Monday, December 19, 2016

कमला कामवाली @घरेलू कामगार ( domestic servent)

घरेलू कामगार @कमला कामवाली 
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हमारी सोसाइटी चिडियों की चहचाहट से नहीं जागती ना ही मंदिर की घंटी या अजान से ,सोसाइटी का जागरण ‘कमला ओ कमला’ की चीख पुकार से होता है |
कमला कोई सेलिब्रिटी नहीं है लेकिन सुबह-सुबह सोसाइटी में किसी सेलिब्रेटी से कम भी नहीं है |
कमला काम वाली है |
३२ फ्लेट की हमारी सोसाइटी के ७ फ्लेट की लाइफ लाइन है कमला | जिस दिन वो बीमार होती है उस दिन ये सात फ्लेट बीमार हो जाते हैं |
जिस दिन उसके परिवार में कोई गमी पड़ती है उस दिन ये सात फ्लेट गमगीन हो जाते हैं |
लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि उस दिन उसका नाम कृतज्ञता से लिया जाता हो उलटे उसे कोसते हुए उसका नाम भुनभुना कर, कुड्मुड़ा कर ऐसे लिया जाता है मानो बीमार पड़ना उसका बहाना हो और परिवार में गमी करवा देना आराम करने की एक साजिश | 
अगले दिन जब कमला काम पर हाज़िर होती है तो उसकी गैरहाजरी को किसी घोर पाप या राष्ट्र-द्रोह सरीखे अपराध की तरह जिरह से गुजरना होता है |
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इन सात फ्लेटों में कोई समझदार,सम्वेदना सम्पन्न परिवार नहीं है | बल्कि कुछ एक तो शहर में स्थापित चर्चित बुध्दिजीवी हैं जैसे हमारे उपर के मिस्टर अग्रवाल |
मिस्टर अग्रवाल असिस्टेंट प्रोफेसर हैं | 
बड़ी से लायब्रेरी देखकर कहा जा सकता है कि खूब पढ़े-लिखे होंगे |
उन्ही के यहाँ से मैंने ‘आलो-अंधारी’ लेकर पढ़ी थी | अभी दीपावली पर सौजन्य भेंट में उनके घर गया तो कमला की चुगली करते हुए बोले “ दीपावली में साड़ी दी है लेकिन फिर भी एक टाईम गोल मारने से बाज़ नहीं आएगी”..मैंने याद किया अभी जब उनको स्पेंडोलाइटिस का दर्द उठा था तब तीन महीने वे घर पर थे| 
“क्या उस दौर में उन्होंने तनख्वाह नहीं ली होगी ?”
मैंने सोचा लेकिन तुरंत अपनी सोच को झटका देकर विषय परिवर्तन करते हुए कहा ..”आलो- अंधारी” अच्छी किताब है..हमारी कमला भी 'बेबी हालदार' की तरह लिख सकती है बशर्ते इसे भी कोई 'प्रबोध कुमार' मिल जाता” 
मेरी बात जाने क्यों उन्हें इतनी कड़वी लगी कि मिठाइयों को खाते हुए भी उनका मुंह टेढ़ा का टेढ़ा रहा |
कमला का एक और किस्सा है ,दास साहब के यहाँ का | 
दास साहब पी. एन. टी. डिपार्टमेंट में काम करते हैं ,मार्क्स को उन्होंने घोट रखा है | अपने विभाग में यूनियन की लीडरी भी करते हैं | आये दिन लाल झंडे के साथ वेतन-भत्तो को लेकर उनकी तस्वीर स्थानीय अखबारों में छपती रहती है |
एक दिन उनके फ्लेट से कमला और उनकी पत्नी यानी मिसेज दास का जोर-जोर का हल्ला सुनाई दिया | 
हुआ यह था कि उन्होंने कमला की पगार का उस दिन का पैसा भी काट लिया था जिस दिन लेट आने पर उसने सिर्फ झाडू-पोछा किया था और बर्तन मिसेज दास को खुद ही धोने पड़ गये थे |
मिस्टर दास अपनी पत्नी के पक्ष में कमला की छुट्टियों और शिकायत का चिट्ठा जोर -जोर से पढ़ रहे थे | 
मेरे लिए थोड़ी हैरानी की बात यह थी कि कल तक वे ही कमला से कहते फिरते थे ‘तुम लोगो का बहुत शोषण होता है ...तुम लोग इसके खिलाफ आवाज़ उठाओ’| 
कल तक जो उसके संघर्ष के मार्ग-दर्शक थे वे ही आज उसके १००-५० रूपये दबाने के लिए छटपटा रहे थे | 
मिस्टर और मिसेज दास भूल गये थे जब उनका शुभेंदु हुआ था और इन्फेक्शन के चलते जच्चा-बच्चा दोनों महीने भर नर्सिंग होम में भर्ती रहे थे तब उनके ४ साल के बेटे के साथ यही कमला घर में दिन भर अकेले रहती थी और कई मौको पर तो रात को उनके घर में ही नीचे चटाई पर सोई भी थी | 
उसके बदले में तब उसे सूट का कटपीस देकर अहसान चुकता कर दिया गया था | 
खैर जैसा कि होना था ..कमला ने उनके यहाँ का काम छोड़ दिया |
लेकिन दास परिवारकमला को फिर भी नहीं छोड़ सका क्योंकि हर नई कामवाली १ हज़ार की डिमांड कर रही थी और दास परिवार तीन सौ का घाटा उठाना नहीं चाह रहा था ,लिहाजा मिसेज शर्मा की मदद से चारा डाल कर कमला को पुन: काम पर बुला लिया गया |
मिसेज शर्मा की कमला से खासी पटती है | 
मिसेज शर्मा हंसकर कहती हैं कि हम दोनों अनुकम्पा नियुक्ति वाले जो हैं |
मिस्टर शर्मा ने सुरा प्रेम के चलते अपने लीवर का सत्यानाश कर लिया था और उम्र के चालीस का पहाड़ चढ़ते-चढ़ते एक दिन स्वर्ग की सीढ़िया जा चढ़े | तब शासन ने मिसेज शर्मा पर अनुकम्पा करते हुए उन्हें मिस्टर शर्मा से दो पद नीचे की कुर्सी पर बैठा दिया | 
कमला की अनुकम्पा का किस्सा कुछ अलग है |
यूं कि उसकी माँ भी इसी सोसाइटी में काम वाली थी | आज से १०-१२ साल पहले जब कमला १५ -१६ की रही होगी वो अपने यार के साथ दूसरे शहर चली गयी | तब दूसरे दिन से ही कमला अपनी माँ की जगह दुपट्टा कमर में खोंसकर फ्लेट के झाडू-पौछा,चौका-बर्तन में जुट गयी | 
माँ को अपने अंजाम का पहले से पता था,इसलिए महीने भर पहले से बीच-बीच में वो कमला को अपने साथ काम पर लाकर कमला का सेटेलमेंट बड़ी चतुराई से कर गयी थी | अब एक माँ जो ठहरी |
माँ के बाद कमला ने उसका काम और अपने भाई बहन का परिवार बड़ी चतुराई और ढिठाई से सम्भाला |
जब कुंवारी थी कमर कसकर और हाथ में सोटा लेकर चलती थी | शुरू में आये दिन सोसाइटी के सामने शोहदे टाईप के छोरो से उसकी जोरदार झड़प होती थी | मर्दाना गालियाँ भी उसके मुंह से ऐसे छूटती जैसे बोरिंग से पानी की धार | 
इन झडपों ने कमला की बहादुरी का खौफ सोसाइटी में ऐसा जमा दिया कि मिस्टर गांगुली जिनके रसिया किस्से मशहूर थे और जो उसे शुरू में हँसते हुए ‘कमला जान’ कहकर बुलाते थे ,उसके घर में घुसते ही घूमने निकल जाते | उनका कहना था कि कमला की ये झड़पे नूरा कुश्ती थी यानी फिक्स्ड फाईट सिर्फ डराने के लिए |
यदि यह सही भी था तो कमला की इस चतुराई और बोल्डनेस से दूसरी कमलाओं को भी सीखने की जरूरत है जो आज भी मालिक या उसके रिश्तेदार की हवस का शिकार होकर अपने को बर्बाद होने से बचाना चाहती हों | 
हालांकि ऐसे सच्चे प्रसंग बहुत कम सामने आते हैं कारण कि शिकायत करने पर अदालते और समाज कमलाओं को ही गलत ठहराता है | 
कारण एक यह कि वे गरीब है और जैसा की ऋत्विक घटक की एक फिल्म का सम्वाद है ‘गरीब का माथा पिघला हुआ मोम होता है जिस पर आप आसानी से कोई भी ठप्पा लगा सकते हैं |”
दूसरा कारण यह है कि इस तरह कामवाली को ही गलत ठहरा कर मालिक वर्ग अपने कुकर्मो पर पर्दा डाल देता है | यही मालिक वर्ग सत्ता के हर केंद्र पर विराजमान है और वे आज भी कमलाओं को ‘साफ्ट टार्गेट’ समझते हैं | 
‘मोनिका-क्लिंटन सिंड्रोम’ के चलते है ‘हाउ टू सेडूस योर मैड’ आज भी इंटर नेट पर सबसे ज्यादा सर्च और विजिट की जाती है |
दुबले पर दूसरा आषाण यह है कि कमला जैसी कामवालीयों को चरित्र के मामले में गलत सिर्फ मालिक वर्ग ही नहीं ठहराता उनके अपने पति भी , आये दिन इसी चरित्र के संदेह पर उनकी मरमम्त करना एक जरूरी पुण्य कार्य समझते हैं |
एक बार ज्यादा पीकर कमला का अपना पति ही उसे कुछ ज्यादा ही पीट गया था | डेढ़ हफ्ते कमला काम पर नहीं आ सकी | इस कारण दो- तीन घर भी हाथ से चले गये और उस बार हर घर ने उसकी पगार में एक मत होकर १० दिन की मजदूरी काट ली | 
यानी कमला को एक साथ दो लोगों से मार पड़ी पहले पति से और फ्लेट के मालिको से | आखिर पति और मालिक दोनों का वर्ग चरित्र एक ही होता है | दोनों उसे मनुष्य नहीं दर्द-भूख से परे बेजान लेडी-रोबोट जो समझते हैं | 
पति की गलती का दंड कमला ने दो बार तब और भोगा जब पति की लापरवाही के चलते उसे दो बार गर्भ ठहरा और उसे दोनों बार एबार्शन कराना पड़ा | 
दोनों बार यह बात सिर्फ मिसेज शर्मा को पता चली क्योंकि दोनों ही बार कमला ने एक दिन भी काम से नागा नहीं किया | 
दूसरी बार एबार्शन पर मिसेज शर्मा ने उसकी पगार दो सौ क्या बढ़ा दी , अपार्टमेन्ट की मालकिनो ने उनके ही खिलाफ मोर्चा खोल दिया | सबने कहा “घर का काम ही क्या है| दो चार बर्तन , दो चार कपड़े और एक टाइम झाडू-पोछा | ये कोई काम है भला |” उस वक्त मालकिनो के शब्द वैसे ही थे जो उनके मालिक उन्हें घर में सुनाया करते थे |
“तुम लोग घर में काम ही क्या करती हो ...दो रोटी बना दी ...कमरा ठीक कर दिया और अधिक से अधिक कभी मेहमान को चाय पिला दी बस |”
कितनी अजीब बात है कि मालकिनो को घर के काम के लिए जितना छोटा उन्हें उनके घर के मर्दों ने बनाया था , उतना ही वे सब मिलकर कमला को घर के काम के लिए छोटा बना रही थीं |
जबकि मर्दों को भले अंदाजा ना हो लेकिन औरते तो अच्छी तरह जानती हैं कि घर का काम कितना बड़ा काम होता है |
हमारी सोच में ही आज भी काम का मतलब है या तो उत्पादक श्रम या सफेदपोश काम | 
घर के काम को आज भी काम नहीं समझा जाता भले वो पत्नी करे या कमला जैसी कामवाली |
कामवाली या घरेलू नौकर आज की तारीख में गुलामी का मान्य रूप है | गुलाम की तरह आज भी उनकी खरीद और बिक्री होती है | भेड़ बकरी की तरह चोरी छुपे वे समन्दर और सीमा के पार भेजी जाती हैं | जिनका कोई रिकार्ड नही होता और बहुतेरी कभी लौट कर ही नहीं आती |
वे कितना भी खट जायें उन्हें ना बीमार पड़ने का हक़ है ना छुट्टी लेकर तीज त्यौहार या कभी कभार आराम करने का | वे हमारा जूठा धोये , हमारे गंदे कपड़े साफ़ करें , बच्चों की पॉटी साफ़ करें ,हमारे घर को साफ़ सुथरा कर रहने लायक बनायें लेकिन उफ़ ना करें | 
तनख्वाह में बढ़ोत्तरी और छुट्टी की मांग ना करें |
गोया वे हाड़ मांस के ना होकर पत्थर की गूंगी मूरत हों |
कमला की कहानी के छूटे अध्याय फिर कभी आज उसकी कहानी के हवाले से चंद सवाल 
१) संगठित और असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए कानून बन चुके हैं |
घरेलू कामगारों के लिए कानून क्यों नहीं ? आई एल ओ के सम्मेलन में करार करने के बाद भी भारत सरकार ने इनके लिए बने २०१० के अधिनियम को प्रभावी क्यों नही किया ?
२) क्या घरेलू कामगारों के एक जगह पंजीकृत होना चाहिये जहाँ से उनके हितो की देखभाल और निगरानी की जा सके ? 
३) कार्य स्थल महिला के यौन उत्पीडन की रोकथाम से सम्बन्धित अधिनियम २०१३ इनके बीच प्रसार-प्रचार क्यों नहीं किया जाना चाहिये ?
४) और जब तक सरकारी अमल ना हो हमारा अमल क्या हो ?
और भी जरूरी सवाल आपकी तरफ से हो सकते हैं | आखिर अब समय आ गया है जब इस अछूते और अन्धकारपूर्ण क्षेत्र पर विचार किया जाये जो हमारे जीवन में प्रकाश ही लाता रहा है |
पुनश्च :
_________
शालनी कौशिक की एक कविता 
"लड़ती हैं
खूब झगड़ती हैं
चाहे जितना भी
दो उनको
संतुष्ट कभी नहीं
दिखती हैं
खुद खाओ
या तुम न खाओ
अपने लिए
भले रसोईघर
बंद रहे
पर वे आ जाएँगी
लेने
दिन का खाना
और रात का भी
मेहमानों के बर्तन
झूठे धोने से
हम सब बचते हैं
मैला घर के ही लोगों का
देख के नाक सिकोड़ते हैं
वे करती हैं
ये सारे काम
सफाई भेंट में हमको दें
और हम उन्हीं को 'गन्दी 'कह
अभिमान करें हैं अपने पे
माता का दर्जा है इनका
लक्ष्मी से इनके काम-काज
ये ''कामवालियां'' ही हमको
रानी की तरह करवाएं राज़ ."
.....................
|| हनुमंत किशोर ||

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