इन्कलाब के इंतज़ार में
हमारी मुहिम मार्च अंक
मुहिम का इंतज़ार ज़रा लम्बा खिंच गया |आन्दोलन की पत्रिकाओं के साथ जैसा अक्सर होता है ,मुहिम के साथ भी हो रहा है यानी अस्तित्व का संकट | इसी से यह भरोसा भी होता है कि मुहिम ठीक जा रही है| तो अंततः मुहिम का मार्च माह का अंक आ ही गया .. देर सबेर ही सही | यह अंक मार्च में भगत सिंह का शहादत दिवस पर होने से उन्ही को समर्पित है|
भगत सिंह और उनकी विचारधारा की आज के वैश्विक परिदृश्य में प्रासंगिकता सिद्ध करता हुआ साथी विनीत तिवारी का आलेख “ख्यालों कि बिजली को आज़ादी का इंतज़ार “ इस अंक की उपलब्धि है| ब्रेख्त के ‘गेलेलियो ‘ नाटक में एक पात्र कहता है ‘ अभागा है वह देश जहाँ नायक नहीं होते ‘ इसके जवाब में गेलेलियो कहता है ‘ नहीं अभागा है वह राष्ट्र जिसे नायकों कि ज़रूरत पड़ती है’ विनीत तिवारी और गहरे उस अभागेपन का संकेत करते हैं जो नायको के साथ सही सलूक ना करने से पैदा होता है| इस आलेख के साथ भगत सिंह के द्वारा असेम्बली हाल में बाँटा गया परचा भी छापा गया है , जो भगत सिंह की दृष्टि और उनके उद्देश्यों को साफ़ करता है |
महिला दिवस पर विशेष में भारती शुक्ला का विचारोतेजक आलेख ‘ मदद चाहती है हव्वा कि बेटी , यशोदा कि हम जिंस राधा की बेटी ‘ शीर्षक से है | स्त्री होने का अर्थ तलाशता यह आलेख दीपा मुर्कुंडे और इरोम शर्मिला को सामने रखता है |
बहस में इस बार महेंद्र फुस्कले ‘ नया विश्व परिवेश : नैतिक मूल्य कि अवधारणा ‘ को लेकर आये हैं| दूसरे मार्क्सवादी विचारकों कि तरह श्री फुस्कले भी नैतिकता को इतिहास का उत्पाद मानते हैं | यद्यपि नीति का जन्म राज्य और धर्म से पहले हुआ है तथापि वह आर्थिक तंत्र से ही जन्मी है और उसी के साथ परिवर्तित होती है | यह आलेख इन्ही स्थापनाओं को स्थापित करता है|
५ राज्यों के चुनाव परिणामों में छुपे हुए संकेतों कि पड़ताल इस बार सामायिक में सतेन्द्र पाण्डेय सत्यम ने कि है तो फिल्म समीछा में इस बार पान सिंह तोमर के बहाने हनुमंत किशोर ने व्यवथा के वर्तमान अंतर्विरोधों कि शिनाख्त कि है ... जिनसे डाकू पान सिंह तोमर का जन्म होता है |यह पान सिंह वही है जो देश को मेडल दिलाने के लिए जी जान से दौडता है और फिर अपनी जान बचाने के लिए चम्बल के मकड़जाल नुमा बीहड़ में भागने को मज़बूर हो जाता है | जो व्यवस्था उसे अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट की प्रेक्टिस के लिए दौड़ वाले जूते नहीं दे सकती, वह व्यवस्था उसे बीहड़ और बंदूक के साथ जीने को विवश कर देती है|
५ राज्यों के चुनाव परिणामों में छुपे हुए संकेतों कि पड़ताल इस बार सामायिक में सतेन्द्र पाण्डेय सत्यम ने कि है तो फिल्म समीछा में इस बार पान सिंह तोमर के बहाने हनुमंत किशोर ने व्यवथा के वर्तमान अंतर्विरोधों कि शिनाख्त कि है ... जिनसे डाकू पान सिंह तोमर का जन्म होता है |यह पान सिंह वही है जो देश को मेडल दिलाने के लिए जी जान से दौडता है और फिर अपनी जान बचाने के लिए चम्बल के मकड़जाल नुमा बीहड़ में भागने को मज़बूर हो जाता है | जो व्यवस्था उसे अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट की प्रेक्टिस के लिए दौड़ वाले जूते नहीं दे सकती, वह व्यवस्था उसे बीहड़ और बंदूक के साथ जीने को विवश कर देती है|
पान सिंह तोमर इस की त्रासदी के बहाने लोकतान्त्रिक समाजवादी प्रभुतासंपन्न गणराज्य की त्रासदी की पड़ताल की एक कोशिश इस लेख में की गयी है|
यशपाल की कहानी ‘दुःख ‘ इस बार धरोहर का हिस्सा है | किसी कवि ने सटीक कहा है
“ बस अपना ही गम देखा है
तुने कितना कम देखा है”
यशपाल इसी सत्य को मार्मिक ढंग से अपनी कहानी में बयान करते हैं| हमारे दुःख जिंदगी की ज़दोजेहद में लगे आदमी के दुखों से किस तरह कमतर हैं , यह समझाने के लिए इस कहानी से गुजरना चाहिये|
अंक में वरिष्ठ कवि राम शंकर मिश्र के साथ निशांत कौशिक उपस्तिथ हैं | निशांत अज्ञात वास में कुछ अच्छा कर रहे हैं ..इसका अहसास उन्हें पढ़ कर होता है|
किन्तु सबसे अधिक आंदोलित करने वाली बात इस बार सम्पादकीय में है .....
..............आशा है हमारी मुहिम अकाल काल कलवित नहीं होगी और इसके लिये आपका यानी मुहिम के साथियों की हरचंद मदद दरकार है|
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