सत्य का पहरुआ : गणेश शंकर विद्यार्थी
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29 मार्च 1931 को कानपुर अस्पताल के पास एक लाश मिलती है जो फूली हुई और सड़ांध ले चुकी थी ।जिसकी शिनाख्त बाद में साप्ताहिक 'प्रताप' के यशस्वी सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी के रूप में होती है ।
पता चलता है कि 25मार्च 1931 को कानपुर में भड़के हिन्दू मुस्लिम दंगे के दौरान दंगे को शांत करने की कोशिश में उन्होंने अपनी जान होम कर दी थी ।
दो दिन पहले देश के तीन सपूत भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव अंग्रेजी हुकूमत द्वारा सूली चढ़ाए गए थे ।इसे लेकर देश मे जो जो विक्षोभ था उससे ध्यान बटाने के लिए तब हिन्दू मुस्लिम दंगा अंग्रेजो की सस्ती और सुलभ रणनीति थी ।
लेकिन यदि आज की पत्रकारिता को देखे जहां मीडिया आग में घी डालकर तेज़ हुई आंच में अपनी रोटी सेंकने का काम करता है वहां कोई भी नासमझ पूछ बैठेगा कि विद्यार्थी जी को आखिर पड़ी क्या थी जो वे आग में कूदकर आग बुझाने चल दिए ?
लेकिन अव्वल तो विद्यार्थी जी आज की कर्मिशयल और टी आर पी मारी मीडिया की पैदाइश नही थे जो अपना फर्ज भूल जाते और दूसरे उनका संस्कार साहित्य से आया था । उन्होंने पत्रकारिता को आजीविका का माध्यम नही अपने विचारों का मिशन बनाया था ।
शुरुआत 1911 में हुई थी तब जब हिंदी साहित्य की मूर्धन्य पत्रिका 'सरस्वती'के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें बुला भेजा था और वे महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक हुए थे ।
'सरस्वती' से 'अभ्युदय' और फिर 'प्रताप'।
इसी 'प्रताप' को उन्होंने अपना पर्याय बना लिया और लोगों के बीच 'प्रताप बाबा'कहलाये ।
पांच बार जेल गए ।
'प्रताप'में काम करते हुए मानहानि से लेकर राजद्रोह तक के मुकद्दमे झेले लेकिन 'कलम' की धार और रफ्तार कम नही होने दी । क्षत शीश हुए लेकिन कलम को नत शीश नही होने दिया ।
25 मार्च को जब कानपुर में दंगे भड़के तो कलमकार को अपनी भूमिका का अहसास हुआ ।
अब समय डेस्क पर बैठकर कागज़ रँगने का नही ..जनता के बीच पहुँचकर उसके विवेक को जगाने का है ।
और जब वे अविवेकी जनता को मनुष्यता का पाठ समझा रहे थे ,धर्मान्ध भीड़ ने सत्य और मनुष्यता के इस पहरुए की हत्या कर दी ।
जिसके शव की शिनाख्त चार दिन बाद हुई ।अमृत लाल नागर ने कहा 'वे अपने ही घर मे शहीद हो गए '
गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकार होने के नाते सत्य का पहरूआ मानते थे। उनके अनुसार सत्य प्रकाशित करना और उसे उजागर करना ही पत्रकार का धर्म होता है। एक जगह वे कहते हैं -
‘‘मैं पत्रकार को सत्य का प्रहरी मानता हूं-सत्य को प्रकाशित करने के लिए वह मोमबत्ती की भांति जलता है।"
आज बहुत कम लोग हैं जो अपने कहे पर ईमान ला सकते हैं जैसा कि विद्यार्थी जी लेकर आये ।
मोमबत्ती नही वे तो मशाल की तरह आज के धर्मान्ध और अंध राष्ट्र वाद के भयावह दौर में जल रहे है । पथ प्रशस्त कर रहे है ।
उनकी बहुत सी बाते आज अधिक चरितार्थ होती दिख रही हैं ।1925 में तब के नेता बनारसीदास चतुर्वेदी जी को फटकारते हुए उन्होंने कहा था -"मै हिन्दू मुसलमान झगड़े का मूल चुनाव को समझता हूं ..चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नही रहता ।"
धार्मिक आडम्बर को फटकारते हुए एक जगह वे कहते है
"अजान देने शंख बजाने नमाज पढ़ने का मतलब धर्म नही है ।..अच्छे आचरण करने वाले नास्तिक का दर्जा धर्म के नाम पर उत्पात मचाने वालो से ऊंचा है ।"
महात्मा गांधी की तरह उनका मुख्य जोर धर्म के आध्यात्मिक मूल्यों पर था । स्वयम को वे धर्म परायण कहते थे ।लेकिन उनकी दृष्टि में राष्ट्र धर्म सभी धर्म से ऊपर था । एक जगह वे कहते है 'हिन्दू हिन्दू राष्ट्र चिल्लाने वालों ने अभी तक राष्ट्र का मतलब नहीं समझा'
एक अन्य जगह खिलाफत आंदोलन की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा ‘देश की आजादी के लिए वह दिन बहुत ही बुरा था जिस दिन आजादी के आंदोलन में खिलाफत, मुल्ला, मौलवियों और धर्माचार्यों को स्थान दिया जाना आवश्यक समझा गया.’ ये बात उस खिलाफत आंदोलन के खिलाफ में कही गयी थी जिसे तुर्की के खलीफा के समर्थन में महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिम समुदाय को साथ लाने के एक मौके के रूप में देखा था.ये साहस ये विवेक गणेश शंकर विद्यार्थी में ही सम्भव था जो उस समय महात्मा गांधी के कार्यक्रम की रचनात्मक आलोचना कर कह सके कि ये कार्यक्रम आज़ादी के आंदोलन को एक कदम पीछे ले जाने जैसा है ।
पत्रकारिता को जन चेतना ,जन शिक्षण का माध्यम बनाने वाले सत्य के पहरुए और मनुष्यता के मशालची राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रासंगिकता वर्तमान
दौर में और भी ज्यादा हो गयी है |(हनुमंत किशोर )पता चलता है कि 25मार्च 1931 को कानपुर में भड़के हिन्दू मुस्लिम दंगे के दौरान दंगे को शांत करने की कोशिश में उन्होंने अपनी जान होम कर दी थी ।
दो दिन पहले देश के तीन सपूत भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव अंग्रेजी हुकूमत द्वारा सूली चढ़ाए गए थे ।इसे लेकर देश मे जो जो विक्षोभ था उससे ध्यान बटाने के लिए तब हिन्दू मुस्लिम दंगा अंग्रेजो की सस्ती और सुलभ रणनीति थी ।
लेकिन यदि आज की पत्रकारिता को देखे जहां मीडिया आग में घी डालकर तेज़ हुई आंच में अपनी रोटी सेंकने का काम करता है वहां कोई भी नासमझ पूछ बैठेगा कि विद्यार्थी जी को आखिर पड़ी क्या थी जो वे आग में कूदकर आग बुझाने चल दिए ?
लेकिन अव्वल तो विद्यार्थी जी आज की कर्मिशयल और टी आर पी मारी मीडिया की पैदाइश नही थे जो अपना फर्ज भूल जाते और दूसरे उनका संस्कार साहित्य से आया था । उन्होंने पत्रकारिता को आजीविका का माध्यम नही अपने विचारों का मिशन बनाया था ।
शुरुआत 1911 में हुई थी तब जब हिंदी साहित्य की मूर्धन्य पत्रिका 'सरस्वती'के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें बुला भेजा था और वे महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक हुए थे ।
'सरस्वती' से 'अभ्युदय' और फिर 'प्रताप'।
इसी 'प्रताप' को उन्होंने अपना पर्याय बना लिया और लोगों के बीच 'प्रताप बाबा'कहलाये ।
पांच बार जेल गए ।
'प्रताप'में काम करते हुए मानहानि से लेकर राजद्रोह तक के मुकद्दमे झेले लेकिन 'कलम' की धार और रफ्तार कम नही होने दी । क्षत शीश हुए लेकिन कलम को नत शीश नही होने दिया ।
25 मार्च को जब कानपुर में दंगे भड़के तो कलमकार को अपनी भूमिका का अहसास हुआ ।
अब समय डेस्क पर बैठकर कागज़ रँगने का नही ..जनता के बीच पहुँचकर उसके विवेक को जगाने का है ।
और जब वे अविवेकी जनता को मनुष्यता का पाठ समझा रहे थे ,धर्मान्ध भीड़ ने सत्य और मनुष्यता के इस पहरुए की हत्या कर दी ।
जिसके शव की शिनाख्त चार दिन बाद हुई ।अमृत लाल नागर ने कहा 'वे अपने ही घर मे शहीद हो गए '
गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकार होने के नाते सत्य का पहरूआ मानते थे। उनके अनुसार सत्य प्रकाशित करना और उसे उजागर करना ही पत्रकार का धर्म होता है। एक जगह वे कहते हैं -
‘‘मैं पत्रकार को सत्य का प्रहरी मानता हूं-सत्य को प्रकाशित करने के लिए वह मोमबत्ती की भांति जलता है।"
आज बहुत कम लोग हैं जो अपने कहे पर ईमान ला सकते हैं जैसा कि विद्यार्थी जी लेकर आये ।
मोमबत्ती नही वे तो मशाल की तरह आज के धर्मान्ध और अंध राष्ट्र वाद के भयावह दौर में जल रहे है । पथ प्रशस्त कर रहे है ।
उनकी बहुत सी बाते आज अधिक चरितार्थ होती दिख रही हैं ।1925 में तब के नेता बनारसीदास चतुर्वेदी जी को फटकारते हुए उन्होंने कहा था -"मै हिन्दू मुसलमान झगड़े का मूल चुनाव को समझता हूं ..चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नही रहता ।"
धार्मिक आडम्बर को फटकारते हुए एक जगह वे कहते है
"अजान देने शंख बजाने नमाज पढ़ने का मतलब धर्म नही है ।..अच्छे आचरण करने वाले नास्तिक का दर्जा धर्म के नाम पर उत्पात मचाने वालो से ऊंचा है ।"
महात्मा गांधी की तरह उनका मुख्य जोर धर्म के आध्यात्मिक मूल्यों पर था । स्वयम को वे धर्म परायण कहते थे ।लेकिन उनकी दृष्टि में राष्ट्र धर्म सभी धर्म से ऊपर था । एक जगह वे कहते है 'हिन्दू हिन्दू राष्ट्र चिल्लाने वालों ने अभी तक राष्ट्र का मतलब नहीं समझा'
एक अन्य जगह खिलाफत आंदोलन की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा ‘देश की आजादी के लिए वह दिन बहुत ही बुरा था जिस दिन आजादी के आंदोलन में खिलाफत, मुल्ला, मौलवियों और धर्माचार्यों को स्थान दिया जाना आवश्यक समझा गया.’ ये बात उस खिलाफत आंदोलन के खिलाफ में कही गयी थी जिसे तुर्की के खलीफा के समर्थन में महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिम समुदाय को साथ लाने के एक मौके के रूप में देखा था.ये साहस ये विवेक गणेश शंकर विद्यार्थी में ही सम्भव था जो उस समय महात्मा गांधी के कार्यक्रम की रचनात्मक आलोचना कर कह सके कि ये कार्यक्रम आज़ादी के आंदोलन को एक कदम पीछे ले जाने जैसा है ।
पत्रकारिता को जन चेतना ,जन शिक्षण का माध्यम बनाने वाले सत्य के पहरुए और मनुष्यता के मशालची राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रासंगिकता वर्तमान