर मे कहाँ तक पहुँचे है ?

‘जल्ली कट्टू’  के बहाने यह सवाल मौजू है |

काश सांड़ो से भी कोई पूछता और सांड इसे बता सकते कि सांड क्या चाहते हैं ?

|| हनुमंत किशोर ||

(पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण की हमारी मुहिम के लिये )