Monday, February 13, 2017

लोग मोहब्बत को हर दौर में मारेंगे

लोग मोहब्बत को हर दौर में मारेंगे
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वेल्नेटाइन डे पर इस बार भी संस्कृति के स्वयम्भू ठेकेदारों से  खतरा है |
हालांकि इस बार कई चतुर अपील भी सोशल मीडिया पर धूम रही हैं
मसलन
‘इस दिन भगत-सुखदेव-राजगुरु को फांसी की सज़ा सुनाई  गयी थी इसलिए इसे प्रेम नहीं बलिदान दिवस के रूप में मनायें’
'प्रेम के लिए एक दिन ही क्यों हर दिन प्रेम का दिन है '
 और यह भी कि प्रेम ही करना है तो एक व्यक्ति से नहीं समूची सृष्टि से करो |
गोया भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी प्रेम के खिलाफ़ हों , एल दिन प्रेम दिन मना लेने से दूसरे दिन प्रेम नहीं कर सकेंगे और जैसे कि व्यक्ति सृष्टि से बाहर हो |
खैर जब भी प्रेम के खिलाफ कोई विचार, फतवा या पंचायत खड़ी होती है मुझे एक दोहा बरबस याद आता है |
जो है तो अमीर खुसरो का  लेकिन अब ये लोक की धरोहर बन  चुका है
दोहा कुछ ऐसा है कि
“कागा सब तन खाइयो
चुनि-चुनि खाइयों मांस
दुई अँखियाँ मत खाइयो
पिया मिलन की आस ||”
अब इस दोहे में बहुत साफ़ है कि प्रियतम से मिलने की आस में एक विरहणी तड़प- तड़प कर निश्चेष्ट हो चुकी है कि उसे मरा जानकर कागा यानी कौआ यानी उसके प्रेम का दुश्मन उसे खाने आ पहुचा है | विरहणी की काग से प्रार्थना है कि सारा शरीर खा ले सिवाय दो आँखों के जिनमे प्रियतम के आने की उनसे मिलने की उम्मीद अभी भी शेष है |
यह दोहा उम्मीद के पक्ष में , जो कि प्रेम शत्रु समाज में जीवित रहने का एक मात्र आधार है पर कही गयी सबसे लोकप्रिय काव्यात्मक अभिव्यक्ति है |
इस दोहे की लोक प्रियता इस बात का प्रमाण है कि समाज में एक छोटा सा वर्ग आज भी प्रेम को जीवन की जरूरत मानता है और वहीँ समाज का एक बड़ा वर्ग उसके प्रेम के इस अधिकार को सर्वथा नकारता ही नहीं अपितु अपराध और दंड के खांचे में देखता है |
हमारा देश इस मामले में आज भी तालिबानी सोच के खिलाफ खड़ा नहीं हो सका है जो मज़हब के दायरे से बाहर प्रेम को गुनाह समझता है और गुनाहगार को सज़ा देना जहाँ पुण्य यानी सवाब का काम है | और खाप पंचायत नुमा सोच इस पुण्य लाभ को किसी और के साथ बांटना नहीं चाहती अकेले ही कमाना चाहती है |
कथाकार अवधेश प्रीत की एक कहानी है “चाँद के पार चाभी” |
दलित नौजवान के प्रेम की कहानी है |
जिसमे कथाकार यह सवाल उठाता है कि हमे प्रेम का अधिकार कब मिलेगा ?
और हैरानी की बात है कि हमारे देश का कानून जहाँ शिक्षा, खाद्य , रोजगार आदि को तो जीने के अधिकार में शामिल करता है लेकिन प्रेम के अधिकार पर मौन रह जाता है |
अब बिना प्रेम के अधिकार के हम कैसा प्रेमहीन समाज निर्मित कर सकते हैं , यह विचार का प्रश्न है | लेकिन जहां इसे खुलकर कोई उठाने को कोई तैयार नहीं होता वहीं इसके खिलाफ खड़ी खौफ़ की मूर्तिमान कथित पंचायतें और ऐसे ही सोच से परिचालित संगठन अपना एजेंडा डंडे के जोर पर लागू करने में कोई कसर नही उठा रखते |
इस खौप की बानगी बागपत के उस परिवार के दर-दर भटकने में देखी जा सकती है जिसे एक लड़की से प्रेम करने और घर से भगा ले जाने के एवज में खौफ़ की मूर्तिमान कथित पंचायत ने हुकुम सुनाया कि लड़के की बहनों से बलात्कार कर उन्हें नंगा घुमाया जाये |
सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप कर परिवार को सुरक्षा मुहैया करानी पड़ी |
विवाह से बाहर के सम्बन्ध के आरोप पर ऐसी खौफ की मूर्तिमान कथित पंचायतो द्वारा महिलाओं के चीर हरण का हुकुम तो सामान्य बात है अभी पिछले साल एक मामले में समान गोत्र में शादी करने वाले पति को अपनी पत्नी को बहन मानकर उसे दस रुपए का शगुन देने का हुकुम हरियाणा के करनाल में ऐसी ही पंचायत ने सुना दिया | तब अपनी शादी और प्रेम बचाने के लिए पति-पत्नी को अंततः अदालत की शरण लेनी पड़ी थी |
शायद आपको याद हो २००७ में मनोज –बबली के मामले से जुड़कर ऐसी ही कथित पंचायत ने किस तरह खौफ़ कायम किया था |
उस कुख्यात आनर किलिंग के बाद से इनका खौफ़ बदस्तूर जारी है |
“श्री राधा-कृष्ण” के उपासक देश की यह भारी विडम्बना कही जानी चाहिये कि यहाँ प्रेम करना पविवार के सम्मान के विरुद्ध समझा जाता है |
समाज-जाति-परिवार का कोई व्यक्ति चोरी करे , बेईमानी करे, हत्या और बलात्कार करे तो उस समाज-परिवार का सम्मान खतरे में नहीं पड़ता लेकिन प्रेम करते ही सम्मान खतरे में पड़ जाता है |
प्रेम को परिवार के सम्मान के विरोध में देखना आज से नहीं है बल्कि इसकी जड़े प्राचीन समय-समाज तक जाती हैं किन्तु हालिया वर्षों में इस सम्मान हत्या और प्रेम विरुद्ध मानसिकता से जन्मे अपराधों में जबर्दस्त उछाल आया है | संसद में तत्कालीन मंत्री श्री हसंराज द्वारा जानकारी दी गयी थी कि सन २०१४ में जहाँ सम्मान हत्या के २८ मामले सामने आये थे वहीं २०१५ में ऐसे २५१ मामले पंजीबद्ध हुए याने सीधे ८०० % की बढ़ोत्तरी |
इस आंकड़े से समझा जा सकता हमारी सम्वेदना और सोच कितनी तेज़ी से बर्बर हुई है | ‘नीतीश कटारा’ हत्याकांड आज भी ज़ेहन में ताज़ा है तो कुछ एक महीने पहले ही राजस्थान के डून्गुरपुर में अंतर्जातीय विवाह के कारण युगल जान से हाथ धो बैठा | दरअसल सम्मान हत्या को उल्टा पढ़ने की जरूरत है यानी हत्या का सम्मान |
ये सिर्फ और सिर्फ मध्य युगीन सोच से जन्मी पितृ सत्तात्मक दकियानूस सोच का बर्बर प्रदर्शन है |
जहाँ स्त्री जमीन की तरह निर्जीव भोग्य वस्तु है और जिसे किसी तरह के आत्म निर्णय का अधिकार नहीं है | मनुष्य विरोधी यह सोच इस जमीन पर खड़ी है कि विवाह और सम्बन्ध जैसे प्रश्न निजिता से बाहर है और उनके मामले में दूसरो का फैसला ही सर्वोपरी है |
पिछले बरस ही उत्तरप्रदेश के बरेली जिले का जघन्य मामला सामने आया था जिसमे प्रेम सम्बन्ध को सम्मान के लिए खतरा मानकर एक लड़की को उसके चार भाइयों ने पीट पीटकर मार डाला था | इस नृशंस घटना ने मेरे ज़ेहन में हिन्दुस्तान की एक क्लासिक प्रेम कहानी की याद ताज़ा कर दी थी वो थी “मिर्जां -साहिबा” |
साहिबा और मिर्जा का इश्क बचपने का था | लेकिन साहिबा की शादी उसके घरवाले कहीं और तय कर दी | बारात के घर पहुँचने के पहले साहिबां मिर्जा के साथ उसकी घोड़ी पर बैठकर भाग गयी |
साहिबां के सातों  भाई उनका पीछा करते हैं और उन्हें पकड़ने में कामयाब होते हैं और मार डालते हैं | भाइयों की चिंता में मिर्जा का तरकश दूर छिपा देने वाली बहन अपने भाइयों के ऑनर की किलिंग का शिकार बनती है |
हमारे देश में प्रचलित अनेक प्रेम क्लासिक इसी तरह की ऑनर किलिंग के ही मामले हैं |
एक अन्य लोकप्रिय किस्सा ‘हीर-रांझे’ का है |
किस्से में ‘हीर’ का विवाह खेड़िया के संग हो जाता है |
‘रांझे’ से प्रेम के कारण खेड़िया से अलग होकर ‘हीर’ ‘रांझे’ से शादी करने को होती है लेकिन अपनी झूठी इज्जत को बचाने के गुमान में उसके अपने बाप-चाचा साजिश कर ‘हीर’ को ज़हर दे देते हैं |
इसी तरह ‘सोहनी-महिवाल’ का किस्सा याद करें |
सोहनी, महिवाल से मिलने घड़े की मदद से दरिया पार उतरती है |
सोहनी की ननद इसे देख लेती है और परिवार के कथित सम्मान को बचाने के लिए पक्के घड़े को कच्चे घड़े से बदल देती है |
इस तरह एक झूठा सम्मान , सोहनी की बीच दरिया में जान ले लेता है |
लेकिन इन लोक कथाओं से बाहर आज भी प्रेम करना यदि किसी की हत्या का सबब बनता है तो फिर यही कहना चाहिए कि चाँद पर पहुंचने और आसमान पर पुल बना लेने के विकास के दावे के बावजूद भी हमारे भीतर नफरत का सौदागर निरंतर बर्बर हुआ है और हमे आज भी सभ्यता और संस्कृति का पाठ “ढाई-आखर” से शुरू कर सीखने की जरूरत है |जाति-पांति से सडांध मारते समाज  का उद्धार  अंर्तजातीय प्रेम और विवाह से ही किया जा सकता है |
 लेकिन फिलहाल सवाल यह है कि संस्कृति और देश के सम्मान की रक्षा के नाम पर संस्कृति के गुंडो द्वारा  निरीह-बेबस और अपने लिए एकांत तलाशते निरुपाय प्रेमी युगलों  कब तक खदेडे जाते रहेंगे  |
इस पूरे मंजर को देखकर यही सवाल कौंधता है ..
“हाथों में वही पत्थर, गलियों में वही लड़के,
क्या लोग मोहब्बत को हर दौर में मारेंगे?”
जवाब की आपसे दरकार रहेगी ||
||हनुमंत किशोर ||
[ पुनश्च : कामदेव के देश में प्रेम करने वालों का उत्पीड़ित और प्रताड़ित  होना सांस्कृतिक अधोपतन का संकेत है ...क्या uno जैसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन को मानवाधिकार दिवस की तर्ज़ पर प्रेम अधिकार दिवस भी घोषित नहीं करना चाहिये ?]