Saturday, June 9, 2012

theater festival 2012 report


रंग समागम २०१२ : ३ जून से ७ जून एक रपट

समागम रंगमंडल जबलपुर में अव्यवसायिक रंगकर्मियों का समूह है | जिसका रुझान रंगकर्म की प्रगतिशील जनवादी धारा की ओर है | जो नाटक को मात्र मनोरंजन का साधन नहीं अपितु बदलाव और प्रतिरोध के माध्यम के रूप में व्यवहार में लाते हैं | पाप कॉर्न, रेड फ्राक, अस्सी लाख और एक अकेली औरत जैसी अपनी नाट्य प्रस्तुतियों के माध्यम से समागम रंगमंडल ने रंगमंच को परिवर्तन और प्रतिरोध के विमर्श का विषय भी बनाया और समकालीन रंग भाषा को भी अपनी एक शैली प्रदान की है |

जबलपुर रंग मंच के पितृ पुरुषों में एक स्व कश्यप झा की स्मृति में समागम रंगमंडल प्रति वर्ष राष्ट्रीय नाट्य समारोह आयोजित करता आया है |

रंग समागम २०१२ के नाम से इस वर्ष भी स्थानीय शहीद स्मारक जबलपुर में ३ जून से ७ जून तक राष्ट्रीय नाट्य समारोह आयोजित किया गया | जिसमे मुंबई, पूना ,पटना , बेगुसराय समेत स्थानीय रंग दल सम्मिलित हुए और शहर ने रंगमंच की विविध छवि और शैलियों का साक्षात्कार किया |

दिंनाक ३ जून को रंग समागम २०१२ की प्रथम प्रस्तुति के रूप में समागम रंगमंडल द्वारा हितोपदेश की कहानी को आधार रचना बनाकर "डकैत चूहे " का मंचन किया गया | हितोपदेश की कहानी धनकी शक्ति को इम्प्रोवाईस कर उसे आधुनिक संदर्भों और संघर्षों से जोड़कर हमारे समय को चित्रित किया गया|अंतर्राष्ट्रीय,राष्ट्रीय और हमारे स्थानीय परिदृश्य साफ़ देखे जा सकते थे | पुरानी कहानी जहाँ धन की ताकत का खुलासा करती है वहीँ नाटक की कहानी पूंजी के चरित्र का | कभी समरसेट माम ने कहा था कि पैसा छठी इन्द्रिय है जिसके आभाव में शेष पांच इन्द्रिया कार्य करना बंद कर देतीं हैं | आज उन्हें पूंजी का व्यवहार देखकर कहना पड़ता कि इन्द्रियाँ ही नहीं राज्य और समाज की शक्तियाँ भी कार्य करना बंद कर देती हैं या उल्टा करने लगती हैं|नाटक पूंजी के इसी सर्वग्रासी भयावह रूप को उजागर करता है
भूमन्डलीकरण में पूंजी किस तरह किसानों आदिवासियों , आम जनों के छोटे छोटे सपनो और सुविधाओं को अपना आहार बना रही है चूहे के रूपक के माध्यम से नाटक में दिखाया गया है | प्रस्तु ति शानदार रही |निर्देशक आशीष पाठक की मुहर उनकी प्रस्तुति में दिखाई दे रही थी | अभिनेता अमित वर्मा ने भी अपनी संभावनाओं को जीवित रखा |

समागम रंगमंडल के नाट्य उत्सव २०१२ के दूसरे दिन फेक्ट ग्रुप बेगुसराय द्वारा "जर्नी आफ फ्रीडम" का मंचन किया गया | निर्देशक थे जाने माने युवा निर्देशक प्रवीन कुमार् गुंजन | उनकी पिछली प्रस्तुति "समझौता" सुपर डुपर थी | उसी उम्मीद में शहर के आम और खास , कलाप्रेमी और कलासाधक सभी आये थे | वे महेंद्रा एंड महेंद्रा का इनाम उठाकर आये थे सो उम्मीदें सभी की जवान थीं|

मगर इस बार नाम बड़ा था और... दर्शन छोटा निकला | या यूं कहें ऊँची दुकान में फीके पकवान गले पड़ गए|
हुआ यूँ कि एन. एस.डी. दिल्ली में सीखा सारा कुछ उन्होंने इस प्ले में झोंक दिया बस एक कथ्य के लिए ही जगह कम रह गयी | सारा प्ले विम्बों की सुनहरी श्रखंला था .. सब कुछ सुंदर था बस समझना जरा मुश्किल था |
किन्तु बुद्धिजीवी इसे समझ सकते थे | अब समस्या यह है की जबलपुर जैसे शहर में दर्शक तो मुश्किल से मिलतें है , बुद्धिजीवी तो दुर्लभतम हैं

.. यदि प्रवीन भाई इसे जरा कठोरता से एडिट करें और विम्बों के मोह से निकल कर कथ्य / कहानी के लिए किसी समझदार की मदद ले सकें तो प्ले सबके लिए अच्छा बन पड़ेगा |

समागम रंगमंडल जबलपुर के नाट्य उत्सव २०१२ के तीसरे दिन पूना के ओजस थियेटर ग्रुप द्वारा पी एस इन्कलाब का मंचन किया गया | |सही मायनों में यह प्रस्तुति stunning performance थी| यानी मूर्छित करने वाली | कुछ प्रस्तुतियां अपनी जटिलता या लचरता के चलते दर्शक को बेहोश कर देती हैं और कुछ अपनी सशक्त बुनावट और अदायगी के चलते दर्शक को मूर्छित कर देती हैं| दर्शक अपनी सुद्बुध खो द...ेता है और दीन दुनिया से बेखबर हो जाता है |
आज का पी एस इन्कलाब ऐसा ही था | शो खत्म होने के बाद भी दर्शक जड़ीभूत थे | वे उस सम्मोहन से बाहर नहीं निकल पा रहे थे जिस सम्मोहन में उन्हें नाटक ने बाँध रखा था |शो समाप्ति के १५ मिनट तक हाल में pin drop silence पसरा रहा |कुछ दर्शक बाहर निकलकर यह भी कहते पाये गए कि वे नाटक को दुबारा देखना चाहेंगे ताकि और बेहतर समझ सकें|
यह कमाल तब है जब नाटक में किसी किस्म का बाहरी तामझाम नहीं था | पेपर को पीछे परदे में लगाकर एक खाट ,एक टेबल कुर्सी एक गठरी और कुछ ज़रूरी चीज़ों के साथ बना सेट | बिना किसी मेकप के दो महिला पात्र | अब जो चीज दर्शक पर जादू चला गयी वो थी कथा और उसके अनुरूप विकसित फार्म | मंच पर जो था उसका एक विवेक पूर्ण इस्तेमाल और अभिनय की सहजता |
मंच पर जो भी हो रहा था वह न तो सायास दिखता था और न ही अनायास वह मात्र सहज दिख रहा था | और जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती पीछे केनवास का बनता चित्र भी बढ़ता जाता | वो चित्र दरअसल तीसरा अभिनेता था | जो मंच पर ओजस और रेखाठाकुर जितना ही प्रभावी था |
नाटक की कहानी पर बात करने के लिए एक अलग पोस्ट दरकार होगी इसलिए कहानी पर बाद में | थोड़े में मामला कुछ ऐसा था जिसे मुक्ती बोध कहते हैं
मेरी प्रेरणा से तुम्हारी प्रेरणा
इस तरह भिन्न है
कि तुम्हारे लिए जो विष है
मेरे लिए अन्न है “|
दुनिया को बचाने और बदलने के आंदोलनों में शामिल लोगों की अन्दुरुनी जिंदगी | उनके उतार चढाव | उनकी आशा निराशा | उनकी सफलता असफलता | उनके सवाल ज़वाब गोया उनके भीतर के रेशे रेशे को दो पात्र खतो खतूत के अंदाज़ में बुनते और उधेड़ते जाते हैं| एक का नुक्ताये नजरिया खुदगर्जी का है जहाँ खुद की रूहानी और जिस्मानी ज़रूरते दूसरों से ऊपर हैं और दूसरे का कमिटमेंट कौमी है | जिसके बारे में कहा जाता है कि मुक्ति के रास्ते अकेले नहीं होते | सबकी मुक्ती में ही अपनी मुक्ति भी होती है |नाटक इन्हीं दोनों के आत्म संघर्ष , पारस्परिक द्वंद और घात प्रतिघात से गतिमान होता चलता है | हांलाकि नाटक के अंत में भी अपने अपने तई दोनों मुक्ति कामी बने रहकर अपने जुदा रास्तो पर बढ़ निकलते हैं शायद फिर कभी न मिलने के लिए |
दोनों अपने भीतर की बैचेनी और खालीपन का इलाज सर्वथा अलग अलग तरीकों में ढूंढते हैं| और यहीं कहीं दर्शक भी दर्शक भर नहीं रह जाता उन्हीं में से एक किरदार हो जाता है|
दर्शक को किरदार बना लेने की ही ताकत थियेटर की असली ताकत है | जिसकी बानगी पी एस इन्कलाब है |
आगे की प्रस्तुतियों में लाईट और म्यूजिक की खामियां नहीं होंगी हम उम्मीद करते हैं , साथ में यह भी कि थियेटर के दादा इस ओजस नाम की बच्ची से कुछ सीखेंगे |

समागम रंगमंडल जबलपुर के नाट्य उत्सव २०१२ के चौथे दिन भिखारी ठाकुर के बिदेसिया को निर्माण कला मंच पटना के कलाकारों ने शहीद स्मारक के मंच में मज़े लेते हुए खेला और इस खेल के जबलपुर के दर्शकों ने भी जी खोलकर कर मजे लिए |
अब यह तो लोक नाट्य का अपना स्वभाव है कि उसे खेला ही जा सकता है नागर रंगद्वारी की तरह मंचित नहीं किया जा सकता ...|
भिखारी ठाकुर अपने जीते जी भी इसे विदेश ले गए और ये कलाकार भी विदेश के दौरे से हाल ही में वापस आये हैं |कुछ दिन पहले ही मारीशस में इन कलाकारों ने यह नाटक खेला था |
भिखारी ठाकुर के गीत, संजय उपाध्याय की लोक संगीत पर आधारित धुनों ,शारदा सिंह और उनके साथियों के गायन वादन ने ऐसा समां बांधा कि २ घंटे रसिक जन रंग रसधार में डूबते उतराते रहे | नाटक इतना सहज और संप्रेषणीय था कि भोजपुरी बोली बाधा न होकर सेतु हो गयी | भोजपुरी की मिठास में जो जादू है वह यहाँ सुनते भी बनता था और देखते भी|इस काम को बखूबी अंजाम दिया अभिनेताओं के गाते झूमते ठिठोली करते अभिनय ने | अभिनय एक खेल है न कि कला या विज्ञान इसे समझना हो तो लोक नाट्य के अभिनय को देखें|जिसमे ये कलाकार निपुण हैं| काबिले तारीफ यह है की ज्यादातर शहराती हैं और ये हुनर उनके अभ्यास का परिणाम है |
' बिदेसिया ' नाम का यह जादू भिखारी ठाकुर ने कोई १०० साल पहले रचा था | जिसमे उस समय काम की तलाश में बिहारियों के कलकत्ता पलायन और फिर वहाँ दूसरी शादी के बीच इंतज़ार में जर्जर होती नवविवाहिता के दुःख दर्द को लोकनाट्य की हास परिहास शैली में ढाला गया था |
भिखारी ठाकुर के नाटकों में पात्र नहीं अपितु परिवेश महत्वपूर्ण होता था | इसीलिए वे आज भी उतने ही सटीक बैठते हैं | बेटी बेचवा ,बेटी वियोग ,विधवा विलाप , गरब गिचोर और कलयुग प्रेम जैसे उनके दूसरे नाटकों में भी हम आज के समय और समस्यायों को पहचान सकते हैं|
आज की प्रस्तुति ' बिदेसिया ' भोजपुरी के शेक्सपियर { राहुल सांस्कृत्यायन ने यही नाम दिया था ठाकुर को } को विनम्र श्रद्धांजलि भर नहीं है अपितु वह उस भारतीय रंग परम्परा का दस्तावेज़ीकरण भी जो भिखारी ठाकुर से चलकर वाया हबीब तनवीर हम तक आती है |आगे आने वाले कठिन समय में जब लोक विलुप्त हो जायेगा हम इसी तरह के दस्तावेजों से उसका जीवाश्म तैयार करेंगे|
सो इस काम में लगे रंग कर्मियों को सलाम |



९ जून समागम रंगमंडल के नाट्य उत्सव के अंतिम दिन मुंबई से आये मनोहर तेली द्वारा कामतानाथ की कहानी संक्रमण का मंचन किया गया | उक्त नाटक के पूर्व बच्चों की कार्यशाला में तैयार नाटक बुद्धि राजा जो स्व. अलख नंदन द्वारा लिखित है का मंचन भी किया गया जिसे श्री अजय सिन्हा द्वारा निर्देशित किया गया | जिसे दर्शको ने भरपूर सराहा |
सितारा प्रस्तुति ...“संक्रमण में मनोहर तेली स्वयं के निर्देशन में लाज़वाब अभिनय करते हैं | उनका व्यंग्य दर्शकों को चिकोटी काटता है वहीँ ज़रूरी मौको पर वे संवेदना भरा अभिनय कर दर्शक की आँख को नम भी कर देते हैं | मनोहर एन. एस. डी. से तालीम लेकर दूसरे कला साधकों की तरह मुबंई में रोज़ी रोटी के जुगाड में सीरियल और फिल्मों में काम करने लगे |किन्तु उनकी कला की भूख उन्हें बार बार नाटकों तक खींच ही लाती है |
संक्रमण दो पीढ़ियों के बीच के उस द्वंद को चित्रित करता है, जिससे हम आप सभी अपनी रोजमर्रा ज़िन्दगी में दो दो चार होते हैं| इसके पात्र किसी भी हिंदी पट्टी के कस्बाई या शहराती परिवार में ढूंढे जा सकते हैं| यहाँ चुहलबाजियों और गपशप भरी बतरस में एक संवेदनापूर्ण परिवेश बनता चलता हैं | जहाँ दोनों पिता-पुत्र अपने अपने खांटी कस्बाई अंदाज़ में एक दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण हैं | दरअसल उनका टकराव मात्र बाहरी या ज़ुबानी है न की दिली |और इस उपरी खटास का कारण भी उनका समय के साथ संक्रमित होता वस्तुओं और स्थितियों को देखने का दृष्टिकोण है जो समय के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढी में आप ही संक्रमण कर जाता है |
यह नाट्य प्रस्तुति कहानी के मूल प्रभाव को बचाये रखती है | जो कहानी के रंगमंच के मुख्य तत्व है |कामतानाथ बेहद सादे कहानी कार हैं | वहाँ कोई मुल्लमा या कलाकारी ,नक्काशी जैसा कुछ नहीं है | उनका अंदाज़ ठेंठ रहता है | मनोहर तेली उसी अंदाज़ में कहानी को प्रस्तुत करते हैं | बगैर तामझाम के, सीदे सादे लहजे में| किन्तु अभिनय में उनकी टाइमिंग और एनर्जी दर्शक को मन्त्र मुग्ध किये रहती है | दो हिस्सों में एक बच्चे की सेकेण्ड भर की एंट्री को छोड़ दें तो प्रस्तुति एकल यानि सोलो थी|
इस तरह से एक सोलो डकैत चूहेसे शुरू होकर दूसरे सोलो संक्रमण पर आकर नाट्य उत्सव ने अपना चक्र पूरा किया | यह वर्तुल यह भी सिद्ध करता है कि भू गोल है और यह भी कि समय के गति भी वर्तुल है | यानि जो अभी घटा है दुबारा भी घटेगा |
तो इसी उम्मीद में हम अगले बरस की बाट जोहते हैं कि कुछ और बेहतर नाटक हमारे जीवन को जीवन से परिपूर्ण करने के लिए आकार ले रहे होंगे और हमसे उनकी भेंट ज़रूर होगी | आमीन ||||



                                                         हनुमंत किशोर ....



2 comments:

  1. समागम रंगमंडल द्वारा आयोजित रंग समागम 2012 की शानदार व विस्‍तारपूर्वक रपट के लिए.....साभार आपका

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  2. हेमंत शुक्रिया आपका .... आप यहाँ कोई लेख देंगे तो और भी अच्छा लगेगा

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