Tuesday, August 14, 2012

danger of new slavery



नयी गुलामी के खतरे

सत्यजीत  रे की फिल्म शतरंज के खिलाडी का अंतिम दृश्य एक रूपक है | जिसमे झूठी शान में गर्क शतरंज के  दोनो खिलाडी  अपनी चौतरफा दुनिया से गाफिल एक दूसरे के खून के प्यासे हैं और दूर पगडण्डी में यूनियन जैक लाव लश्कर के साथ बैंड बाजे की धुन पर मार्चपास्ट करता शहर की तरफ बढ़ा आ रहा है |
                    इस दृश्य में थोडा सा फर्क पैदा कर दें तो आज के हालात को बयां किया जा सकता है | मसलन यूनियन जैक की जगह १३ पट्टी और ५० सितारों वाला झंडा लगा दें और धूल धूसरित कच्ची सड़क की जगह राजमार्ग पर गलीचा बिछा दें| मनमोहन तोरण द्वार लगाकर स्वनाम धन्य विशेषज्ञों को चारण पाठ की मुद्रा में खड़ा कर दें |  अलबत्ता लाव लश्कर का नारा इस बार भी वही पुराना होगा यानी सरकार नहीं व्यापार |
             सदियों पहले कालीकट के बंदरगाह पर एक जहाज़ ने लंगर डाला था | जिसमें से कुछ व्यापारी उतरे थे और जहाँपनाह जहाँगीर के दरबार में जिन्होंने मिर्च मसाले के व्यापार का वास्ता देकर एक तंबू भर जगह मांगी थी| फिर वो तम्बू तनता हुआ बंगाल को हड़प गया |फिर उत्तर प्रान्त  को | फिर उसने दिल्ली हथिया ली |
                   उनका स्वांग इस बार भी व्यापारी का ही है किन्तु इस बार सरकार उनके दरबार में हैं | शर्तें उनकी हैं  और समझौते हमारे | हम उनसे उद्धार करने की याचना कर रहें हैं  और उद्धारक मिशनरीज और एन.जी.ओ. में धन लुटाता ,शांति पाठ के साथ हथियार बेचता मुक्ति के नारे दुहराता  बारूदी टैंकों पर सवार चला आ रहा है |
      इस बार उसे जादू टोने और सपेरों की जमीन पर रहकर हैजा ,लू, मलेरिया प्लेग जैसी महामारियों का न तो सामना करना है ना ही हिंसक विप्लव या अहिंसक सत्याग्रह का जोखिम उठाना है | उसे अपने देश में बैठकर इन्टरनेट जैसी सुविधाओं से आंकड़ों पर नज़र रखनी है और बीच बीच में गुर्राते रहना है बेहतर विनियोग का माहौल बनाइये| उसे अबकी बार क़ानून व्यवस्था का संकट झेलने के लिए ना तो सेना रखनी है न पुलिस |यह काम  उसके स्थानीय मैनेजर बतौर यहाँ की सरकार राजी खुशी खुदबखुद अंजाम दे रही  है | गुडगाँव ,सिंगूर , नंदीग्राम से अनूपपुर जेतहरी तक निहत्थे आंदोलकारियों पर लाठी गोली चलने के लिए किसी गोरे ज़नरल दायर की ज़रूरत नहीं है स्थानीय एजेन्सी ही काफ़ी है |बन्दूक हमारी , गोली हमारी , लोग हमारे बस हुकुम  सात समंदर पार का | यही है सूचना क्रांति युग में नव उपनिवेश वाद का चेहरा | हमारी आँखों से ओझल किन्तु हमारे बाज़ार को उठता गिरता | हमें  आदेश देता कि हमें अपने किसानों को कितनी सब्सिडी देनी है | कर्मचारियों को कितनी पेंशन देनी है | ब्याज दर कितनी रखनी है आदि आदि इत्यादि |
क़र्ज़ का पट्टा हमारे गले में डालकर उसने हमें उसी तरह पालतू बना लिया है जैसा गाँव का निर्मम ज़मींदार अपने किसान को बना लेता है | और क़र्ज़ के मकड़जाल में पुश्त दर पुश्त बेगारी करती रहती है |                   विडम्बना यह है कि क़र्ज़ उतारने के लिए कर्ज लिया जा रहा है |वर्ष २००८  में १२८४ करोड़ डॉलर क कर्ज के रूप में वर्ल्ड बैंक को चुकाये गए | ये कर्ज एक ऐसे मर्ज़ की शक्ल ले रहा है कि त्रासदी पूर्ण प्रहसन में बदल गया है | जैसे  सरदार सरोवर के लिए जापान ने क़र्ज़ दिया तो उसी राशि में से जापान के सुमिटोमो कार्पोरेशन की टर्बाइन खरीदने की शर्त जोड़ दी | कहीं तो हथियारों की खरीद के प्रोत्साहन स्वरुप बांध के लिए क़र्ज़ दिए गये | इनकी  सबसे खास बात यह है कि अपनी  बेईमानियों को  वो खूबसूरत अवधारणा के मुल्ल्मे में पेश करते हैं | जैसे उधारी करण को खूबसूरत नाम उदारीकरण के पीछे छुपा दिया गया  | और ये कैसा उदारीकरण है कि अमीर  जितनी तेज़ी से और अमीर हुए गरीब उतनी ही तेज़ी से और गरीब होते गए |

           यह कर्ज़ा और खैरात ही है जो हमें फाउस्तियन पैक्ट से जकड़ रही है | फाउस्ट एक ज़र्मन खगोल विज्ञानी थे कोई १६ वी सदी में |कहा जाता है किउन्होंने सुरक्षा के आश्वासन के बदले अपनी आत्मा शैतान को गिरवी रख दी थी |आज के फाउस्ट हम हैं जो सुरक्षा और सुविधा के  एवज में  अपना विवेक आई. ऍम. एफ. , वर्ल्ड बैंक और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को समर्पित कर चुके हैं |
                          शैतान ने इस बार जो शतरंज बिछाई है उसका नाम है कारपोरेट वैश्वीकरण | गतिशील मुद्रा,शेयर सूचकांक,राष्ट्रीय विकास दर और ऐसी दूसरी लुभावनी शब्दावली में चालें चली जा रही हैं | एक एक कर कमाऊ सार्वजानिक उद्यम यथा भेल, एनटीपीसी ,बी एस एन एल और दूसरे नवरत्नों को निजीकरण के मोहरों से पीटा जा रहा है |
         सार्वजनिक उपक्रमों और लोक कल्याणकारी नीतियों  के विरुद्ध षड्यंत्र की चाप ३० साल पहले तब के सुदर्शन प्रधानमंत्री के इकबालिया बयान में सुनी जा सकती थी ,जिसमे उन्होंने स्वीकारा था कि १०० पैसे में १५ पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं | ज़ाहिर है किसी ईमानदार कोशिश के आभाव में यह मात्र सरकार की भूमिका को व्यापारिओं के पक्ष में लगातार सीमित करते जाने के लिए एक पूर्वाभ्यास या  माहौल बनाने जैसा था |  इसी समय सार्वजनिक उपक्रमों को रोल बैक किया जाकर विदेशी महाजन को आमंत्रण भेजे जाने लगे ..| और विदेशी पूँजी ने हमारे  विवेक को कैसे बदल दिया इसकी मिसाल प्रधानमंत्री के दावेदार युवा आइकान के उस बयान से मिलती है जिसमे वे  कोक और पेप्सी में पाए जाने वाले कीटनाशक के लिए उन कम्पनियों को नहीं इस देश के पानी को ही  जिम्मेदार ठहराते हैं | हैरानी ना होगी  यदि कल देश के कर्णधार देश की आबो हवा के शुद्धिकरण का ठेका किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को सौंप दे |
                     हवा पानी छीनने का चरणबद्ध कार्यक्रम शुरू हो चुका है | देश की नदियाँ ठेके पर उठाई जा रहीं  है | छतीस गढ़ की शिवनाथ नदी के  एक हिस्से पर बहुराष्ट्रीय कंपनी को  मल्कियत  दी गई है | उस हिस्से के पानी के साथ वहाँ कि मछलियों पर भी उसी का अधिकार होगा | पानी की पैकेजिंग का परिणाम हमारे सामने है | रेल , बस , होटल  हर कहीं  पानी का दाम गरीब की प्यास पे भारी है | सार्वजनिक नल और प्याऊ साज़िशन सुखा दिए गये  हैं | बर्मा और मलेशिया में पानी के निजीकरण ने क्या तबाही की , हम देख सकते हैं | एक और उदाहरण नमक का है | आयोडीन का बहाना बनाकर  साधारण नमक को अपराध घोषित कर दिया गया | किसान अपने मवेशियों को नमक का घोल पिलाते थे , जो  साधारण नमक के बाहर हो जाने से एक खर्चीला कार्य हो गया | बात यहीं नहीं रुकी पहले बड़ी कम्पनियाँ सस्ते दाम के साथ नमक के धंधे में कूदी और फिर वहाँ अपनी इजारेदारी कायम कर आज बढ़े दामो के साथ स्वाद और सेहत दोनों से खेल रही हैं | कमाल  ये है कि इस आयोडीन के नाम पर ये तमाशा किया गया था उसकी खबर किसी ने नही ली | गौर तलब है कि बाजार में उपलब्ध इस नमक से हम तक  आयोडीन पहुँच ही नहीं पाता | वह पैकेजिंग और  पके भोजन में  शामिल होने  की क्रिया तक में समाप्त हप चुका होता है | इस तरह आयोडीन की आड़ में नमक का गोरख धंधा जारी है | आज गाँधी होते तो क्या एक और नमक सत्याग्रह करने को बाध्य होते ?
            क़र्ज़ तथा  उदारीकरण ने मेक्सिको और अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्थाओं को जिस तरह तबाह किया है |उससे सबक लेने की जगह हम  रफलस्टिलटसकिन की आवभगत  में  मस्त हैं | रफलस्टिलटसकिन वही बौना है जो खेतों की खरपतवार को सोने में बदल देता था | ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ वही रफलस्टिलटसकिन हैं जो खेतों की खरपतवार को सोने में बदलते हुए उन खेतों की मालिक बनती जा रहीं  है | और  होरी जैसे किसान अपने ही खेतों में मजूर हो गये हैं | सेज जैसे किसान विरोधी कानून लौह दस्ताने पहनकर देश की चुनी हुई सरकार द्वारा लागू कराये जा रहें हैं | अमानवीय चेहरे को हर तरह के झूठ और सेंसरशिप के जरिये मीडिया के ज़रिये छुपाया और सवांरा जा रहा है |
 टी.वी. उसकी आँख से देख रहा है , अखबार उसकी नक् से सूंघ रहे हैं | किराये के बुद्धिजीवी और विशेषज्ञ प्रायोजित लिख रहें हैं |दश मुखो से उसका अट्टहास जारी है | अपनी सहस्त्र भुजाओं से उसने हमारे जीवन के हर आयाम को जकड़ लिया है | हमारा खानपान, हमारी भाषा , हमारे एकांत , हमारे त्यौहार , हमारे मूल्य और सौंदर्यबोध  सब उसकी जकडबंदी  में हैं | वह विश्व ग्राम का एकमेव ब्रह्म है यानी विधाता और हम उसकी कठपुतलियाँ |
                 इतिहास गवाह है कि पलभर की बेचारगी सदियों की गुलामी में बदल जाती है | नई गुलामी दस्तक दे रही है |इस बार दुश्मन दोस्त की शक्ल में हैं और उसकी पहचान मुश्किल है | राजनैतिक शून्यता या ढुलमुल वाद विवाद का त्याग कर व्यापक जन संघर्ष और प्रतिरोध की राजनीति का विकल्प तैयार करना होगा |इसकी शुरुआत हर मोर्चे पर अपनी ज़रुरी असहमति दर्ज करने से होगी |अब हमें अपने दड़बों से बाहर निकलना ही होगा | क्योंकि वे आ रहे हैं ...या आ ही चुके हैं | इस बार वे जहाज़ों पर नहीं विद्युत चुम्बकीय तरंगों पर सवार हैं |
                                                       हनुमंत किशोर....


 
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आज़ादी की सालगिरह मुबारक

 रात १२ बजे हैं |
कोई ६५ साल पहले इसी वक़्त नेहरू ने नियति से  वायदा किया था |
 वो वायदा कहाँ है, वो नियति कौन सी थी ?
आसमान में बादलों ने ढेरा डाल रखा है | मौसम ना ठीक से खुला है ना बंद |
देश की फिज़ा जाने क्यों ऐसी ही लगती है | सब कुछ संदेहों के घेरे में क़ैद है |
मुझे देश से मोहब्बत है और आज़ादी से भी |
पर मैं बुझा हुआ सा क्यूँ हूँ?
बचपन से देखता आया हूँ
१५ अगस्त और २६ जनवरी सरकारी त्यौहार से क्यों लगते हैं ?
इस दिन दीपावली या क्रिसमस या ईद की तरह घरों में पकवान क्यों नही बनते ?
रोशनियाँ क्यों नहीं होती? लोग गर्मजोशी के साथ घर घर जाकर  गले क्यों नही मिलते ?
सिर्फ सरकारी इमारतों पर झालर टंगी होती है |
सिर्फ सरकारी दफ्तरों में या स्कूलों में लड्डू बंटते हैं |
क्या आज के दिन सिर्फ सरकार आजाद हुई थी ?
क्या १५ अगस्त सिर्फ रस्मअदायगी है ?
आज के दिन कोई रिक्शेवाला , रेहडी वाला, कबाड़ वाला  खुश क्यों नही दिखता?
फटा सुथन्ना पहने हरचरना क्या केवल गीत गायेगा ? या खुशी भी मनाएगा ?
क्या  ये देशभक्त नहीं है ?या इन्हें आजादी की वर्षगाँठ का पता नहीं है ?
हालाँकि जो खुश है वे भी सिर्फ इसलिए कि छुट्टी है
...मुआफ करें में अपनी बात कर रहा हूँ|
अंग्रेजों के समय क्या था ? जो आज नहीं है ?
दंगे , गरीबी , गैरबराबरी , बेईमानी क्या है जो कम हुआ ?
हम १९४७ से २०१२ में चलकर  कहाँ पहुँचे है ?
मंटो के मंगू कोचवान ने भी आजादी का मतलब पूछा था मैं भी पूछता हूँ |
मैं चाहता हूँ कि आज के दिन मुझे लगे कि मैं आज़ादी से साँस ले सकता हूँ
और तब तक बेखौफ रह सकता हूँ जब तक कानून कि किताब में लिखा जुर्म न करूँ
 मगर देखता हूँ जो मुजरिम हैं वे बेखौफ हैं और बेगुनाह खौफ के साये में |
फिर भी मुझे यकीन है कि आजादी एक दिन मुक्कमल होगी |
मेरे पूर्वजों की कुरबानियाँ बेकार नहीं जायेगीं|
मगर हमें भी आज़ादी के मानी , कीमत और इज्ज़त समझनी होगी
हकीकत को तख्युअल से बाहर लना होगा |
आइये उस दिन के इंतज़ार तक मुबारकबाद  लेते और देते रहें .....